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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर-द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह' ने राजनीतिक हलकों में भूचाल ला दिया है। वहीं पूर्व कोयला सचिव पी.सी.पारेख ने भी अपनी किताब 'क्रूसेडर ऑर कांस्पिरेटर? कोलगेट एंड अदर ट्रुथ' में भी उनकी कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं। इस विषय पर पाञ्चजन्य संवाददाता आदित्य भारद्वाज ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया सलाहकार रहे श्री अशोक टंडन से जो विस्तृत बातचीत की, उसके मुख्य अंश यहां प्रस्तुत हैं :-
* संजय बारू ने अपनी पुस्तक में मनमोहन सिंह को कमजोर और सारे निर्णयों में सोनिया गांधी का हस्तक्षेप उद्घाटित किया है। आपका क्या कहना है?
कमजोर प्रधानमंत्री तो तब कहा जाएगा, जब जनता ने उन्हें चुनकर वहां भेजा हो और वे अपनी कार्यक्षमता से कमजोर सिद्ध हुए हों, उन्हें कमजोर नहीं कहा जाएगा क्योंकि उन्हें अपनी भूमिका पहले से ही स्पष्ट थी। हां ! यदि वे चाहते तो लोकप्रिय नेता बन सकते थे, विशेष तौर पर यूपीए-2 के समय यानी 2009 में लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। हां, नरसिंह राव ने लोकप्रिय नेता के तौर पर अपनी छवि बनाई और एक प्रभावी पीएम के तौर पर काम करने की कोशिश की। शायद यही कारण था कि सोनिया नरसिंहाराव से बेहद नाराज थीं। इसलिए उन्होंने कांग्रेस में विभाजन करवाकर उन्हें कमजोर करने की कोशिश की और धीरे-धीरे उनके अध्याय को कांग्रेस के इतिहास से निकाल दिया।
* वाजपेयी की तुलना में मनमोहन सिंह कहां खड़े दिखाई पड़ते हैं? क्या मीडिया सलाहकार देश की नीति निर्णायक फाइलों के निरीक्षण या उन पर चर्चा में सहभागी हो सकता है?
अटल से उनकी तुलना करना इसलिए ठीक नहीं होगा क्योंकि वाजपेयी लोकप्रिय नेता थे। आने वाला इतिहास जब अटल जी की तुलना करेगा तो जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी से करेगा। जहां तक नीति निर्णायक फाइलों के निरीक्षण की बात है तो वहां पर मीडिया सलाहकार की कोई भूमिका नहीं होती, इसलिए मेरा मानना है कि बारू अपनी पुस्तक में चाहे जो भी दावे करें किसी मीडिया सलाहकार की पीएमओ की फाइलों को देखने में कोई भूमिका नहीं होती।
* बारू की किताब से आप कहां तक सहमत हैं? एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री डॉ. सिंह वास्तव में प्रधानमंत्री के रूप में असफल सिद्ध हुए हैं?
बारू ने जो बातें पुस्तक में कही हंै वह पहले से जगजाहिर थीं। बारू ने सिर्फ उसे किताब में लिखकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया है। बारू ने अपनी पुस्तक में तमाम दावे किए हैं लेकिन सबकी पुष्टि करना बहुत मुश्किल है। बारू ने यूपीए के पहले कार्यकाल के बारे में तो कुछ नहीं लिखा। जबकि वह प्रधानमंत्री कार्यालय में थे। उन्होंने सबसे ज्यादा यूपीए-2 के कार्यकाल के बारे में लिखा है, जबकि उस समय वह पीएमओ में तैनात ही नहीं थे। कुछ मामलों में सोनिया अपनी बात मनवाती होंगी, लेकिन सभी फाइलें उनके पास जाती थीं, यह मैं मानने के लिए तैयार नहीं हूं।
* डॉ सिंह की छवि भले ही बेदाग हो लेकिन कांग्रेस सरकार में उजागर हुए घोटालों पर वे हमेशा चुप ही रहे।
क्या इस वजह से भी उन्हें एक असफल प्रधानमंत्री माना जाएगा ?
यदि डॉ. सिंह स्वयं ही यह चाहते थे कि वह लोकप्रिय नेता न बनें, उनकी लोकप्रियता सोनिया से ऊपर न जाए, एक प्रकार से वे स्वयं बड़ी राजनितिक भूमिका से बचना चाहते थे। वह स्वयं यह चाहते थे कि जनता के बीच में सीधा संदेश यही जाए कि जो कुछ हो रहा है वह प्रधानमंत्री नहीं बल्कि संप्रग प्रमुख सोनिया करवा रही हैं। मनमोहन अपनी भूमिका को खुद ही तय करते थे, वे उसमें खुश थे और उन्होंने अपनी भूमिका बखूबी निभाई। इसलिए यूपीए के कार्यकाल का देश को जो खामियाजा भुगतना पड़ा उसकी क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती।
* कोयला सचिव रहे पीसी पारेख ने भी अपनी किताब में लिखा है कि यदि प्रधानमंत्री हस्तक्षेप करते तो कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले को रोका जा सकता था।
मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं। उनके हस्तक्षेप का प्रश्न तो तब उठता जब वह पूरी तरह से प्रधानमंत्री की भूमिका को निभाते। उन्होंने जो हो रहा था होने दिया, शायद उन्हें अपने कार्यकाल में होने वाले कार्यों के गंभीर परिणामों के बारे में भनक नहीं थी।
* दोनों किताबों के बाजार में आने के समय पर क्या कहेंगे?
बारू ने पहले ही यह कह दिया था कि उनकी पुस्तक चुनावों के बाद आएगी, लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की पुस्तक उनसे पहले आने वाली है तो उन्होंने अपनी पुस्तक का विमोचन करा दिया। पूर्व कोयला सचिव की दलील यह है कि कोल आवंटन घोटालों में यदि सीबीआई उन्हें दोषी ठहराती है तो उतना ही दोष पीएमओ का भी है और प्रधानमंत्री भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। दूसरी ओर संजय बारू अपनी पुस्तक के माध्यम से यह निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रधानमंत्री के हाथ में कुछ था ही नहीं, जो कुछ भी हो रहा था उसमें दस जनपथ की ही बड़ी भूमिका थी। चुनावों के समय में इन पुस्तकों के आने का एक संकेत हो सकता है कि आने वाली सरकार इन आरोपों की तह में जाए।*
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