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-डॉ़ जितेंद्र बजाज-
वर्ष प्रतिपदा परिवर्तन लेकर आती है। शिशिर का अंत हो वसंत का आगमन होता है। वृक्षों पर नयी कोपलें फूटने लगतीं हैं, फूल खिलने लगते हैं। पलाश तो ऐसे फूलता है कि जंगलों में मानो आग सी लगी दिखती है। इसीलिए पलाश को अंग्रेजी में फ्लेम ऑफ फॅारेस्ट, जंगल की ज्वाला की संज्ञा दी गयी है। नवयौवन, नवोन्मेष की यह शीतल आग सारे वायुमंडल में फैली दिखती है। वायु में भी नयेपन की गंध-सी आने लगती है, जल में भी एक नयी शीतलता-स्वच्छता का आभास होने लगता है।
आशा के इस नये वातावरण का एक कारण तो यही है कि पिछले कुछ वषोंर् के आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं सामरिक कुप्रबंधन के चलते देश में एक गहन हताशा पसर गयी थी। पर अब लोगों को लगने लगा है कि अभी होने वाले चुनावों में एक नया राष्ट्रनिष्ठ सुदृढ़ एवं सक्षम नेतृत्व उभरेगा और हताशा की यह छाया हट जायेगी। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी श्री नरेंद्र मोदी से ऐसी अपेक्षाएं लोग लगाये बैठे हैं । पर आशा का यह वातावरण केवल किसी एक व्यक्तित्व पर आधारित नहीं है। देश और समाज में ही बहुत कुछ बदल गया है।
ऐसा क्या हुआ है जिससे देश में यह नया आत्मविश्वास और नयी आशा छलकने लगी है? सबसे बड़ी बात तो यही हुई है कि 67 वषोंर् की स्वाधीनता से भारत के राष्ट्रजीवन में एक नयी परिपक्वता एवं स्थिरता आयी है।
स्वाधीनता एवं समृद्घि के आने से भारत के लोगों में सार्वजनिक जीवन में अपनी मान्यताओं एवं अपनी अभिरुचियों को अभिव्यक्त करने का साहस भी लौट आया है। फलस्वरूप देश में सामाजिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण-सा होता दिख रहा है। ऐसा भारत के सब भागों में देखा जा सकता है। दक्षिण में प्राय: पूरा वर्ष सड़कों पर तीर्थयात्रियों के बड़े झुण्ड किसी-न-किसी पुण्य-स्थान की ओर पैदल जाते हुए दिखायी देते हैं। उत्तर में विभिन्न अवसरों पर स्थान-स्थान पर हरिद्वार अथवा वैद्यनाथ के कांवड़ जैसी धर्मयात्राएं चलती हैं।
यह सब हमें सहज-सामान्य लगता है। पर सामाजिक-धार्मिक जीवन का ऐसा व्यापक प्रस्फुटन कोई साधारण घटना नहीं है। जो समाज मिलजुल कर इतनी बड़ी व्यवस्थाएं कर लेता है, वह राष्ट्रजीवन के अनेक अन्य पक्षों के प्रबंधन में भी सक्षम होता है। ऐसे सक्षम समाज पर फिर कोई सरकार हावी नहीं हो सकती।
इन यात्राओं, अभियानों, आंदोलनों में भाग लेने वाले और उनकी व्यवस्था करने वाले अधिकतर युवा लोग ही हैं, यह भी महवपूर्ण है। भारत में आशा का नया जो वातावरण दिख रहा है, उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि जनसांख्यिकी दृष्टि से भारत अब एक युवा देश है। 2011 में गिने गये भारत के 120 करोड़ लोगों में से 42 करोड़ 15 से 34 वर्ष आयुवर्ग के युवा हैं, और 27 करोड़ अन्य लोग, 35 से 55 वर्ष आयु के सक्षम प्रौढ़ हैं। इस प्रकार भारत की कुल जनसंख्या का 57 प्रतिशत से अधिक भाग आर्थिक जीवन में सक्रिय युवाओं अथवा सक्षम प्रौढ़ लोगों का है।
भारत का इस प्रकार युवा होना देश के समक्ष एक बड़ी संभावना और एक बड़ा उत्तरदायित्व लेकर आया है। व्यक्तियों के समान ही राष्ट्र भी एक लंबे जीवन-चक्र में एकदा ही युवा हुआ करते हैं। उस युवावस्था का समुचित उपयोग नहीं किया जाता तो बाद में पश्चाताप ही शेष रह जाता है।
आजकल देश में आकांक्षावान् युवावर्ग की बहुत चर्चा हो रही है। आकांक्षाओं से अर्थ यहां सामान्यत: नगरीय उच्च मध्यम वर्ग की उपभोक्तावादी आकांक्षाओं से ही लिया जाता है। पर ऐसी आकांक्षाएं रखने वाले तो वही हो सकते हैं जो कुछ ऊंचे स्तर तक पढ़े हों।
भावी नेतृत्व को नगरीय आकांक्षावान युवाओं की चिंता करने के साथ-साथ इन बहुसंख्यक प्रयासवान् युवाओं की चिंता भी करनी होगी।
देश के बहुसंख्यक युवाओं की कोई आकांक्षा है तो वह यही है कि उन्हें अपना जीवनयापन करने के लिये और राष्ट्रनिर्माण में समुचित योगदान देने के लिये काम करने का कोई अवसर प्राप्त हो जाये।
आज भारत सब की सुख-समृद्घि के मार्ग पर अग्रसर होने की संभावना देख रहा है। सशक्त-समृद्घ राष्ट्र के रूप में विश्व में प्रतिष्ठित होने की संभावना देख रहा है। इस वर्ष की प्रतिपदा ऐसे शुभ परिवर्तन की अपेक्षा लेकर आयी है।
मुख्यधारा और अपवाद
आधुनिक नगरीय उपभोक्तावादी जीवनशैली पाने की आकांक्षा तो भारत के 42 करोड़ युवाओं में से कुछ 4-5 करोड़ की ही हो सकती है, कदाचित् कुल इतने ही स्नातक स्तर तक पढ़े-लिखे युवा देश में हैं। शेष 36-37 करोड़ों की आकांक्षा तो किसी प्रकार जीवनयापन के लिये कोई उपयुक्त काम पा लेने की है। परंतु अपने समाचारपत्रों में चर्चा उन 4-5 करोड़ की आकांक्षाओं और उनकी जीवनशैली की ही होती है।
हमें चर्चा युवाओं की सामाजिक, धार्मिक निष्ठा की करनी चाहिये। बड़ी संख्या में अनेक प्रकार की धार्मिक यात्राओं एवं सामाजिक अभियानों से जुड़ने वाले युवाओं की करनी चाहिए। अपनी छोटी कमाई से घर के बड़े-बूढ़ों एवं छोटे भाई-बहनों सब का निर्वहन करने वाले अधिसंख्यक युवाओं की करनी चाहिए। हम उन 35-36 करोड़ युवाओं की चिंता करनी चाहिए जिनकी आकांक्षा मात्र इतनी ही है कि वे किसी प्रकार जीविका का कोई साधन पा जायें और इस प्रकार राष्ट्र एवं समाज के लिये कोई उपयोगी काम करने लगें। उस आकांक्षा के प्रति हम सजग, सचेत एवं प्रयासशील रहें। वही राष्ट्रनिर्माण का मार्ग है।
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