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भारत का अगला प्रधानमंत्री जो भी बने, उसे विदेश नीति के बारे में अभी से सजग होना चाहिए। दुनिया में साम्यवाद और पूंजीवाद के धराशायी होने के बाद भारत को अपने आस-पड़ोस के माहौल को सुधारना चाहिए और वह भी खास भारतीय सांस्कृतिक शैली में।
डॉ़ वेदप्रताप वैदिक
पिछले दस वर्षों में कांग्रेस-सरकार की विदेश नीति का सचमुच कोई धनी-धोरी दिखाई नहीं पड़ा। प्राय: विदेश नीति का मूल निर्माता प्रधानमंत्री ही होता है। उसे अमलीजामा पहनाने का काम विदेश मंत्री करता है, लेकिन प्रधानमंत्री डॉ़ मनमोहन सिंह को विदेशी मामलों की जानकारी उतनी भी नहीं थी कि जितनी कि एम. ए. के किसी छात्र को होती है, यह बात मैं व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कह रहा हूं।
श्री पी़ वी़ नरसिंह राव और श्री अटल बिहारी वाजपेयी, दो ऐसे अन्य प्रधानमंत्री हुए, जिन्होंने अपनी विदेश नीति स्वयं गढ़ी। ये दोनों सज्जन लंबे समय तक विदेश मंत्री पद का अनुभव ले चुके थे और मंझे हुए राजनीतिज्ञ थे। दोनों ने अपने-अपने काल में कई अद्भुत पहल कीं, डॉ़ मनमोहन सिंह ने इन दोनों से दुगने समय तक प्रधानमंत्री पद की ह्यशोभाह्ण बढ़ाई, लेकिन उन्होंने कोई ऐसी पहल नहीं की, जिसका उल्लेख इतिहासकार गर्व से कर सकें। उन्होंने विदेश मंत्री भी ऐसे चुने, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ और विदेशों में जाकर भारत की जग-हंसाई करवाई।
भारत का अगला प्रधानमंत्री जो भी बने, उसे विदेश नीति के बारे में अभी से सजग होना चाहिए। पहली बात तो यह है कि भारत को अपने आस-पड़ोस के माहौल को सुधारना चाहिए। पाकिस्तान सबसे बड़ी कसौटी है। पाकिस्तान में बनी नवाज शरीफ सरकार का रवैया काफी रचनात्मक है। स्वयं पाकिस्तान आतंकवाद से जूझ रहा है, भारत से भी ज्यादा! आतंकवादी सिर्फ बंदूक की भाषा समझते हैं। यदि भारत और पाक सरकारें साझा मोर्चा बनाएं तो वे पाकिस्तानी आतंकवाद ही नहीं, तालिबानी अफगान अराजकता का भी मुकाबला कर सकते हैं। अफगानिस्तान से अमरीका की वापसी के बाद न तो अकेला भारत और न ही अकेला पाकिस्तान उसका मुकाबला कर सकता है। भारत सरकार का रवैया शुद्ध दब्बूपन का है। वह कोई पहल करने की स्थिति में नहीं है। अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई ने सारी मशक्कत कर ली लेकिन, हमारी ह्यबाबू सरकारह्ण और ह्यबबुआ नेतृत्वह्ण में वे दूरदृष्टि और साहस का अभाव देखते हैं।
इसी प्रकार नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, बर्मा और बंगलादेश की जनता और सरकारें भी भारत से प्रसन्न नहीं हैं। नेपाल में गठबंधन सरकार और माओवादी प्रतिपक्ष नेपाल के ही राष्ट्र हितों की रक्षा करने में असमर्थ है तो वहां भारत के राष्ट्र हित कौन सुरक्षित करेगा? मालदीव में राष्ट्रपति नशीद और लोकतंत्र का जैसा पराभव हुआ है और पाक व चीन का जैसा प्रभाव बढ़ रहा है, वह भारत के लिए चिंता का विषय है। यही हाल श्रीलंका का है। श्रीलंका और बंगलादेश से भारत के संबंधों पर तमिलनाडु और पं़ बंगाल की छाया का गहरा असर है। बर्मा और श्रीलंका में चीन के बढ़ते हुए प्रभाव से भारत सरकार हतप्रभ है। समस्त दक्षिण एशियाई देशों में पिछले दस वर्षों में चीन की धमक बढ़ी है।
भारत को एक दूरदृष्टि वाली पड़ोसी-नीति बनानी होगी। दक्षेस के आठ राष्ट्रों के अलावा उसमें बर्मा और ईरान को शामिल करना होगा। पूर्व सोवियत संघ के पांच गणतंत्रों-उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, किरगिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान को भी जोड़ना होगा। ये क्षेत्र हमारे विशाल आर्यावर्त के अभिन्न अंग रहे हैं। इन आर्य-प्रदेशों के अलावा 16वां राष्ट्र मॉरिशस भी हो सकता है। इन सभी राष्ट्रों का एक महासंघ बने, जिसके साझा बाजार, साझी संसद, साझी संस्कृति, साझा यातायात आदि मिलकर यूरोपीय संघ से अधिक एकरूप संगठन खड़ा करें। यदि नया प्रधानमंत्री इस सपने को साकार कर सके तो वह इस बृहद भारत परिवार के डेढ़ अरब से ज्यादा लोगों की जिंदगी में नया सबेरा उगा सकता है। इस विशाल क्षेत्र में इतनी अधिक धन-संपदा, गैस-तेल, खनिज और मानव प्रतिभा उपलब्ध है कि यह संसार का सबसे अधिक संपन्न और शक्तिशाली क्षेत्र बन सकता है और सिर्फ पांच साल में बन सकता है। इस क्षेत्र में महासंघ का निर्माण होते ही अनेक द्विपक्षीय विवाद नेपथ्य में खिसक जाएंगे।
भारत के पड़ोसी राष्ट्रों के बाद पश्चिम एशिया और पूर्वी एशिया के राष्ट्रों पर हमें विशेष ध्यान देना है। पूर्वी एशिया तो भारत का सांस्कृतिक प्रभाव-क्षेत्र रहा है। चीन के लोग भारत को ह्यपश्चिमी स्वर्गह्ण और ह्यगुरुओं का देशह्ण कहते हैं। बौद्ध राष्ट्रों में भारत की विशेष प्रतिष्ठा है। भारत चाहे तो पंचभकार की कूटनीति चला सकता है। -भाषा, भूषा, भोजन, भजन और भेषज की कूटनीति। चीन के साथ सीमा-विवाद का सुलझना कठिन नहीं है, बशर्ते कि हम नेहरू-युग में अटक गई सुई न छेड़ें। भारत और चीन मिलकर 21वीं सदी को एशिया की सदी में बदल सकते हैं। भारत की सांस्कृतिक गरिमा और लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा का उपयोग करके नई सरकार चीन-जापान संबंधों को भी पटरी पर ला सकती है और पड़ोसी देशों में प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ सहयोग का नया दौर शुरू कर सकती है।
अमरीका, रूस और यूरोपीय महाशक्तियों के साथ भारत के संबंध समान रूप से अच्छे हैं, लेकिन भारत उनसे संबंधित मामलों पर अपना कोई मौलिक अभिमत प्रस्तुत नहीं कर पाता है। चाहे लीबिया, मिस्र या सीरिया का मामला हो या चाहे चेचन्या और उक्रेन का संकट हो। परमाणु-सौदे को लेकर मनमोहन सरकार और भारतीय संसद की प्रतिष्ठा पैंदे में बैठ गई, लेकिन अभी तक अमरीका के साथ हुआ सौदा हवा में ही लटका हुआ है। इसी तरह अटल जी द्वारा शुरू किया गया प्रवासियों को जोड़ने का अभियान भी शिथिल पड़ गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के नवीकरण की योजना आखिर कब परवान चढ़ेगी? साम्यवाद और पंूजीवाद, दोनों धराशायी हो गए हैं। क्या भारत नकलची ही बना रहेगा? क्या वह अंतरराष्ट्रीय समाज को ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था नहीं सुझा सकता, जो विश्व के पर्यावरण और मानव-जीवन में नई आशा का संचार कर सके (लेखक भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं। )
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