|
-डा. तारादत्त 'निर्विरोध'-
माटी के अनगिन दीपों से चहुंदिशि फैला उजियाला पर,
जो मन को आलोकित कर दे,
ऐसा कोई दीप जलाओ ।
जले उमर भर दीप सांस के
हुआ नहीं फिर भी मन उजला ।
चौराहों पर मिले,नजरिया
उनका नहीं आज तक बदला।
सगे-संगाती रहे,
न बाती जला सके फिर कभी प्रेम की,
जो छवियां प्रतिबिम्बित कर दे, ऐसा कोई दीप जलाओ ।
सोचें उनके बारे में हम
जिनके पांव न मुड़ पाए हैं।
वषोंर् से जो रहे टूटते
वे न किसी क्षण जुड़ पाए हैं।
जहां आदमी अंधियारे की
बस्ती में फिर भटक रहा है;
वहां सभी कुछ ज्योतित कर दे,
ऐसा कोई दीप जलाओ।
अभी भेद की दीवारों में
बंद आस्थाओं के स्वर हैं।
अभी स्वार्थ की ज्वालाओं में
झुलसे हुए गांव या घर हैं।
इन सड़कों से उन द्वारों तक
कोई सड़क नहीं जुड़ पाई;
जो अगजग से परिचित कर दे,
ऐसा कोई दीप जलाओ।
टिप्पणियाँ