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आलोक बंसल
जम्मू-कश्मीर राज्य से हाल ही में मिले संकेत काफी अशुभ हैं। सांभा जिले में पुलिस चौकी और सेना अधिकारियों की एक मैस पर आतंकवादी हमला किया गया, जिसमें कई लोगों की जानें गईं। इसके साथ ही आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी के केरन सेक्टर में नियंत्रण रेखा पार करके घुसपैठ करने की कोशिश की। यह और अधिक आश्चर्य की बात थी क्योंकि घुसपैठियों ने नियंत्रण रेखा के उस तरफ अपने सुरक्षित ठिकानों की तरफ भागने के बजाए खंदकें खोद कर दो सप्ताह से अधिक समय तक भारतीय सेना से लड़ने का फैसला किया था। इस तरह का प्रयास अभूतपूर्व था। घुसपैठियों द्वारा दिखाए गए इस ढंग के दुस्साहस ने सुरक्षा बलों को चकित कर दिया था और उनके बीच पाकिस्तानी स्पेशल फोर्सेज की मौजूदगी की चर्चा थी, लेकिन उसमें नियमित सेना की मिलीभगत मान भी लें, तो भी, आतंकवादियों द्वारा प्रदर्शित किया गया दुस्साहस खतरनाक था।
इसलिए इस परिवर्तन के कारणों का मूल्यांकन करना आवश्यक है और कश्मीर घाटी के वर्तमान परिदृश्य के विश्लेषण से ये कारण साफ हो जाते हैं। कश्मीर घाटी पर एक सरसरी नजर दौड़ाएं तो हम पाएंगे कि वहाबी मस्जिदों और संस्थाओं की संख्या हाल के समय में बढ़ गई है और इसके परिणामस्वरूप पारंपरिक सूफी इस्लाम, जो कश्मीर घाटी का प्रमुख मजहब था, उस पर, कम से कम जहां तक शहरी युवाओं का संबंध है, कट्टरपंथी सलाफी इस्लाम हावी हो चुका है।
राज्य सरकार के प्रति युवाओं में आम तौर पर मोहभंग की स्थिति, व्यावहारिक स्थानीय शासन तंत्र का अभाव और विभिन्न सलाफी संगठनों को बड़े पैमाने पर बाह्य स्रोतों से प्राप्त हो रहे धन से इसे प्रोत्साहन मिला है। साथ ही साथ पाकिस्तान की घटनाओं को लेकर भी एक व्यापक असंतोष है, जिसके परिणामस्वरूप इस्लामाबाद आदर्श भूमिका में नहीं रह गया है, कुंठित युवा अपनी कल्पनाओं की दुनिया वाले समाधानों के लिए वैश्विक इस्लामी संगठनों के प्रति आकृष्ट हो रहे हैं।
परिणाम यह है कि घाटी के शहरी इलाकों में युवा अब खुद को पाकिस्तान के साथ जोड़कर नहीं देखते हैं, बल्कि एक काल्पनिक वैश्विक इस्लामी अमीरात की दिशा में समाधान खोज रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप स्वाभाविक तौर पर ही वैश्विक इस्लामी संगठन के साथ उनका सहयोग बढ़ा है और इस बढ़ी हुई प्रेरणा का नतीजा कश्मीर में हाल के दिनों में स्थानीय आतंकवादियों की वृद्घि में दिखा है। समाज में बढ़ती असहिष्णुता का भी कारण यही है, जिसके तहत महिलाओं की स्वतंत्रता पर आपत्तियां की जा रही हैं, जो पारंपरिक रूप से कश्मीरी समाज का आधार स्तम्भ रही हैं। बुकोंर् और दाढि़यों की बढ़ती संख्या साफ देखी जा सकती है। कश्मीर के महिला बैंड को बंद होने के लिए मजबूर किया गया था और महिलाओं को कैसी पोशाक पहननी चाहिए, इस पर फतवे लगाए जा रहे हैं।
इस सबके साथ ही, अल्पसंख्यकों के प्रति असहिष्णुता बढ़ रही है। घाटी भर में कई ईसाई स्कूलों, चचोंर् और संस्थानों पर हमले हुए हैं। कश्मीरियों को कथित तौर पर ईसाइयत की ओर प्रेरित करने के लिए एक ईसाई पादरी को गिरफ्तार किया गया था। इस तरह की घटनाओं की जांच से संकेत मिलता है कि कई हमलों को वहाबी प्रभाव वाले संगठनों द्वारा उकसाया गया था। कश्मीर की शरीया अदालत ने जनवरी 2012 में ईसाई स्कूलों के खिलाफ एक फतवा जारी किया था और जम्मू-कश्मीर सरकार से उनका प्रबंधन अपने हाथों में लेने के लिए कहा था। चूंकि ईसाई स्कूल लोकप्रिय हैं और वहाबियों द्वारा प्रचारित की जा रही कट्टरपंथी विचारधारा के प्रसार में एक प्रमुख बाधा माने जाते हैं, इसलिए उन्हें विशेष रूप से निशाना बनाया जा रहा है। इसके अलावा, वैश्विक इस्लामी संगठनों के साथ बढ़ती निकटता ईसाइयों को पसंदीदा निशाना बनाती है। इसके परिणामस्वरूप 2013 में घाटी में रहने वाले विदेशियों पर मतान्तरण का आरोप लगाते हुए हमले किए गए थे।
लेकिन वहाबी हमलों के सबसे बड़े शिकार कश्मीर घाटी के शिया अल्पसंख्यक हुए हैं, जो डोगरा और सिख शासन के अधीन सदियों से घाटी में सुन्नियों के साथ शांति से रहते रहे आए हैं। यहां तक कि स्वतंत्रता और कश्मीर के भारत में विलय के बाद भी शियाओं को निशाना बनाने की कोई घटना नहीं घटी थी। लेकिन दुनिया भर में इस्लामी समाज के बीच बढ़ रहे वहाबी पंथ के चलन ने शियाओं के शांतिपूर्ण अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। नफरत की जो विचारधारा इराक या सीरिया में शियाओं के खिलाफ हिंसा को जायज ठहराती है, वही विचारधारा घाटी से भी शियाओं का सफाया करने की वजह बनती जा रही है। विभिन्न मजहबी जमातों द्वारा बांटा जा रही नफरत का साहित्य शियाओं को ईमान से भटके हुए लोगों के तौर पर पेश करता है और बहुसंख्यक समुदाय को उनके खिलाफ हिंसा में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करता है। इसमें से कुछ साहित्य तो शियाओं को कश्मीर घाटी से खदेड़ने की भी वकालत करता है। 12 लाख से अधिक की संख्या वाला शिया समुदाय लद्दाख के करगिल क्षेत्र और कश्मीर घाटी के कुछ भागों में बहुसंख्यक भी है, और राज्य के सभी तीन भागों-जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में रहता है। हालांकि उन पर अत्याचार केवल कश्मीर घाटी में हो रहा है। अच्छी-खासी आबादी होने के बावजूद कश्मीर में शिया समुदाय को मुहर्रम के दौरान जुलूस निकालने की अनुमति नहीं मिलती है, और इस तरह जम्मू-कश्मीर देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां मुहर्रम के जुलूस की अनुमति नहीं होती है। इस्लाम के फिरकों के बीच हिंसा, जो पाकिस्तान में स्थायी बीमारी बन कर फैल चुकी है, नियंत्रण रेखा के पार कश्मीर घाटी में भी घुस चुकी है और बडगाम जिले में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है, जहां जुलाई 2013 में सांप्रदायिक संघर्ष में एक दर्जन से अधिक घरों को जला दिया गया था। स्थिति केवल सेना तैनात करने के बाद नियंत्रित की जा सकी, क्योंकि शिया समुदाय स्थानीय प्रशासन को पूर्वाग्रहग्रस्त मानता था। न केवल शिया बल्कि बेहद छोटा सा, शांतिपूर्ण और अहिंसक अहमदिया समुदाय भी घाटी में डरा-सहमा रहता है। कश्मीर के बड़े मुफ्ती ने मई 2012 में राज्य विधानसभा को पाकिस्तान की तर्ज पर अहमदिया समुदाय को गैर-मुसलमान घोषित करने का विधेयक पास करने के लिए कहा। इसी प्रकार पाकिस्तान अधित कश्मीर (पीओके) के बाल्टिस्तान के एक इस्लामी फिरके नूरबख्शी को, जिसके अनुयायी तुर्तुक क्षेत्र और कारगिल के कुछ हिस्सों में हैं, वहाबी मतान्तरणकर्ताओं द्वारा धमकी दी जा रही है। वहाबी और सुन्नी मौलवी नूरबख्शी युवाओं को वहाबी और सुन्नी मत में मतान्तरित कर रहे हैं। दुर्भाग्यवश, इस बेहद छोटे से संप्रदाय के पास अपने अनुयायियों को यह सिखाने के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा नहीं है कि उनके मत के मूल सिद्घांत क्या हैं। इसके परिणामस्वरूप नूरबख्शी युवा हज सहित किसी भी कारण से जब इलाके से बाहर निकलते हैं, तब वे दूसरे फिरकों के मतान्तरण कराने वालों के हाथों आसानी से शिकार हो जाते हैं।
पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी, जो घाटी में स्थानीय समर्थन खो चुके हैं, अब उग्रवाद को जम्मू और लद्दाख ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। उनका विशेष ध्यान जम्मू क्षेत्र में पुंछ, राजौरी और डोडा तथा लद्दाख में कारगिल पर रहा है। जम्मू क्षेत्र में उन्हें ग्राम सुरक्षा समितियों द्वारा चुनौती दी गई है, जिनमें मुख्य रूप से पूर्व-सैनिक शामिल हैं। ये समितियां लंबे समय से अलगाववादियों की आंख का कांटा बनी हुई हैं, जिसकी वजह से ही वे जम्मू क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगे भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। वे इसकी आड़ में इन समितियों को शस्त्रहीन कराने की कोशिश कर रहे हैं। अलगाववादियों का यह भी मानना है कि धार्मिक पर्यटन भी उनके अलगाववादी एजेंडे के लिए एक बाधा है, जिसके तहत भारत भर से लाखों तीर्थयात्री जम्मू और कश्मीर में विभिन्न धार्मिक स्थलों की यात्रा करते हैं। वे इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का आयोजन करने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि वे इन तीर्थयात्रियों के खिलाफ आम जनता में नकारात्मक भावनाएं पैदा करने में सफल नहीं रहे हैं, क्योंकि इन तीर्थयात्राओं से रोजगार पैदा होता है और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बल मिलता है।
अलगाववादियों को हाशिए पर लाने के लिए यह आवश्यक है कि सभी मजहबी और सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों को हर हाल में पूरी सुरक्षा प्रदान की जाए। हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर पर बहस पहले ही घाटी से स्थानांतरित होकर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में पहुंच चुकी है, लेकिन जम्मू और कश्मीर में लोगों को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की घटनाओं के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है।
आवश्यकता इस बात की है कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की जानकारियां देने और साथ ही व्यापक इस्लामी दुनिया में घटनाओं से परिचित कराने के लिए सेमिनार आयोजित किए जाएं, ताकि आम जनता कट्टरपंथ के खतरों को समझ सके। कश्मीर घाटी तक एक रेलवे लिंक की स्थापना और मुगल रोड को खोलने से राज्य के शेष भारत के साथ एकीकरण में वृद्घि होगी। हालांकि इन मागोंर् के साथ नए शहरों को विकसित करने की आवश्यकता है। इनमें से कुछ शहरों का उपयोग विस्थापित कश्मीरी पंडितों का घाटी में पुनर्वास करने में किया जा सकता है। इसी प्रकार दूरदराज के गांवों तक पर्यटन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, ताकि पर्यटन के लाभ राज्य के सभी कोनों तक पहुंचें और सिर्फ श्रीनगर तक ही सीमित न रह सकें।
इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है कि अमरीकी और नाटो सेनाएं 2014 में अफगानिस्तान से निकल जाएंगी और अगर तालिबान की जीत हुई, तो वैश्विक इस्लामिक अमीरात के अधिकांश जमीनी सिपाही लड़ाई के इस नए मोर्चे की ओर आ जाएंगे, जिसमें कश्मीर शामिल होगा। इसलिए यह आवश्यक है कि इस राज्य में सुरक्षा के परिवेश को मजबूत किया जाए और राष्ट्रवादी तत्वों को पूरी सुरक्षा दी जाए।
(लेखक सेंटर फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज,
नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)
अलगाववादियों को हाशिए पर लाने के लिए यह आवश्यक है कि सभी मजहबी और सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों को हर हाल में पूरी सुरक्षा प्रदान की जाए। हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर पर बहस पहले ही घाटी से स्थानांतरित होकर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में पहुंच चुकी है, लेकिन जम्मू और कश्मीर में लोगों को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की घटनाओं के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है।
आवश्यकता इस बात की है कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की जानकारियां देने और साथ ही व्यापक इस्लामी दुनिया में घटनाओं से परिचित कराने के लिए सेमिनार आयोजित किए जाएं, ताकि आम जनता कट्टरपंथ के खतरों को समझ सके। कश्मीर घाटी तक एक रेलवे लिंक की स्थापना और मुगल रोड को खोलने से राज्य के शेष भारत के साथ एकीकरण में वृद्घि होगी। हालांकि इन मागोंर् के साथ नए शहरों को विकसित करने की आवश्यकता है। इनमें से कुछ शहरों का उपयोग विस्थापित कश्मीरी पंडितों का घाटी में पुनर्वास करने में किया जा सकता है। इसी प्रकार दूरदराज के गांवों तक पर्यटन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, ताकि पर्यटन के लाभ राज्य के सभी कोनों तक पहुंचें और सिर्फ श्रीनगर तक ही सीमित न रह सकें।
इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है कि अमरीकी और नाटो सेनाएं 2014 में अफगानिस्तान से निकल जाएंगी और अगर तालिबान की जीत हुई, तो वैश्विक इस्लामिक अमीरात के अधिकांश जमीनी सिपाही लड़ाई के इस नए मोर्चे की ओर आ जाएंगे, जिसमें कश्मीर शामिल होगा। इसलिए यह आवश्यक है कि इस राज्य में सुरक्षा के परिवेश को मजबूत किया जाए और राष्ट्रवादी तत्वों को पूरी सुरक्षा दी जाए।
(लेखक सेंटर फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज,
नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)
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