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अजय विद्युत
भूख, बेरोजगारी से ज्यादा बड़ी समस्या हो गई है कानून-व्यवस्था। उस पर जनता की त्रासदी यह कि उसके रहनुमा ही उसकी जान के दुश्मन बन गए हैं। दहशत में जीना आम आदमी की नियति बनता जा रहा है चाहे वह दिल्ली में हो, या लखनऊ, गोरखपुर में अथवा पटना, मुजफ्फरनगर में।
सरकारें कैसे बनती हैं, कैसे चलती हैं, नेताओं की खरी कमाई का मुख्य जरिया कया है, ये अपराध किसने इस हद तक बढ़ाए हैं़.़ ये सब ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब तलाशने की जुगत फिलहाल राजनेताओं के एजेंडे में नहीं है। यहां तक कि 20 साल पहले 1993 में तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एन एन वोहरा की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट भी धूल फांकती रह गई जो 1995 में ही केंद्र सरकार को सौंप दी गई थी।
वोहरा समिति की रिपोर्ट इसलिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है कि उसमें पहली बार राजनीति के बढ़ते संगठित अपराधीकरण के गठजोड़ का खुलासा हुआ। रिपोर्ट में साफ कहा गया कि अपराधियों, पुलिस, राजनीतिक नेताओं और नौकरशाहों का सिंडीकेट काम करता है। और ऐसा केवल किसी एक जगह पर नहीं हो रहा, बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में यह देखने में आया है। यह कमेटी ने अपने निष्कर्ष में दिया है इसलिए एक बड़े खतरे की तरफ इशारा करता है। वोहरा कमेटी इंगित करती है कि यह सिंडीकेट राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने में मदद करता है, धनबल और बाहुबल जुटाता है। इसके बदले राजनीतिक नेता उन्हें कारोबार फैलाने में विभिन्न सुविधाएं प्रदान करते हैं। आप देखेंगे तो पिछले दो दशकों में रियल एस्टेट का कारोबार जिस तेजी से फैला है उसमें नेताओं, अफसरों और अपराधियों के इसी गठजोड़ ने रंग दिखाया है। लूटा देश जाता है और पैसा जाता है इन्हीं तीन तबकों के बीच।
जो बात वोहरा कमेटी साफ तो नहीं लिखती लेकिन बखूबी अंडरलाइन करती है, वह है राजनीतिक दलों में बड़ी संख्या में अपराधियों का सीधा दखल। देश की अंदरूनी सुरक्षा को इससे बड़ा खतरा और नहीं हो सकता।
जब पुलिस भी इसमें शामिल हो जाती है तब हालात और बिगड़ जाते हैं और जनता की सुरक्षा दांव पर लग जाती है। जैसे आप दिल्ली में लें तो जगह-जगह प्रपर्टी पर कब्जा जमाने की घटनाएं कैसे होती हैं। सीधे तौर पर यह अपराध, नेता, पुलिस और अफसरों की सांठगांठ का नतीजा है।
पैसे के लेनदेने में इतना बड़ा गड़बड़ होता है कि तमाम नेताओं, अफसरों और पुलिस अधिकारियों पर आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक कमाई के मामले चलते हैं। तिकड़ी की सांठगांठ इतनी तगड़ी है कि मामले चलते हैं और दबा दिए जाते हैं। यह अपराध ढकने में सबकी एकजुटता का नतीजा होता है।
एक पहलू यह भी है कि कमेटी ने मीडिया के एक वर्ग को भी इसमें सहभागी बताया है। यह भले अटपटा लगे लेकिन आज मीडिया के एक हिस्से में किसी एक पक्ष को ज्यादा उभारने और दूसरे को नजरअंदाज करने का जो चलन है, वह इसी गठजोड़ का हिस्सा है। संदिग्ध संपत्ति सौदों में सीधी संलिप्पता उजागर होने के बाद भी गांधी परिवार के दामाद श्रीमान राबर्ट बढेरा जी के प्रति मीडिया का एक बड़ा हिस्सा लगातार अतिरिक्त संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण रहा है।
बहरहाल वोहरा समिति ने केंद्र को कुछ सुझाव दिए थे। जैसे- राजनीतिक दल अपनी आय का नियमित अडिट कराएं और हर साल उसकी जानकारी सार्वजनिक करें, उनके लिए एक आचार संहिता बने जिसका कड़ाई से पालन हो, निगरानी एजेंसियों को और अधिकार मिलें और न्याय व्यवस्था बदले। वोहरा समिति की रिपोर्ट का सबसे उल्लेखनीय पहलू उसका यह निष्कर्ष है कि मौजूदा न्याय व्यवस्था इस प्रकार के अपराधों से छुटकारा दिलाने और देश के सामने आ रहे संकटों से निपटने में कतई कारगर नहीं है। टोल मांगने पर बौराते, सिमी जैसे संगठनों को पुचकारते और आतंकियों के साथ मारी गई इशरतजहां को राज्य की बिटिया बताते नेताओं ने जनता पर डंडा और गुंडाराज चलाया लेकिन उनकी इन हरकतों ने लोक के मन में तंत्र के विरुद्ध बारूद बिछाने का काम ही किया। जनता का सत्ता के प्रति यह क्षोभ ही आज सड़कों पर आ निकला है।
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