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अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
वह पूनम की रात थी। होना तो चाहिए था उसे चांदनी की रात, पर अब वह इतनी लजीली हो गयी है कि उसके दर्शन भी दुर्लभ हो गए हैं। अब वह हो गयी है धरती तक पहुंचने से पहले ही प्रदूषणजन्य कुहासे में खो जाने वाली चांदनी, शहरों में बिजली के खम्भों के नीचे घुटने टेक देने वाली चांदनी ,गांवों में दरिद्रता से हताश लोगों को सामने होते हुए भी न दिखने वाली चांदनी। कभी वह श्रृंगार करके गीत गुनगुनाते दिखी भी तो तुरंत मन को समझाना पड़ा कि वह किसी मुम्बैया फिल्म के सेट पर हजारों वाट के बल्बों और रिफ्लेक्टरों की करामात थी। पार्श्व संगीत की चाशनी में पगा, किसी अभिनेत्री की अदाओं से सजा, एक मायाजाल जो चांदनी नहीं, केवल उसका भ्रम था। ऐसे में जब स्वयं अमिताभ बच्चन ने सुझाया कि कच्छ के रण में उस अद्भुत चांदनी को एक बार गुजरात आकर देखिये तो मैं फिसल ही गया। खतरा इसका था कि बाद में दावा झूठा निकलने की शिकायत की तो मेरा मुंह बंद करने के लिए वे ये न कहें कि रिश्ते में हम तुम्हारे बाप लगते हैं।
बहरहाल, जब उस अद्भुत सुन्दर चांदनी को देखने का मन बना ही लिया तो हम चल पड़े। दिल्ली से भुज की लम्बी रेलयात्रा के बाद वहां से भी चौरासी किलोमीटर दूर श्वेत-रण तक जाने के लिए सड़क मार्ग से जाने के विचार से ही थकान हो रही थी। मन शंकित था,कहीं सुन्दर पैकिंग के अन्दर छिपा माल असली न निकला तो? श्वेत रण की दहलीज पर बसाई तम्बुओं की नगरी के वातानुकूलित शिविर में ह्यरनिंग हॉट वाटरह्ण से लेकर गद्देदार पलंग तक की तीन सितारा सुविधाएं पाकर थकान दूर हो गयी। पूनम की रात की प्रतीक्षा करनी ही थी पर सुझाव मिला कि रात्रिभोजन से निपटकर नौ बजे तक चलें तो रात के शीतल स्पर्श में भीगी चांदनी और मनमोहक लगेगी। आगे बताने के लिए क्षण भर चुप रहकर उस पिघली हुई चांदी में डूबे हुए श्वेत-रण की मूरत फिर से मन में बसानी होगी। काश वह अप्रतिम सौन्दर्य उस रात सन्नाटे में डूबकर चुपचाप पी सका होता। काश सभी सैलानी चांदनी के स्निग्ध पाश में बंधकर विस्मयजन्य खुशी को शब्दों में व्यक्त करने की जल्दी में ना होते तो वह रात हमें सम्मोहित करके बेसुध बना देती। पर अपने पास खड़े, प्रसन्नता से विह्वल, मन की बातें कहने के लिए आकुल, एक अधेड़ व्यक्ति की उत्तेजना ने मुझे भी अभिभूत कर दिया। सफेद कमीज, पटियाला-शलवार जैसी सफेद धोती और कच्छी ढंग से गोल बंधी लाल पगड़ी में सुसज्जित वह ग्रामीण एक सैलानी नहीं था। कच्छ के ही किसी गांव से आया था। अब श्वेत-रण में चांदनी को नहीं बल्कि सैलानियों को देखकर अपनी खुशी बांटे बिना उसका मन नहीं माना। मुझसे बोला-ह्यम्हारे बाप दादों ने इसी रण के नमक को ऊंटों पर लाद कर सैकड़ों मील पैदल चल कर दो रोटी कमाने में जिन्दगी बिता दी। चांदनी तब भी थी। बस उसे देखने के लिए उनके पास आंखें नहीं थीं। म्हारे नरेंद्र भाई की आंखें देख सकीं कि ये चांदनी कैसे इन तम्बुओं के शहर में सैकड़ों लोगों को काम दिला पायेगी। कैसे उनके कशीदाकारी वाले जूते-कपड़े खरीदने के लिए हजारों मील दूर से लोग हवाई जहाज से आयेंगे। कैसे इस खारे दलदल के पास बसे गांवों में पीने के लिए नर्मदा का शीतल पानी मिल सकेगा। कैसे ऊंट गाडि़यों में बैठकर सैलानी इतना खुश होंगे, जितना हम हवाई जहाज में बैठकर हो सकते हैं। इसको देखने के लिए जो आंखें चाहिए, हैं किसी के पास?ह्ण
मैं बहस में पड़कर चांदनी का तिलिस्म नहीं तोड़ना चाहता था अत: ऊपर से चुप रहा पर मेरा स्वाभिमान भी जग गया था। गुर्राकर मन ही मन में कहा-अरे जाओ बड़े आये विजन वाले! तुम्हारे भाई ने तो आकाश की चांदनी बेचकर जो मिला वह सबमें बांट दिया, अपने लिए कुछ भी बचा नहीं पाए। असली दूर दृष्टि तो हमारे भाई में है, जिन्होंने जमीन में छुपा कोयला और आकाश में अदृश्य तरंगों का स्पेक्ट्रम बेच खाया। इतना कमाया कि उनका चहेता परिवार कई पीढि़यों तक खाए फिर भी खतम न होगा। तुम्हें उजाले पर गर्व है? आओ तुम्हें दिखाऊं हमारे यहां का अन्धेरा कितना विस्मयकारी है।
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