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31 अक्तूबर, 1971 को प्रकाशित आलेख
-देवेन्द्र स्वरूप-
15 दिसम्बर 2013 के अंक में ह्यपटेल निन्दा में जुटे नूरानीह्ण शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें बताया गया था कि देश के कुछ बुद्धिजीवी यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि नेहरू और पटेल के बीच कोई मतभेद नहीं था। प्रस्तुत लेख में यह बताया गया है कि नेहरू और मौलाना आजाद की गुटबंदी सरदार की छवि किस तरह खराब कर रही थी।
सरदार पटेल की मृत्यु को 21 वर्ष की दूरी से देखने पर लगता है कि वह मृत्यु नहीं, हत्या थी। सरदार के हत्यारे वे थे जिन्होंने जाने या अनजाने सरदार और उनके गुरु अथवा धर्मपिता गांधी के बीच अविश्वास की खाई खोदने का महापाप किया था। और गांधी जी की हत्या के समय सरदार की पीड़ा को सहलाने के बजाय उन पर हत्या का लांछन भी लगाने का दुस्साहस किया था। शिव के समान सरदार ने इस ओछे प्रचार के विष को भी बड़े धैर्यपूर्वक चुपचाप पान कर लिया। सरदार बाहर से नारियल की तरह सख्त दिखायी देते थे पर वे अपनी मनोवेदना को भीतर ही भीतर छिपाये रखते थे। इसमें संदेह नहीं कि गांधी जी के बाद जितने दिन वे जिये, अकेलेपन में जिये, एक टूटा हुआ दिल लेकर खाट के सहारे जिये।
निष्काम देशभक्ति ही उनका अपराध था
सरदार का अपराध केवल इतना था कि गांधी जी के प्रति उनका समर्पण अंधा नहीं था, वह स्वार्थ से नहीं, निस्वार्थ देशभक्ति से प्रेरित था। उनकी पहली निष्ठा एक स्वाधीन, सुदृढ़ एवं महान भारत के प्रति समर्पित थी और ऐसे भारत की निर्मिति के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे। इस अकृत्रिम, निष्काम देशभक्ति ने ही उनकी वाणी को वह स्पष्टता व निर्भीकता प्रदान की थी, जिसमें अनेक लोगों को कड़वाहट दिखायी देती थी और जिसे जानते बूझते गांधीजी भी हजम न कर पाये। गांधी जी के नेतृत्व के प्रति पूर्ण समर्पणभाव लेकर सरदार ने हिन्दू मुस्लिम एकता एवं अखंड भारत के लिए पूरे तीस वर्ष तक प्रमाणिक प्रयत्न किया था, किंतु जब उस सबका परिणाम देश विभाजन में ही निकला तो सरदार का देशभक्त अंत:करण राष्ट्रवाद की इस भारी पराजय से तिलमिला उठा। पहले अंतरिम सरकार और फिर स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल के गृहमंत्री के रूप में जब उन्होंने मुस्लिम साम्प्रदायिकता के वास्तविक स्वरूप को आर-पार देख लिया तब उन्होंने यथार्थवाद की कठोर-भूमि पर खड़े होकर इस साम्प्रदायिकता को राष्ट्रद्रोह की आत्मघाती राह से हटाकर देशभक्ति की दिशा में चलाने के लिए कठोर पग उठाये और स्पष्ट अथवा कड़वी भाषा का प्रयोग प्रारंभ किया।
मुसलमानों से साफ बात
3 जनवरी, 1948 को सरदार ने कलकत्ता मैदान में 5 लाख नर-नारियों के विशाल समुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा था
ह्यजहां तक सेकुलर बनाम हिन्दू भारत के विवाद का ताल्लुक है, हिन्दू राज्य की बात को मैं गंभीरता से नहीं लेता। किंतु एक बात निर्विवाद है। भारत में साढ़े चार करोड़ मुसलमान मौजूद हैं। इनमें से अधिकांश ने पाकिस्तान के निर्माण में मदद की थी। कौन यकीन करेगा कि वे रातोंरात बदल गये हैं? मुसलमान भाई कहते हैं कि वे वफादार नागरिक हैं इसलिए उनकी वफादारी पर शुबहा करने का किसी को क्या हक है? मैं उनसे कहता हूं, ह्यतुम हमसे यह सवाल क्यों पूछते हो?ह्णअपने दिलों को ही टटोल कर देख लो।ह्ण
तीन दिन बाद 6 जनवरी को लखनऊ की एक जनसभा में सरदार ने अपनी बात को और स्पष्ट शब्दों में कहा-
ह्यमैं मुसलमानों का सच्चा हितैषी हूं, यद्यपि मुझे उनका सबसे बड़ा दुश्मन बताया जाता है। मैं साफगोई में विश्वास करता हूं। मैं बात को घुमा फिरा कर कहना नहीं चाहता। मैं उन्हें साफ शब्दों में बता देना चाहता हूं कि इस विकट घड़ी में वफादारी की शाब्दिक घोषणाएं उनका साथ नहीं देंगी। उन्हें कुछ ठोस सबूत भी देना होगा।ह्ण
ह्यमैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्यों नहीं वे सीमांत कबीलों की मदद से भारत पर आक्रमण करने के लिए पाकिस्तान की नि:संदिग्ध शब्दों में निंदा करते? क्या यह उनका फर्ज नहीं है कि भारत के विरुद्ध प्रत्येक आक्रामक कृत्य की भर्त्सना करें?ह्ण
ह्यमैं भारतीय मुसलमानों से सिर्फ एक सवाल पूछना चाहता हूं। अभी हाल में जो अखिल भारतीय मुस्लिम सम्मेलन हुआ था उसमें तुमने कश्मीर के सवाल पर अपना मुंह क्यों नहीं खोला?ह्ण
ह्यऐसी बातें ही लोगों के दिलों में उनके बारे में संदेह पैदा करती हैं। इसलिए मैं मुसलमानों के दोस्त के नाते उनसे साफ बात कहना चाहता हूं। और अच्छे दोस्त का यह फर्ज है कि वह साफ बात करे। भारत में रहने के बाद आपका फर्ज है कि जिस नाव में हम सवार हैं उसी में आप भी बैठे या डूबें। मैं साफ-साफ कह देना चाहता हूं कि आप दो घोड़ों पर एक साथ सवारी नहीं कर सकते। एक घोड़ा ही आपको चुनना होगा। जो आपको बेहतर लगे उसे चुन लो…ह्ण
ह्यजो पाकिस्तान को जाना चाहते हैं वे प्रसन्नतापूर्वक वहां जायें और शांति के साथ रहें? हमें यहां शांतिपूर्वक जीने दो और अपने भाग्य का निर्माण करने दो। जो भारत के प्रति वफादार नहीं हैं उन्हें पाकिस्तान जाना ही होगा। जो अभी भी दो घोड़ों पर सवारी कर रहे हैं उन्हें हिन्दुस्थान छोड़ना होगा।ह्ण
गांधी जी जानते थे, लेकिन…
सरदार की इस दो टूक भाषा के पीछे जो हितैषी भावना एवं यथार्थ दृष्टि छिपी हुई थी, उसे गांधी जी पहचानते थे। जब सरदार के इन भाषणों को आधार बनाकर पृथकतावादी मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने उनके विरुद्ध जिहाद छेड़ दिया और सरदार को अपनी महत्वकांक्षा की राह का कांटा मानने वाले मौलाना आजाद एवं नेहरू जैसे गुमराह लोगों ने गांधी जी के कान उनके विरुद्ध भरना प्रारंभ कर दिया तो गांधी जी ने 13 जनवरी, 1948 को उपवास की स्थिति में प्रार्थना सभा में सरदार का समर्थन करते हुए कहा था- ह्यआज मरने के लिए तो पड़ा ही हूं? मुझ को सुनाते हैं कि सरदार काफी कड़वी बातें कह देते हैं। मैंने उनको कई दफा कहा है कि आपकी जुबान में कांटा है। मगर मैं जानता हूं कि उनके दिल में कांटा नहीं है। उनका हृदय शुद्ध है। वे खरी बात सुनाने वाले हैं। कलकत्ते में और लखनऊ में उन्होंने कहा है कि मुसलमान यहां रह सकते हैं मगर मैं लीगी मुसलमानों पर एतबार नहीं कर सकता।ह्ण वे कहते हैं कि कल तक जो मुसलमान दुश्मन थे, वे आज दोस्त बन गए यह मैं कभी नहीं मानूंगा। उन्हें शक लाने का पूरा अधिकार है। उस शक का आप सीधा अर्थ करें।…ह्ण
खाई पैदा मत करो
15 जनवरी, 1948 को जब गांधी जी से प्रश्न पूछा गया कि ह्यक्या आप सरदार का हृदय पलटने के लिए उपवास कर रहे हैं? क्या आपका उपवास गृहविभाग की नीति की निंदा करता है?' तो गांधी जी ने लिखित उत्तर दिया था।
'कई मुसलमान दोस्तों ने शिकायत की थी कि सरदार का रूख मुसलमानों के खिलाफ है। मैंने कुछ दु:ख से उनकी बात सुनी, मगर कोई सफाई पेश न की। उपवास शुरू होने के बाद मैंने अपने ऊपर जो रोकथाम लगा रखी थी वह चली गयी। इसलिए मैंने टीकाकारों को कहा कि सरदार को मुझसे और पंडित नेहरू से अलग करके और मुझे और पंडित नेहरू को खामखाह आसमान पर चढ़ाकर वे गलती करते हैं। जिससे उनका फायदा नहीं पहुंच सकता। सरदार के बात करने के ढंग में एक तरह का अक्खड़पन है, जिससे कभी-कभी लोगों का दिल दु:ख जाता है, मगर सरदार का इरादा किसी को दुखी बनाने का नहीं होता। उनका दिल बहुत बड़ा है। उसमें सबके लिए जगह है। सो मैंने जो कहा उसका मतलब यह था कि अपने जीवन भर के वफादार साथी को एक बेजा इल्जाम से बरी कर दूं। मुझे यह भी डर था कि सुनने वाले कहीं यह न समझ बैठे कि मैं सरदार को अपना जी-हुजूर मानता हूं। सरदार को प्रेम से मेरा जी हुजूर कहा जाता था। इसलिए मैंने सरदार की तारीफ करते समय कह दिया कि वे इतने शक्तिशाली और मन के मजबूत हैं कि किसी के जी हुजूर हो ही नहीं सकते। जब वे मेरे जी हुजूर कहलाते थे तब वे ऐसा कहने देते थे, क्योंकि जो कुछ था वह अपने आप उनके गले उतर जाता था। वे अपने क्षेत्र में बहुत बड़े थे।… जरा सोचिए तो सही कि एक कमजोर आदमी जनता का प्रतिनिधि बने, तो वह अपने मालिकों की हंसी और बेइज्जती ही करवा सकता है। मैं जानता हूं कि सरदार कभी उन्हें सौंपी हुई जिम्मेदारी को दगा नहीं दे सकते। वे उसका पतन बरदाश्त नहीं कर सकते।'
अनैतिक राजनीति में से उभरे सवाल
किंतु उस अनैतिक राजनीति को आप क्या कहेंगे जो गांधी जी की इस स्पष्टोक्ति के बाद भी भावी पीढि़यों को गुमराह करने के लिए मौलाना आजाद ने अपनी आत्मकथा में लिख दी है कि गांधी जी का उपवास सरदार पटेल के विरुद्ध था। देखिए मौलाना आजाद की ह्यइण्डिया विन्स फ्रीडमह्ण पृष्ठ-216) और जो आज भी यह कहने की नीचता कर रही है कि गांधी जी की हत्या की साजिश में सरदार भी शामिल थे। (देखिए बिल्टज 28 अगस्त, 1971, पृष्ठ 12-13) मौलाना आजाद और जवाहरलाल नेहरू के दिलों में सरदार के प्रति रंजिश क्यों थी? क्यों वे गांधी जी के कानों में लगातार सरदार के विरुद्ध जहर घोलते रहते थे? क्यों गांधी जी इन लोगों के बहकावे में आ गए थे? क्यों उन्होंने देश का बंटवारा कराने वाले मुसलमानों और उनके द्वारा निर्मित पाकिस्तान की हिमायत में 12 जनवरी, 1948 को अनशन प्रारंभ किया? क्या विगत 23 वर्ष का इतिहास उनके उस कदम को सही ठहरा रहा है? इन सब सवालों का जवाब देने के लिए जो विस्तार चाहिए वह इस छोटे से लेख के कलेवर के भीतर संभव नहीं।
सरदार की मनोवेदना
अत: इन सवालों के जंगल में न उलझते हुए हम सीधे सरदार की मनोवेदना में डुबकी लगाने का प्रयत्न करते हैं। जिस समय सरदार के विरुद्ध जिहाद जारी था, गांधी जी को उनके विरुद्ध खड़ा किया जा रहा था और गांधी जी को सरदार के बचाव के लिए सफाइयां देनी पड़ रही थीं, उस समय सरदार के मन में क्या चल रहा था? गांधी जी अनशन किए पड़े थे, सरदार को पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार बम्बई जाना आवश्यक था। बम्बई जाने के पूर्व 16 जनवरी को उन्होंने गांधी जी को निम्नलिखित पत्र भेजा।
ह्यमुझे इसी प्रात: 5 बजे काठियावाड़ के लिए प्रस्थान करना है। यह पीड़ा मेरी सहनशक्ति के बाहर है कि आपको उपवास करते छोड़कर मैं बाहर चला जाऊं। किंतु कर्तव्य पालन की कठोरता ने मेरे सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ा। आपकी कल की मन:स्थिति ने मुझे बैचेन कर दिया है। मुझे तेजी से सोचने के लिए मजबूर किया है।ह्ण
ह्यकाम का बोझ इतना अधिक है कि मैं उसके नीचे दबा जा रहा हूं अब मुझे लगने लगा है कि इस तरह खींचते रहने से न देश का भला होगा और न मेरा। शायद कुछ नुकसान ही हो जाए। जवाहर पर मुझ से भी ज्यादा बोझा है। उसका दिल गम से भरा हुआ है। हो सकता है कि उम्र के साथ मेरा ह्रास हो गया है और अब मैं उसका इतना अच्छा साथी नहीं रहा हूं कि उसके साथ खड़ा रहकर उसका बोझा हल्का कर सकूं। जो कुछ मैं कर रहा हूं उससे मौलाना (आजाद) भी नाराज हैं। और आपको बार-बार मेरी हिमायत से जूझना पड़ता है। किंतु यह मेरे लिए असह्य है।ह्ण
ह्यइन परिस्थितियों में संभवत: यह देश के और मेरे हित में बेहतर होगा कि आप मुझे छुट्टी दे दें। मैं जो कुछ इस समय कर रहा हूं, उससे भिन्न मैं कर नहीं सकता। और यदि वैसा करने से मैं अपनी जिंदगी भर के साथियों के लिए बोझा बन रहा हूं, आपके लिए पीड़ा का कारण बन रहा हूं और तब भी मैं पद से चिपका रहूं तो उसका मतलब होगा कम से कम अब मैं ऐसा महसूस करने लगा हूं-कि मेरी आंखें सत्ता के मोह से अंधी हो गयी हैं और मैं उससे अलग होना नहीं चाहता। आप मुझे जल्दी से जल्दी इस असहय स्थिति से छुटकारा दीजिए।ह्ण
किंतु क्या गांधी जी स्वप्न में भी उन सरदार पटेल पर सत्ता लोलुपता का आरोप लगा सकते थे जिन्होंने केवल उनकी (गांधी जी) इच्छा का पालन करने के लिए 1929, 1936 और पुन: 1946 में कांग्रेस के बहुमत का समर्थन अपने पीछे होते हुए भी कांग्रेस के अध्यक्ष पद को नेहरू जी को सौंप दिया था।
23 वर्ष बाद भी हम वहीं के वहीं
लेकिन सरदार पर यह आरोप लगाया गया। यह आरोप आजाद और नेहरू ने लगाया, कम्युनिस्टों ने तो उसे खूब उछाला। डा.लोहिया तथा जयप्रकाश सरीखे भावुक, स्पर्धा राजनीति के दांवपेंचों से अनभिज्ञ, किताबी देशभक्त भी गुमराह होकर सरदार के विरुद्ध विषाक्त वातावरण तैयार करने में जुट गए। इस सबके पीछे जहां नेहरू व आजाद का सरदार के प्रति व्यक्तिगत वैमनस्य कार्य कर रहा था, वहीं पृथकतावादी मुस्लिम साम्प्रदायिकता का धुंआधार प्रचार भी सक्रिय था। उसके देशद्रोही इरादे तभी पूरे हो सकते थे जब सरदार गृहमंत्रालय छोड़ दें।
डा.लोहिया ने तो अपनी मृत्यु के पूर्व दिल्ली के लालकिले में सरदार जयंती पर बोलते हुए अपनी तब की भूल पर सार्वजनिक पश्चाताप भी किया था। उन्होंने कहा था कि सरदार के जीवनकाल से मैंने उनको गलत समझा था। तब उनकी बातों पर मुझे गुस्सा आता था किंतु आज मुझे लगता है कि वे सही थे और मैं ही गलत था।
शायद अब जयप्रकाश जी भी अनुभव कर रहे होंगे कि उस समय नेहरू भक्ति के आवेश में उन्होंने सरदार के प्रति कितना बड़ा अन्याय किया था। क्योंकि आज बंगलादेश की मुक्ति के प्रश्न पर उनकी स्थिति भी लगभग वही है जो उस समय सरदार की थी। जो राष्ट्रविरोधी मौन मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने उस समय कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण के बारे में अपनाया था, वही रूख आज बंगलादेश में पाकिस्तानी जुल्मों और आसन्न भारत पाक युद्ध के प्रति अपनाया हुआ है। जिस प्रकार सरदार ने उस समय उनसे दो टूक प्रश्न पूछा था। उसी प्रकार आज कभी-कभी जयप्रकाश जी भी पूछ लेते हैं किंतु उस प्रश्न का उत्तर देने के बजाय मुस्लिम साम्प्रदायिकता जिस प्रकार उस समय सरदार को मुसलमानों और पाकिस्तान का शत्रु ठहरा रही थी उसी प्रकार आज जयप्रकाश जी को लगभग उसी अथवा उससे भी खराब भाषाओं में कोस रही है। और जो नेहरू-कम्युनिस्ट गठबंधन उस समय इस साम्प्रदायिकता का पृष्ठपोषक बनकर सरदार का उपहास उड़ रहा था वही आज जयप्रकाश जी का भी मजाक बना रहा है। उस समय सरदार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कठपुतली बताया गया था। आज जयप्रकाश जी को जनसंघ का पिट्ठू कहा जा रहा है। 23 वर्ष तक धक्के खाने और अनुभव प्राप्त करने के बाद भी भारतीय राजनीति का चरित्र वही रहा जो तब था। सिर्फ अभिनेता बदल गए हैं, नाटक वही हैं, पात्र वहीं हैं। एक अंतर कहा जा सकता है कि सरदार की यथार्थवादी दृष्टि उनकी दृढ़ता और उनके हाथ की ताकत जयप्रकाश जी के पास नहीं है। शायद, इसीलिए विरोधी तत्व उनका उपहास उड़ाकर संतोष कर लेते हैं, जमकर विरोध करने की आवश्यकता नहीं करते।
आज जब सरदार की जयंती पुन: आयी है, इन सब पुरानी बातों की यादें ताजा हो रही हैं और एक टीस दिल में छोड़ रही है कि अगर उस समय सरदार के साथ यह सब न किया होता तो वे कुछ वर्ष और जीवित रहते और तब शायद भारत की कई समस्याओं को वे सुलझा गए होते।
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