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तुफैल चतुर्वेदी
मित्रो! पंजाबी का एक मुहावरा है-ह्यफफ्फे कुट्टन।ह्ण इससे मिलता-जुलता मुहावरा हिंदी में भी है-विधवा-विलाप। मगर इसमें कुछ कमी है। विधवा-विलाप विषाद की अभिव्यक्ति तो हो सकता है मगर पंजाबी के उस मुहावरे की जगह विधवा-विलाप का प्रयोग करना चाहें तो इसमें पति के दबाव से मुक्ति के साथ-साथ 5 बैडरूम का मकान मर्सिडीज कार, 5-7 करोड़ की इंश्योरेन्स पालिसी, कुछ करोड़ के बैंक बैलेंस के साथ-साथ मन में फूटते लड्डू और जोड़ लीजिये। इत्तफाक से प्रशांत भूषण नोएडा के जिस सेक्टर 15 में रहते हैं वहां उनके बंगले की कीमत भी 15-20 करोड़ ही है। इस समय प्रिंट, इलेकट्रनिक तथा सोशल मीडिया में प्रशांत भूषण के कश्मीर में जनमत संग्रह वाले बयान पर राष्ट्रवादियों के विरोध पर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। इन प्रतिक्रियाओं पर प्रशांत भूषण और उनके हिमायतियों की मानसिक-स्थिति को समझने के लिए यह सही मुहावरा है।
प्रशांत भूषण ने क्या कहा है, उसे देखना चाहिए। तभी आ़आ़पार्टी के दफ्तर पर हमले और पिछली बार प्रशांत के साथ हुई हाथापाई की असलियत समझ में आ सकती है। प्रशांत भूषण ने देश के एक हिस्से, कश्मीर को अलग करवा देने का प्रस्ताव पिछली बार किया था जिस पर देशभक्तों के तेवर गरमाए थे। इस बार देश के इस अशांत भाग कश्मीर से सेना हटाने के लिये जनमत संग्रह की बात की है। हो सकता है कि इनको यह ध्यान न हो कि हमारा देश भारत है। यह कोई पाकिस्तान तो है नहीं कि सेना अपनी मर्जी से कहीं भी चली जाये और उसके बाद राजनेता उसके जाने को जायज ठहराते घूमें और तीसमारखां मीडिया, न्याय-पालिका मौन रहे। यहां यह बात बिल्कुल बिसरा दी जाती है कि सेना वहां भेजी ही क्यों गयी। सेना को सीमा की सुरक्षा के साथ-साथ देश को सुरक्षित रखना होता है, किसी बाह्य आक्रमण से बचाव की सावधानी के तहत सेना सीमा पर गश्त लगाती है। शांति-काल में बैरकों में रहती है और युद्घ या युद्घ जैसी हालत में बाहर निकाली जाती है। इन सारी बातों की इतने विस्तार से चर्चा इसलिये आवश्यक है कि बाद में प्रशांत भूषण या कोई और यह न कह बैठे कि मुझे तो इसका पता ही नहीं था या लो कल्लो बात़.़ आपने तो यह बताया ही नहीं था। सेना वहां अपनी मर्जी से नहीं गयी थी। सेना न तो कीर्तन करती है, न उससे कोई अपेक्षा करता है कि वह कीर्तन करेगी।
कश्मीर में कुछ साल पहले राजनेता, मीडिया, न्यायपालिका, मानवाधिकारी दम साधे पड़े थे। वहां से सारे हिंदुओं को मार कर निकाल दिया गया। सेना ने अपना खून बहा कर, जी हां, शब्दश: अपना खून बहा कर इन सबके अधिकारों को बहाल किया है।
प्रशांत भूषण के बयान पर विरोध प्रदर्शन मूलत: कुछ लोगों की दण्डात्मक प्रतिक्रिया है। दंड आखिर है क्या? सभ्य समाज अपने को सुचारू और सुरक्षित रखने के लिये नियम बनाता है। उन नियमों की अवहेलना करने वालों की क्रिया पर प्रतिक्रिया करता है। भारत में यह नहीं होता हो, तो देश से प्यार करने वाले, इसके अहित से चिंतित होने वाले आखिर क्या करें? हमेशा अपराध और दंड का सम्बन्ध तुलनात्मक होता है। किसी भी दंड को उसके अपराध की गम्भीरता से देखा जाता है। आखिर अपराधों के लिये आजीवन कारावास, मृत्यदंड है कि नहीं? अब आप बताइये कि देश के एक और विभाजन का बीज डालने का प्रस्ताव क्यों सुना और माना जाना चाहिये? ऐसी बात करने वाले को सीधे रास्ते पर आने के लिए बाध्य क्यों नहीं किया जाना चाहिये? होना यह चाहिये कि देश के विभाजन का कोई भी प्रस्ताव देशद्रोह की श्रेणी में आना चाहिये और इस पर गम्भीर दंड होना चाहिये। हो यह रहा है कि सुरक्षित जगहों पर बैठे बयान-वीर प्रिंट, इलेक्ट्रनिक मीडिया तथा फेसबुक पर भ्रामक बातें फैलाने में लगे हैं। इन लोगों को यह भी नहीं दिखायी देता कि इस्लाम इसी तरह विश्वभर में अपना फैलाव करता रहा है। इसी तरह आतंकवाद की रणनीति और दब्बू मुस्लिम और गैरमुस्लिम लोगों के चलते संसार भर में इस्लाम का विस्तार हुआ है। इसी तरह इस्लाम ने भारतीय संस्कृति के ही क्षेत्र अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश छीने हैं।
प्रशांत भूषण ने मुस्लिम वोटों के नेता बनने के लिये एक दांव खेला है। इस दांव को खेला जाना प्रशांत भूषण और आ़आ़पार्टी के लिये कितना उपयोगी रहा है, इस बात को आ़आ़पार्टी के लिये तौकीर रजा खान जैसे घनघोर मजहबी लोगों के समर्थन, दिल्ली में अवैध बंगलादेशियों के जम कर वोट डालने, दिल्ली में पार्टी की सरकार बनने से समझा जा सकता है। तो साहब, आपके और मेरे प्रतिक्रियाहीन होने या उपयुक्त प्रतिक्रिया न करने के कारण ह्यफफ्फे कुट्टनह्ण का काम हो रहा है।
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