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बहुत समय पहले की बात है। एक गांव के छोटे से मंदिर में बाबा भारती नाम के एक संत रहते थे। उनके पास एक घोड़ा था, जिसे बचपन से उन्होंने ही पाला था।
उस इलाके में खड़गसिंह का नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था। एक दिन दोपहर के समय डाकू खड़गसिंह बाबा भारती के पास पहुंचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, कहो खड़गसिंह क्या हाल हैं, कैसे आना हुआ। खड़गसिंह ने कहा कि बाबा सुलताना को एक बार देखने की चाह आपकी कुटिया पर खींच लाई।
सुल्तान की प्रशंसा सुनकर बाबा का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। वह उसे खोलकर बाहर ले आए। उसकी चाल देखकर खड़गसिंह के हृदय पर सांप लोटने लगे, जाते-जाते उसने कहा, बाबाजी, मैं यह घोड़ा अब आपके पास न रहने दूंगा। बाबा डर गए। उनकी सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। कई माह बीत गए लेकिन वह न आया।
बाबा कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की तरह मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। सहसा एक ओर से आवाज आई, बाबा, इस गरीब की सुनते जाना।
बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?
अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, बाबा, मुझ पर दया करो। अगला गांव यहां से तीन मील है, मुझे वहां जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा। बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था। बाबा कुछ समय तक चुप रहे और कुछ समय बाद कुछ निश्चय कर पूरे बल से चिल्लाकर बोले,जरा ठहर जाओ।
खड़गसिंह ने घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूंगा। बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी आंखों में देखा और कहा कि यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूंगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूं। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।
खड़गसिंह ने कहा कि बाबा आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूं, बस घोड़ा न दूंगा।अब घोड़े का नाम न लो। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।
खड़गसिंह का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आंखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?
सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे। यह कहते-कहते उन्होंने सुलतान की ओर से इस तरह मुंह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।
बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूंज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊंचे विचार हैं, उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख खिल जाता था। कहते थे, इसके बिना मैं रह न सकूंगा। इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।
रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुंचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की लगाम पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुंचा। फाटक खुला था। किसी समय वहां बाबा स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुल्तान को उसके स्थान पर बांध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, वे अस्तबल की तरफ बढ़े। परंतु फाटक पर पहुंचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पांवों को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रुक गए। सुलतान ने अपने स्वामी की पदचाप को पहचान लिया और जोर से हिनहिनाया। बाबा आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठ पर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुंह पर थपकियां देते। फिर वे संतोष से बोले, अब कोई दीन-दुखियों से मुंह न मोड़ेगा।
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