|
सरकार अपने बनाए कानून को न्यायालय से क्यों निरस्त कराना चाहती है?
समलैंगिकता पर अपने फैसले के विरुद्घ कुछ केन्द्रीय मंत्रियों के बयानों पर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी व्यक्त की है। न्यायालय के निर्णय से सहमत विश्व हिन्दू परिषद ने कहा है कि मंत्रियों के बयानों से सिर्फ न्यायालय ही नहीं पूरा देश नाराज है। केंद्र सरकार समलैंगिकता जैसी बीमारी को बढ़ावा देकर अब भारत के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों की भी बली चढ़ाना चाहती है जिसे विहिप के साथ समस्त हिन्दू समाज व राष्ट्र भक्त जनता कतई बर्दाश्त नहीं करेगी।
विहिप के अनुसार समलैंगिकता जैसी बीमारी से ग्रसित लोगों का उपचार करने की बजाय सरकार इसे कानूनी जामा पहनाने में लगी है। संसद द्वारा स्वीकार्य कानून पर स्वयं संसद में बहस कराने से डरी केंद्र सरकार इसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय से निरस्त कराने के लिए दबाव बना रही है। सरकार अपने मूल उद्देश्य से भटक कर न्यायालय के कंधे पर रख कर बन्दूक चलाना चाहती है। यदि कोई कानून सरकार को सही नहीं लगता तो वह संसद की स्वीकृति से उसे निरस्त या संशोधित कर सकती है। किन्तु, यदि वह इसे जनता के दबाव में नहीं कर पा रही तो कम से कम माननीय न्यायालय की अवमानना तो न करे। विहिप का कहना है कि सरकार इस मसले पर अपनी और फजीहत कराने की बजाय धरातल पर लौटे और देश के कानून व न्यायपालिका का सम्मान करे जिसके लिए उसने कसम खाई है। उल्लेखनीय है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल, मिलिंद देवड़ा, पी. चिदंबरम और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के समलैंगिकता सम्बन्धी बयानों पर विचार करने के बाद भविष्य में ऐसा नहीं करने के लिए सचेत किया है। इन सभी ने इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गत माह दिए निर्णय के विरुद्घ तीखी टिप्पणियां की थीं और समलैंगिकों का पक्ष लिया था। ये सभी मंत्री अप्राकृतिक यौनाचार को दंडनीय अपराध बताने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कराने के पक्ष में हैं। इस पर देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई थी और भारत के समस्त धर्म गुरुओं, चाहे वे किसी भी मत-पंथ से संबन्धित क्यों न हों, ने भी एक स्वर से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत करते हुए केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना की थी। प्रतिनिधि
टिप्पणियाँ