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उत्सवों का समाज है भारत। इसी समाज में फकीरी में भी उत्सवीय मन होने के उदाहरण मिलते हैं। यहां अभाव को भी उत्सवीय आनंद से जीने की परंपरा रही है। धन के अभाव को जन ही पूरी करते रहे हैं। वसुधा को कुटुम्ब मानने के भाव और व्यवहार के बीज परिवारों में ही डाले जाते रहे हैं। एक-दूसरे के लिए जी कर प्रति पल को उत्सवीय बनाने की आदत। भवन हो या वन, मात्र अपने लिए भोजन बनाने का संस्कार ही नहीं रहा। बांटकर खाने का आनंद, दूसरों को खिलाकर स्वयं अघा जाने का संस्कार इस समाज की नारियों में आज भी बचा है। स्वयं भोजन करने से पूर्व घर के बाहर खड़े होकर आवाज देने वाला सुसंस्कारी पुरुष-ह्यह्यकोई भूखा तो नहीं हैह्णह्ण इसी समाज में रहे हैं। दूसरों के दु:ख को स्वयं भोगने, दूसरों के लिए जीने के भाव ने सदियों से एक साथ बांधे रखा है तीन-चार-पांच पीढि़यों को। एक वृहत्तर परिवार में जन्मा शिशु कई स्त्रियों का दूध पीकर बड़ा होता रहा है।
व्रत-त्योहारों को सामूहिक रूप से मनाते हुए समाज में सामूहिकता बरकरार रखने की कामना की जाती रही है। कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को बिहार में बड़े पैमाने पर सूर्य की पूजा होती है। यह व्रत अकेले में संपन्न नहीं हो सकता। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में व्रती महिला सूर्यदेव से वार्तालाप करती दिखाई जाती है। एक गीत के अनुसार व्रती महिला की निष्ठा, कठिन तप और उपवास संकल्प से प्रसन्न होकर सूर्य भगवान कहते हैं-
ह्यह्यमांगू-मांगू तिरिया जे कुछ मांगव,
जे किछु हृदय में समाय॥ह्णह्ण
सूर्यदेव- हे व्रती महिला! तुम्हारे हृदय में जो भी मांग है उसे मांगो। मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं।
व्रती स्त्री- ह्यह्यअगला हल दुनू वरदा मांगीले,
पिछला हल हलवाहा
गोर धोने के चेरी मांगीले, दूध पीअन धेनू गाय
सभा बैठन के बेटा मांगीले, नुपूर शब्द पुतोह
बायना बांटेला बेटी मांगीले, पढ़ल पंडित दामाद।ह्णह्ण
सर्वप्रथम तो खेती करने के लिए दो बैल और हलवाहा मांगती हूं। सेवा करने के लिए सेविका और दूध पीने के लिए धेनू गाय मांगती हूं। सभा में बैठने योग्य बेटा और नूपुर शब्द सुनाने वाली संस्कारी बहू मांगती हूं। बायना बांटने के लिए बेटी मांगती हूं और पढ़ा-लिखा दामाद।
सूर्यदेव – ह्यह्यएहो जे तिरिया सभे गुण आगर, सब कुछ मांगे समतुल हे।ह्णह्ण
सूर्य भगवान उस व्रती महिला के मांगपत्र को सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं। वे कहते हैं कि यह व्रती महिला सभी गुणों से पूर्ण है। यह अपने परिवार के लिए सब कुछ संतुलित मांगती है। भरा-पूरा परिवार।
एक सुखी परिवार के लिए वह सब चाहिए जो व्रती महिला ने सूर्य से मांग लिया। आर्थिक आधार खेती के लिए बैल और हलवाहा, सुख-सेवा के लिए सेवक-सेविकाएं और गाय, वंश बढ़ाने के लिए बेटा और बेटी भी। एक स्त्री की यही कामना होती है। तीन-चार पीढि़यां साथ रहती आई हैं, इसीलिए तो उत्सव भी सफल होता रहा है और उत्सवों के कारण परिवार सुदृढ़ होता आया है।
भारतीय समाज में कई उत्सव हैं जब ब्याहता लड़कियां भी मायके आती हैं। उन्हें बुलावा भेजा जाता है। उनके आने से मायका परिवार में हर्षोल्लास बढ़ता देखा जाता है। रक्षाबंधन, भाईदूज, सामा चकेवा के अवसर पर बहनों के मायके आने या भाइयों के बहनों के ससुराल जाने की परिपाटी रही है। दोनों स्थानों पर विवाह जनेऊ जैसे अन्य संस्कार उत्सवों पर भी भाई-बहनों की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती रही है-
ह्यह्यबहिनिया बिनु ना शोभे मंडप, बहनोइया बिनु ना शोभे दुअरा।ह्णह्ण
संग-साथ रहने की व्यक्तिगत भूख ही सामूहिकता की जननी है। इसलिए तो कोई भी उत्सव, व्रत त्यौहार हो, सामूहिकता जीवंत हो उठती है। सुख तो सुख है, दु:ख को भी सामूहिकता से हल्का किया जाता है। भारी समय काटा जाता है।
एक फिल्मी गीत की पंक्तियां हैं-
ह्यह्यपास बैठो कि तबियत बहल जाएगी
मौत भी आ गई हो तो टल जाएगीह्णह्ण
किसी का पास चाहिए। समूह में रहने पर अपना व्यक्तिगत दु:ख बहुत कम हो जाता है। किसी के कंधे पर सिर रखकर रोने से व्यथा धुल जाती है। इसलिए तो दु:ख और सुख दोनों ही स्थितियों में अपनों का संग-साथ चाहिए।
यूं तो वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन बड़े-छोटे पर्व-त्योहार या उत्सव के दिन हैं। उन उत्सवों को मनाते हुए हमारा सामूहिक जीवन पुख्ता होता रहा है। कार्तिक महीना को पुण्य महीना कहा जाता है। इस माह की हर तिथि कोई न कोई व्रत और उत्सव की तिथि है। इन उत्सवों में परिवार के सभी सदस्यों की संलग्नता दिखती है, वहीं हर उम्र के सदस्यों के लिए अलग-अलग काम भी। जिस घर में बुजुर्ग, जवान, बच्चे, किसी एक पीढ़ी के सदस्य की कमी हो, उत्सव का रंग फीका हो जाता है। उदाहरण के लिए हम दीपावली को ही ले लें। पन्द्रह-बीस दिन पूर्व से मकान (किसी भी आकार-प्रकार का हो) की रंगाई-पुताई, साफ-सफाई होने लगती है। घर की युवा पीढ़ी इस कार्य में लग जाती है। दीपावली के दिन पूजापाठ बुजुर्गों के जिम्मे होता है, पकवान बनाना, घर सजाना युवा महिलाओं की जिम्मेदारी, बाजार-हाट पुरुषों की तो आतिशबाजी और फुलझडि़यां उड़ाना बच्चों की। काम बंटे भी हैं और नहीं भी। बंटे हुए कामों को भी मिलजुल कर ही पूरे किए जाते हैं। सहजीवन जीवंत हो उठता है। जिन घरों में बुजुर्ग और बच्चे नहीं, वहां उत्सव फीका-फीका रहता है।
संयुक्त परिवारों में ह्यसर्वे भवन्तु सुखिन:ह्णह्ण सिद्घांत को भरपूर जिया जाता रहा है। ह्यह्यआत्मवत् सर्व भूतेषुह्णह्ण का व्यावहारिक पक्ष भी जीवंत रहता आया है। पशु-पक्षी हों या पेड़-पौधे, पारिवारिक जीवन में उन्हें अपने परिवार के सदस्य के रूप में ही देखा जाता रहा है। हमारे लोकजीवन में परिवार को विशेष महत्व दिया गया है। पूरी वसुधा ही परिवार है। ह्यह्ययत्र विश्व भवति एक नीड़:।ह्णह्ण जहां इस भाव का बीजारोपण होता है वह छोटा परिवार है। परिवार सबसे छोटी इकाई है। पर है बड़े महव की जगह। परस्पर निर्भरता तो है ही, परस्पर पूरकता भी पुष्ट होती रहती है। मेरी दो पंक्तियां हैं-
ह्यह्यसंग चले जब तीन पीढि़यां,
चढ़े विकास की सभी सीढि़यां।ह्णह्ण
यह विकास मात्र आर्थिक विकास नहीं है। मानसिक, बौद्घिक, आध्यात्मिक और संस्कार का विकास, तीनों पीढि़यों के संग-साथ रहने पर सहज और समृद्घ हो जाता है।
आज हमारे समाज में एकल परिवार की संख्या बढ़ रही है। हम दो, हमारे एक या एक भी नहीं का जीवन व्यवहार भी बढ़ रहा है। इसलिए त्योहारों में भी बाजार घुस आया है। महीने-दो महीने पूर्व से घरों में बहनों के स्नेहिल हाथों से राखियां नहीं बनाई जाती हैं। हर त्योहार पर घरों में भांति-भांति के पकवान नहीं बनाए जाते। पूजा के लिए घर की चक्की पर गेहूं, चना, चावल, चीनी नहीं पिसी जाती। चिड़वा, चावल नहीं कूटे जाते। फिर त्योहार कैसा! उस्तव कहां। ह्यह्यअकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकताह्णह्ण की तर्ज पर अकेली महिला यह सब कुछ नहीं कर सकती। इसलिए तो व्रत-त्योहार पर चौका घर से शुद्घ घी में पकवान तले जाने की खुशबू नहीं आती। पकवान बनता ही नहीं। बाजार से मंगाया जाता है।
भारतीय पकवान कुछ इस प्रकार के हैं जो अकेले बनाना भी बहुत कठिन होता है। कई हाथ चाहिए। चखने के लिए कई जिह्वा भी। त्योहारों पर घरों में बनाए गए पकवान खाने वालों की भी अधिक संख्या चाहिए। बुजुर्ग भी और बच्चे भी। छीन कर खाने वाले दो-चार बच्चे। बार-बार मांगने वाले बच्चे। भरपूर प्रसाद नहीं मिलने पर रूठ जाने वाले बुजुर्ग, नहीं तो उत्सव का आनंद ही कहां मिला। पिछली दिवाली में कौन-कौन रूठा, किसने मनाया, किसने कितनी मीठाइयां खाइ, यह सब स्मरण रखने वाले बुजुर्ग चाहिए। एक नहीं कई-कई।
किसी भी उत्सव-त्योहार व्रत या मांगलिक आयोजनों में विशेष विधि विधान होते हैं। उनकी स्मृतियां भी एकल नहीं, सामूहिक होती हैं। सब एक-दूसरे से पूछते रहते हैं। संयुक्त परिवार में या मुहल्ले में कोई एक बुजुर्ग, महिला तथा बुजुर्ग पुरुष अवश्य होते हैं जो विधि-विधान बताते हैं। उनकी बातों पर विश्वास होता है। पोथी से नहीं अपनी स्मृति से निकालते हैं विधियां। स्थान की दूरियों के अनुसार विधि-विधान में अंतर देखा जाता है।
उत्सवों में परिवार का कोई भी सदस्य अनुपयोगी नहीं होता। सब की सहभागिता उनकी योग्यता, क्षमता, अनुभव और उत्साह के अनुकूल होती है। व्रती महिला के लिए शुद्घ ताजा दातून तोड़कर लाना भी एक महवपूर्ण काम है, जिसे संपन्न कर एक बालक गद्गद् हो जाता है। सबको अपने छोटे-बड़े काम से संतुष्टी मिलती है। उत्सव, सामूहिकता से प्रारंभ होता है और सभी सदस्यों को सामाजिक प्राणी होने का भान कराकर अगले वर्ष फिर आने का आश्वासन दिलाकर बीत जाता है।
जिन घरों में सदस्यों की संख्या कम होती है, पड़ोसी भी परिवार के सदस्य बन जाते हैं। वरना उत्सवमय परिवेश बने कैसे? ह्यलोकह्ण से ही सजता है उत्सव। उत्सवों से ही जीवंत रहता है लोक। मृदुला सिन्हा
साहित्यकार
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