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वोट बैंक के लालच में उ.प्र. की सपा सरकार जेलों में बंद आतंकवादियों को छोड़ने की कोशिश कर रही है तो बाटला हाउस इनकाउंटर में शहीद मोहन चन्द्र शर्मा के बलिदान को दरकिनार कर मुठभेड़ों को फर्जी और जांच की दिशा को भगवा आतंकवाद की ओर मोड़ने का काम शुरू किया चिदम्बरम–दिग्विजय की कांग्रेसी जोड़ी ने, निर्देश किसका– सब जानते हैं।
जांच एजेंसियों का मकड़जाल
थ् रिसर्च एण्ड एनालिसिस विंग (रॉ) थ् इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) थ्सेन्ट्रल ब्यूरो आफ इंटेलीजेंस (सीबीआई) थ् नेशनल इन्वेस्टीगेटिंग एजेंसी (एनआईए) थ् ज्वाइंट सिफर ब्यूरो थ् सेन्ट्रल विजिलेंस कमीशन (सीवीसी) थ् डायरेक्ट्रेट आफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस थ् डिफेंस इंटेलीजेंस एजेंसी थ् डायरेक्ट्रेट आफ एयर इंटेलीजेंस थ् डायरेक्ट्रेट आफ नेवी इंटेलीजेंस थ् मिलिट्री इंटेलीजेंस (एमआई) थ् डायरेक्ट्रेट आफ इनकम टैक्स (इंटेलीजेंस एण्ड क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन) थ् डायरेक्टर जनरल आफ इनकम टैक्स इंटेलीजेंस थ् राज्यों के आतंकवाद विरोधी दस्ते थ् राज्यों की स्पेशल टास्क फोर्स थ् सीबीसीआईडी थ् राज्यों की पुलिस अपराध शाखा
इतनी सारी गुप्तचर और जांच एजेंसियां, पर पाकिस्तानी आतंकवादी समुद्र के रास्ते मुम्बई तक घुस आते हैं, देश में कहीं भी कभी भी बम धमाके हो सकते हैं, न कहीं भ्रष्टाचार रुक रहा है, न कालाधन, न नकली नोट, न रुकती है टैक्स की चोरी।
हर देश में अनेक जांच एजेंसियां होती हैं और उनके कार्यक्षेत्र भी साफ-साफ बंटे होते हैं। पर यह भारत ही है जहां ढेर सारी जांच एजेंसियां हैं, पर विश्वसनीयता के मामले में कोई भी खरी साबित नहीं होती। एक की जांच के बाद उसी मामले की जांच जब दूसरी कोई एजेंसी करती है तो एकदम नई कहानी सामने ले आती है। ऐसे में दोनों की दोनों 'गुप्त जांच' एजेंसियां अपने-अपने दावे पर कायम, मामला प्रधानमंत्री कार्यालय तक और गृह मंत्रालय ढूंढ रहा है रास्ता, क्योंकि इन सारी जांच और गुप्त एजेंसियों के आका यही हैं और इन्हीं के इशारे पर जांच की सुई इस कदर घुमाई जाती हैं कि वे आपस में ही टकरा जाती हैं। गुजरात में अपने 3 आतंकवादी साथियों के साथ मारी गई इशरत को मासूम बनाने की कोशिशों के चलते मुठभेड़ को फर्जी बताने में जुटी केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के हाथ इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) एक संयुक्त निदेशक राजेन्द्र कुमार की गर्दन तक पहुंचने लगे तो उसके महानिदेशक आसिफ इब्राहिम ने साफ कर दिया- 'बस बहुत हो चुका। अगर ऐसे ही चलता रहा तो इसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे।' आईबी का कहना है कि उसके सूत्रों के हवाले से मिली खबर पर उसके अधिकारी से पूछताछ करने से पूरे गुप्त तंत्र के मनोबल पर खराब असर पड़ेगा। पर आईबी के अधिकारी राजेन्द्र कुमार से अब तक पूछताछ में नाकाम रही सीबीआई की पूरी तैयारी है कि 25 जुलाई को उनके सेवानिवृत्त होते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए। इस अशंका को देखते हुए आईबी के अधिकारियों का कहना है कि बुढ़ापे में गिरफ्तार होने से अच्छा है कि कोई गुप्त खबर आए तो उसे जेब में ही रख लो।
'इशरत मुठभेड़' तो सिर्फ एक ज्वलंत उदाहरण है जांच एजेंसियों के बीच चल रही रस्साकसी का। मालेगांव में सन् 2006 में हुए 3 बम धमाकों के बाद महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) और सीबीआई के निष्कर्षों के बिल्कुल उलट एक नई कहानी सामने लेकर आयी है एनआईए यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी। रॉ, आईबी आदि-आदि जांच एजेंसियों की भीड़ में यह नई जांच एजेंसी बनी 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई पर आतंकवादी हमले की छाया के बीच। तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की पहल पर गठित हुई इस एजेंसी का कार्यक्षेत्र आतंकवादी घटनाओं, घुसपैठ, नकली भारतीय मुद्रा और आतंकवादियों को धन उपलब्ध कराने आदि जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषयों की जांच तक निर्धारित किया गया। इस जांच एजेंसी के गठन की पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं सोनिया के चहेते कांग्रेसी महासचिव दिग्विजय सिंह की भी भूमिका रही, जो मुम्बई पर आतंकवादी हमले के दौरान शहीद हुए एटीएस के अधिकारी हेमंत करकरे का नाम लेकर कह रहे थे कि एक ही दिन पहले फोन पर उनकी और करकरे की बात हुई थी और साध्वी प्रज्ञा मामले की जांच कर रहे करकरे ने उनसे कहा था कि उन्हें 'हिन्दू आतंकवादियों से खतरा है।' पूरी तरह पाकिस्तानी षड्यंत्र और समुद्री रास्ते से मुम्बई में घुस आए 10 पाकिस्तानी आतंकवादियों के 52 घण्टे तक टेलीविजन पर दिखाए गए जीवंत हमले के बीच वह दिग्विजय सिंह ही थे जिन्होंने सबसे पहले 'भगवा आतंकवाद' का जुमला उछाला था। हालांकि बाद में दिग्विजय सिंह न तो हेमंत करकरे से फोन पर हुई बातचीत की 'काल डिटेल' उपलब्ध करा पाए और न ही शहीद हेमंत करकरे की पत्नी ने कहा कि उनके पति ने उनसे कभी इस तरह की कोई बात की थी। हां, यह प्रश्न जरूर खड़ा हो गया कि मालेगांव धमाके में जबरन फंसाई गई और प्रताड़ित की जा रही मूलत: मध्य प्रदेश की ही रहने वाली, जहां के मुख्यमंत्री दिग्विजय रहे हैं, साध्वी प्रज्ञा के मामले की जांच कर रहे करकरे से दिग्विजय किस हैसियत से और किस उददेश्य से बात करते थे और उन्हें क्या निर्देश देते थे?
बहरहाल, एनआईए के गठन के बाद ही इस्लामी या कहें मुस्लिम आतंकवाद की तोड़ मे नाम पर भगवा या हिन्दू आतंकवाद का जुमला सेकुलर खेमे, या कहें कि कांग्रेसी खेमे से उछाला जाने लगा। इसे पुष्ट करने के लिए कुछ ऐसे मामलों की जांच एनआईए को सौंप दी गई जिन मामलों की जांच सीबीआई पहले ही कर चुकी थी। मालेगांव (2006) बम विस्फोटों के मामले में सीबीआई ने जिन 13 मुस्लिमों को दोषी ठहराया था और आरोप पत्र दाखिल किया था, उससे एकदम उलट नई कथा रचकर एनआईए ने 8 हिन्दुओं को आरोपी बना दिया और तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के निर्देश पर अदालत में उन 9 मुस्लिमों की जमानत याचिका का विरोध नहीं किया जो जेल में बंद थे। जमानत पर छूटे ये सभी मुस्लिम अभी आरोप दोषमुक्त सिद्ध नहीं हुए हैं, पर मांग उठने लगी है कि एसटीएफ, एटीएस और सीबीआई के जिन अधिकारियों को इन्हें पकड़ा, सुबूत जुटाए, आरोपी बनाया, उनके खिलाफ कार्रवाई हो। अब सीबीआई के अधिकारी कह रहे हैं कि हमने सही जांच की, मामला अदालत में है, वही फैसला करेगी। एनआईए ने जो दूसरा आरोप पत्र दाखिल किया है, उसे सिद्ध करने की जिम्मेदारी उसकी है। (देखें विस्तृत रपट पाञ्चजन्य- 2 जून, 2013, पृष्ठ 6)
मालेगांव तो अंदरूनी मामला है, पर अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भी जांच के इन नए तौर-तरीकों ने खासी किरकिरी कराई है। मामला है समझौता एक्सप्रेस में बम धमाके का। फरवरी, 2007 में पानीपत के निकट पाकिस्तान को जाने वाली समझौता एक्सप्रेस में बम धमाके के बाद प्रारंभिक जांच पानीपत पुलिस और फिर हरियाणा के आतंकवाद निरोधी दस्ते ने की और बताया कि इस धमाके में लश्कर-ए-तोयबा और हूजी (हरकत उल जिहादे-इस्लामी) का हाथ है। इस मामले में मार्च, 2008 में इन्दौर से गिरफ्तार स्टूडेन्ट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंण्डिया (सिमी) के प्रमुख नेता सफदर नागौरी का नारको टेस्ट भी हुआ। उस नारको टेस्ट की रपट का खुलासा करते हुए बंगलौर प्रयोगशाला के निदेशक परवेज ने बताया कि नागौरी के परीक्षण से पता चला कि ट्रेन में बम अथेगम सिद्धीकी और बदुस्थम नामक दो लोगों ने लगाए जो लश्कर के आदमी थे। पैसा शम्शुल इकबाल और अब्दुल रज्जाक ने दिया। पूरी जांच और सुबूत जुटाकर मामला न केवल आरोप पत्र तक पहुंचा बल्कि इस जांच के आधार पर भारत सरकार ने 2000 पृष्ठों का एक दस्तावेज पाकिस्तान को भी सौंपा और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भी गुहार लगायी कि दोस्ती की इस ट्रेन पर ब्रेक लश्कर और हूजी ने ही लगाए हैं और इन्हें पाकिस्तान से ही संरक्षण और संसाधन प्राप्त हो रहे हैं। मुम्बई हमले के सिलसिले में गिरफ्तार डोविड कोलमैन हैडली की पत्नी ने भी बताया कि उसके पति समझौता एक्सप्रेस में धमाके की साजिश रचने वालों में से एक थे।
पर तीन साल बाद भारत सरकार अपनी ही जांच के परिणामों से पीछे हटने लगी और अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भी उसकी प्रतिष्ठा दांव पर लग गयी। हुआ यह कि 25 मई, 2010 को दिल्ली में आयोजित पुलिस प्रमुखों की बैठक में गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने राज्यों से 'भगवा आतंकवाद' से सचेत रहने को कहा। इसके तुरंत बाद जुलाई, 2010 में समझौता मामले की जांच एनआईए को सौंप दी गई। 6 महीने बाद ही 19 नवम्बर, 2010 को एनआईए के अधिकारियों ने गुजरात के प्रसिद्ध समाजसेवी संत व ईसाई मतान्तरण के विरुद्ध सबरी कुंभ जैसा आयोजन करने वाले वनवासियों-जनजातियों में अत्यंत लोकप्रिय स्वामी असीमानंद को गिरफ्तार कर 'भगवा वस्त्रधारी एक आतंकवादी' को गिरफ्तार कर अपने आकाओं से वाहवाही लूटी। स्वामी असीमानंद को कब-कैसे-कहां गिरफ्तार किया गया, कितना प्रताड़ित किया गया और कैसे संघ के विरुद्ध बयान दिलवाया गया, वह बयान कैसे मीडिया में लीक किया गया, अम्बाला जेल में बंद स्वामी असीमानंद ने न्यायालय के सम्मुख क्या कहा- वह सब अगली बार। पर वर्तमान स्थिति यह है कि मालेगांव से लेकर हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट तक स्वामी असीमानंद के विरुद्ध कोई सुबूत नहीं मिले हैं और न ही उन्हें मालेगांव मामले में आरोपी बनाया जा सका, जिसकी कि जांच के दौरान बहुत चर्चा फैलायी गयी थी। हां, इस सबसे हुआ यह कि सबूतों और साक्ष्यों के बावजूद समझौता मामले में पकड़े गए मुस्लिम अभियुक्तों को छोड़ दिया गया, और पाकिस्तान को मौका दे दिया गया कि वह आतंकवाद की जड़ भारत में ही ढूंढ़ने और उसके देश को बदनाम न करने की नसीहत दे।
क्यों किया जा रहा है ऐसा? इसके पीछे सरकार की क्या मंशा है? क्यों अपनी ही जांच एजेंसियों को आपस में उलझा रही है भारत की सरकार? उत्तर यही है कि ये सारी की सारी जांच एजेंसियां स्वतंत्र नहीं हैं, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य हैं। सीबीआई की जब ज्यादा किरकिरी होने लगी तो एनआईए बना दी, पर स्वतंत्र किसी को नहीं छोड़ा। सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त नहीं रखा। सीबीआई में भी अईपीएस अधिकारी हैं और एनआईए में भी। दोनों अपने 'पालकों' को खुश रखने के लिए 'पट्टू तोते' की तरह ज्यादा ही 'राम-राम' बोलते हैं। सर्वोच्च न्यायालय की दखल के बाद भी सीबीआई पिंजड़े से उड़ने को तैयार नहीं क्योंकि उसके निदेशक को आजादी नहीं, सेवानिवृत्ति के बाद 'एक्सटेंशन', या किसी आयोग में पद चाहिए, जो न्यायालय नहीं, 'सरकार' ही दिला सकती है। अब एनआईए के वर्तमान निदेशक शरद सिन्हा को तो सेवानिवृत्त होने के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य होने का पुरस्कार मिल ही गया है। और जांच एजेंसियों के प्रमुखों को भी तो अपना 'भविष्य' देखना है। लहाजा भगवा आतंकवाद को सिद्ध करने की होड़ में जांच एजेंसियों के तार इस कदर उलझने लगे हैं कि उनके आकाओं की पेशानी पर ही बल पड़ने लगे हैं कि इसे सुलझाएं तो सुलझाएं कैसे? जितेन्द्र तिवारी
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