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विदेशों में आजादी की आवाज बुलन्द करने वाले क्रांतिकारी
कनाडा और अमरीका में रह रहे भारतीयों ने सौ साल पहले 'गदर पार्टी' बनाई थी। इसका उद्देश्य था भारत से बाहर रह रहे भारतीयों की सहायता से भारत को स्वतंत्र कराना। इसकी पूर्ति के लिए गदर पार्टी ने 'गदर' नाम का एक समाचारपत्र भी निकाला और कई जहाजों में प्रवासी भारतीयों को भारत भी भेजा। वर्ष 1915 में गदर पार्टी के क्रांतिकारियों ने उत्तर भारत की सभी सैनिक छावनियों में आजादी का शंखनाद करने की महती योजना बनाई थी। यह और बात है कि यह योजना सफल नहीं हो सकी, किन्तु गदर पार्टी का प्रयत्न भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। भारत के इतिहास में इन जांबाजों के प्रयत्नों को उचित स्थान अब तक नहीं मिला है। गदर पार्टी के शताब्दी वर्ष में आशा की जानी चाहिए कि यह विसंगति दूर होगी और उन स्वातंत्र्य योद्धाओं की जानकारी पूरे देश को प्राप्त होगी।
हिन्दी एसोसिएशन
पंजाब, सिन्ध और सीमा प्रान्त के अनेक भारतीय उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में कनाडा और अमरीका में बस गये थे। सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैण्ड आदि दक्षिण एशियाई देशों में भी बड़ी संख्या में भारतवासी आजीविका के लिए गये और फिर वहीं बस गये। कनाडा और अमरीका के कैलिफोर्निया प्रांत में उस समय भारतवासियों की संख्या अच्छी खासी हो गई थी। ये सभी प्रवासी पैसा तो अच्छा कमा लेते थे, किन्तु गुलाम देश के होने के कारण उनका पग-पग पर अपमान होता था। अंग्रेजों के खिलाफ मन में असंतोष तो पहले से ही था, अब प्रवासियों को भारत में अंग्रेजी राज असहनीय लगने लगा। सभी प्रवासी भारतीयों ने भारत की स्वतंत्रता के लिये प्रयन्त करने का निश्चय किया और 'द हिन्दुस्तानी एसोसिएशन ऑफ पैसिफिक ओशन' नाम से एक संगठन बना लिया।
वर्ष 1911 के अंत में सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी लाला हरदायाल भी अपना एकान्तवास समाप्त कर भाई परमानन्द के आग्रह पर कैलिफोर्निया के 'सेन-फ्रांसिस्को' नगर पहुंचे। लाला हरदयाल भारतीय नौजवानों को क्रांति की दीक्षा देने में लगे हुए थे। यह देखकर 'हिन्दुस्तानी एसोसिएशन' ने उनसे संगठन का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। लाला जी ने अनुरोध स्वीकार कर सबसे पहले संगठन के नाम पर हिन्दुस्तानी के स्थान पर 'हिन्दी' कर दिया। 'हिन्दी एसोसिएशन' अब जन-जागृति के काम में तेजी से जुट गई।
21 अप्रैल 1913
कुछ समय बाद एसोसिएशन के कर्णधारों को लगा कि संगठन का नाम ऐसा होना चाहिए जो सरल हो और सबकी समझ में आ सके। काफी सोच-विचार के बाद हिन्दी एसोसिएशन का नाम 'गदर पार्टी' रखने का तय हुआ। उसी दिन पार्टी के पदाधिकारी भी तय हो गये। वह पावन दिन था- 21 अप्रैल 1913। श्री सोहन सिंह भकना गदर पार्टी के पाहले अध्यक्ष बने, लाला हरदयाल मंत्री और कोषाध्यक्ष पं. काशी राम बनाये गये।
गदर पार्टी की स्थापना के दिन सेन-फ्रांसिस्को में कनाडा और अमरीका में रहने वाले भारतीय बड़ी संख्या में इकट्ठे हुए थे। इसी नगर में पार्टी का कार्यालय बनाया गया, जिसका नाम 'युगान्तर आश्रम' रखा गया। यह वास्तव में एक आश्रम जैसा ही था और कई क्रांतिकारी वहां रह कर 'राष्ट्र-साधना' करने लगे। विलक्षण प्रतिभा के धनी और प्रकाण्ड विद्वान लाला हरदयाल गदर पार्टी की धुरी थे। अब वे पूरे अमरीका और कनाडा में घूम-घूम कर प्रवासी भारतीयों में स्वतंत्रता की ज्योति जलाने लगे। भाई परमानन्द, विष्णु गणेश पिंगले तथा करतार सिंह सराबा भी 'पार्टी' के कर्णधारों में से थे। भाई परमानन्द उस बलिदानी परिवार से थे जिनके पूर्वज भाई मतिदास नवम गुरु तेगबहादुर के साथ शहीद हुए। विष्णु पिंगले पूना के रहने वाले थे और इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिये अमरीका आए थे। करतार सिंह सराबा कुल 17 साल के नौजवान थे और वे भी लुधियाना जिले के 'सराबा' गांव से उच्च शिक्षा के लिये ही आये थे।
साप्ताहिक गदर
'गदर पार्टी' की स्थापना के साथ ही पार्टी का एक साप्ताहिक समाचार पत्र निकालने का भी निर्णय हुआ। इस पत्र का नाम 'गदर' रखा गया और लाला हरदयाल ही इसके सम्पादक बनाये गये। लालाजी का अधिकांश समय घूमने में निकलता था, अत: करतार सिंह सराबा को पत्र का सह सम्पादक बनाया गया। 1 नवम्बर 1913 को 'गदर' का उर्दू संस्करण प्रकाशित हुआ तथा 8 जनवरी 1914 को पंजाबी संस्करण छपा। बाद में इसके हिन्दी और अंग्रेजी संस्करण भी निकले। यह साप्ताहिक कनाडा और अमरीका के साथ-साथ उन देशों में भी जाता था जहां भारतीय रहते थे। भारत में भी इसकी प्रतियां आती थीं। सैनिक छावनियों में तो इसकी प्रतियां अवश्य ही पहुंचाई जाती थीं। आज के सौ साल पहले पूरी दुनिया में गुप्त रूप से 'गदर' जैसा समाचार पत्र पहुंचा देना, क्रांतिकारियों की संगठन क्षमता का ही कमाल था।
इन सब गतिविधियों से लाला हरदयाल अंग्रेजों की नजर में आ गये थे। अमरीकी सरकार पर लालाजी को गिरफ्तार करने का दबाव आने लगा। एक बार तो वे पकड़े भी गये, लेकिन जमानत पर छूट गये। गदर पार्टी के लोगों को लगा कि अब अमरीका में लाला हरदयाल का जीवन सुरक्षित नहीं है अत: उन पर अमरीका छोड़ने का दबाव बनने लगा। गदर पार्टी के निर्णय के अनुसार लालाजी तुकर्ी और स्विट्जरलैण्ड होते हुए 26 जनवरी 1915 को जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंच गये।
आजाद हिन्द सरकार
उस समय तक प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। अंग्रेजों के शत्रु-देश होने के कारण जर्मनी और विशेष कर बर्लिन में भारतीय क्रांतिकारियों का जम-घट लगा हुआ था। डा. चम्पक रमन पिल्लई, डा. मथुरा सिंह, डा. चन्द्रकान्त, स्वामी विवेकानन्द के अनुज डा. भूपेन्द्र नाथ दत्त, डा. प्रभाकर सरकार, वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय तथा मोहम्मद ओबेदुल्ला सिंधी जैसे क्रांतिकारी बर्लिन में थे और उन्होंने 'बर्लिन कमिटी' का गठन कर लिया था। गदर पार्टी से इनके संबंध बने हुए थे तथा साप्ताहिक गदर भी इनके पास आता था। ये सभी क्रांतिकारी उच्च शिक्षा प्राप्त तथा अपने विषयों के विद्वान थे। फरवरी 1915 में लाला हरदयाल के बाद गदर पार्टी के मंत्री बने मोहम्मद बरकतुल्ला भी बर्लिन आ गये और कुछ दिनों बाद भारत से वृन्दावन के राजा महेन्द्र प्रताप भी आ पहुंचे। लाला हरदयाल और राजा महेन्द्र प्रताप की भेंट दो महान क्रांतिकारियों का मिलन था। 'बर्लिन कमिटी' अब पूरे उत्साह से सशस्त्र क्रांति के लिये जहाजों में शस्त्रास्त्र भर कर भारत भेजने लगी। दुर्भाग्य से इनमें से कई जहाज या तो पकड़े गये या डुबो दिये गये। बर्लिन समिति ने अब अफगानिस्तान में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाने का विचार किया। राजा महेन्द्र प्रताप जर्मनी के सम्राट कैसर से मिले और भारत की सीमा से लगे होने के कारण अफगानिस्तान में आजाद भारत की सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा। कैसर ने प्रस्ताव मान लिया और राजा जी को अफगानिस्तान के अमीर के नाम एक पत्र तथा काफी धन दिया।
राजा महेन्द्र प्रताप सहित सभी क्रांतिकारी अब अलग-अलग मार्गों से अफगानिस्तान पहुंच गये। 29 अक्तूबर 1915 के दिन काबुल में पहली 'अस्थाई आजाद हिन्द सरकार' की स्थापना हुई। इस सरकार के प्रथम राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप और प्रधानमंत्री मोहम्मद बरकतुल्ला बने। विदेश मंत्री चम्पक रमन पिल्लई तथा गृहमंत्री मौलाना ओबेदुल्ला सिंधी बनाये गये। डा. मथुरा सिंह भी मंत्रिमण्डल में थे। बाद में पेशे से डाक्टर मौलाना ओबेदुल्ला काबुल के 'चीफ मेडिकल आफिसर' भी बने। इस सरकार ने अफगानिस्तान में 'आजाद हिन्द फौज' का गठन भी किया। इसमें उस समय छह हजार सैनिक और अधिकारी थे। प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ रहे भारतीय सैनिक जो युद्धबंदी बनाये गये थे, उन्हीं से यह फौज बनी थी।
आजाद हिन्द फौज ने कबाइली क्षेत्र में प्रवेश कर अंग्रेज सेना पर आक्रमण भी किया, लेकिन उन्हीं दिनों जर्मनी की हार होने लगी थी और उत्साहित अंग्रेजों ने यह हमला विफल कर दिया।
वेतन–मृत्यु, पुरस्कार–शहादत
यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने के पहले ही 'गदर पार्टी' को युद्ध की आहट सुनाई देने लगी थी। युद्ध को अवश्यंभावी मान कर पार्टी ने विचार किया कि अंग्रेजों के युद्ध में उलझ जाने पर भारत को स्वतंत्र कराने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त होगा। इस विचार के बाद निर्णय हुआ कि अमरीका और कनाडा में रह रहे भारतीयों को स्वदेश पहुंच कर आजादी की अलख जगानी चाहिए। अन्य देशों में रहे भारतीयों को भी यह संदेश भेजा गया। साप्ताहिक 'गदर' में उन्हीं दिनों एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ-
आवश्यकता है– भारत में गदर पार्टी शुरू करने के लिए बहादुर सैनिकों की
वेतन– मृत्यु पुरस्कार– शहादत
पेंशन– आजादी युद्धस्थल– भारत।
अब क्या था, बड़ी संख्या में भारतीय स्वदेश लौटने की तैयारी करने लगे। पहला जत्था 'कोरिया' नामक जहाज से भारत रवाना हुआ। उसके बाद 'चाएसांग' और नामसांग जहाजों से प्रवासी भारतीयों ने कूच किया। उधर अमरीका और कनाडा में तैनात अंग्रेज जासूस सारे समाचार अपने आकाओं को पहुंचा रहे थे। फलस्वरूप भारत पहुंचते ही अधिकांश प्रवासी बन्दी बना लिये गये या अंग्रेजों की गोलियों के शिकार हुए। कोमागातामारू नाम का जापानी जहाज 4 अप्रैल 1914 को हांगकांग से कनाडा के लिये चला। वहां के बैंकुवर बन्दरगाह पर जहाज को आने ही नहीं दिया गया। दो महीने तक वहां खड़ा रहने के बाद जहाज वापस लौटा। तब तक महायुद्ध प्रारंभ हो चुका था, अत: जहाज हांगकांग भी नहीं जा सका। जहाज ने अब कलकत्ता का रास्ता पकड़ा। कलकत्ता से तीस किमी दूर 'बजबज' में जहाज को लंगर डालने की अनुमति मिली। यात्री जैसे ही जहाज से उतरे उन पर गोलियां बरसने लगीं। 18 सिख वहीं शहीद हो गये, 60 को पुलिस ने पकड़ लिया और बाकी लोग भागने में सफल हो गये।
एक ही दिन में आजादी
कोमागातामारू की घटना के बाद प्रवासी भारतीय अधिक सतर्कता से काम लेने लगे। यद्यपि कनाडा और अमरीका से उनको लाने वाले जहाज अंग्रेजों की नजर से बच नहीं पा रहे थे, फिर भी बड़ी संख्या में क्रांतिकारी भारत पहुंचने में सफल हो गये। इनमें प्रमुख थे- विष्णु गाणेश पिंगले, करतार सिंह सराबा, डा. मथुरा सिंह तथा पं. काशीराम। बाबा सोहन सिंह भकना भारत पहुंचते ही बन्दी बना लिये गये। गदर पार्टी के प्रमुख कार्यकर्ताओं के भारत लौटने के बाद थाईलैण्ड से अमरीका पहुंचते भाई संतोख सिंह ने गदर पार्टी को मजबूती दी और भगवान सिंह को पार्टी का अध्यक्ष बनाया।
प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस तथा शचीन्द्र नाथ सान्याल उस समय भारत में गदर पार्टी का काम देख रहे थे। बंगाल के यतीन्द्र नाथ मुखर्जी भी गदर पार्टी से जुड़े हुए थे। अमरीका से पिंगले, सराबा, डा. मथुरा सिंह आदि के पहुंचने से दल काफी सशक्त हो गया। तब तक महायुद्ध के नगाड़े बज चुके थे, अत: पार्टी ने अवसर का लाभ उठा कर सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों को क्रांति की दीक्षा देना शुरू किया। योजना यह थी कि उत्तर प्रदेश सहित पूरे उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत की सैनिक छावनियों में एक ही दिन स्वतंत्रता का उद्घोष कर दिया जाये। भारतीय सैनिक शस्त्र उठा कर मातृभूमि को अंग्रेजों के पंजे से मुक्त करा लें।
तैयारियां होने लगीं। क्रांतिकारी सैनिक छावनियों में जाकर भारतीय सैनिकों को स्वातंत्र्य युद्ध के लिये तैयार करने लगे। रास बिहारी बोस ने पंजाब में डेरा डाल दिया था और उन्हीं के नेतृत्व में क्रांति के शंखनाद की योजना बन रही थी।
खेल बिगड़ गया
भारत के इतिहास में 21 फरवरी 1915 का वही महत्व है जो 31 मई 1857 का है। प्रथम स्वतंत्रता संगाम में 31 मई क्रांति की उद्घोष की तिथि थी और वर्ष 1915 में 21 फरवरी तिथि तय हुई। लेकिन दुर्भाग्य ने भारत का पीछा नहीं छोड़ा था। धूर्त अंग्रेजों ने किसी तरह अपने एक जासूस कृपाल सिंह को गदर पार्टी में घुसा दिया। उसने पूरी योजना का रहस्य खोल दिया। क्रांतिकारियों को भी कृपाल सिंह पर संदेह हो गया था। इसीलिए दो दिन पहले 19 फरवरी 1915 को विप्लव करना तय हो गया। कृपाल सिंह को नजरबन्द कर दिया, फिर भी उसने चालाकी से 19 फरवरी का रहस्य भी खोल दिया।
अंग्रेजों ने एक दिन पहले ही सैनिक छावनियों के भारतीय सैनिकों को नि:शस्त्र कर दिया। इसी के साथ धर-पकड़ का दौर शुरू हुआ। गदर पार्टी के कुल 279 क्रांतिकारी बन्दी बनाये गये। इनमें से 46 को फांसी का 'पुरस्कार' मिला। 64 क्रांतिकारियों को आजीवन कारावास भोगने के लिये अन्दमान भेज दिया गया। मृत्युदण्ड पाने वालों में पिंगले और करतार सिंह सराबा भी थे।
16 नवम्बर 1915 के दिन दोनों जांबाज क्रांतिकारियों को उनके पांच साथियों के साथ फांसी दी गई। डा. मथुरा सिंह उस समय तो निकलने में सफल हो गये, किन्तु रूस जाने के बाद गिरफ्तार कर लिये गये। भारत लाकर उन्हें भी मृत्युदण्ड दिया गया। रास बिहारी बोस और शचीन्द्र नाथ सान्याल अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंक कर बच निकले। इस प्रकार भारत की स्वतंत्रता का एक और महती प्रयत्न विफल हो गया।
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