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दरभा घाटी से गुजरती कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर घात लगाकर किया नक्सली हमला पूरे देश के लिए भारी आघात है। इससे पूर्व छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के बेटे की जान लेने वाले, राज्य की महिला बाल विकास मंत्री लता उसेंडी के बंगले पर हमला करने वाले नक्सली जता चुके हैं कि दल कोई भी हो 'सरकार' उन्हें चुभती है। मगर आरोप–प्रत्यारोप और दलबंदी में पड़े बगैर इस वामपंथी चुभन की पड़ताल अब जरूरी हो चली है। क्या यह मात्र भ्रमित विचारधारा का मामला है जिसने गिरि–कंदराओं, वनांचलों में रहने वाले वनवासियों को सशक्त करने के नाम पर सशस्त्र संघर्ष में धकेल दिया है? या फिर नक्सल चेहरे के पीछे कोई और चाल है?
यह तथ्य है कि सत्तर के दशक से ही नक्सल विद्रोही अनेक गुटों में बंट गए और गिरोहों की तरह लामबंद होने लगे। चीनी माओ को प्रेरक प्रतीक के तौर पर सामने रखते मगर असल में लातिन अमरीकी चे ग्वारा के 'फोको आतंकवाद' की राह पर बढ़ते। सवाल यह है कि खूनी संघर्ष की पगडंडी पकड़े अतिवादी वामपंथी दंडकारण्य में भटककर रह गए या राष्ट्र के विरुद्ध विदेशी ताकतों की मदद से मोर्चा बांधने में लगे हैं!
यदि यह शोषण और उससे उपजे आक्रोश को परिणति तक ले जाने की बात थी तो लड़ाई का रुख लोकतांत्रिक परिवर्तन की ओर होना था। खुद चे ग्वारा ने अपनी पुस्तक 'गुरिल्ला युद्ध' में लिखा है कि जहां भी शांतिपूर्ण बदलाव का रास्ता हो वहां 'फोको आतंकवाद' या गुरिल्ला युद्ध की रणनीति कामयाब नहीं हो सकती। मगर भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना रही कि दो वामपंथी धड़े अलग–अलग ध्रुवों से उसकी ताकत को कम करते रहे।
घपले–घोटालों की जिस अकथ–कहानी के आगे दो सदियों की ब्रिटिश लूट छोटी पड़ जाए ऐसी सरकारों को वामपंथी एक मोर्चे पर प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन देते रहे और व्यवस्थागत शोषण के पर्दे के पीछे भागीदार रहे। दूसरी तरफ उनके ही कुछ साथियों ने वनवासियों को शोषण की भयावह तस्वीर दिखा अपने ही देश के खिलाफ खड़ा कर दिया। सवाल यह है कि व्यवस्था परिवर्तन का शांतिपूर्ण विकल्प होने पर भी वामपंथ ने लोकतंत्र के खिलाफ लड़ाई क्यों छेड़ रखी है? कहीं यह युद्ध लोकतंत्र की बजाय भारत से तो नहीं? ऐसी खबरें हैं कि चीनी ड्रैगन से इन्हें सहयोग, सहानुभूति और गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण तक मिलता है। नेपाल, फिलीपींस और तुकर्ी से भी नक्सलियों के तार जुड़े होने की खबरें हैं।
पुष्ट संकेत है कि यह पूरी मोर्चाबंदी संभवत: भारत को शिथिल करने के लिए ही है। टेलीफोन लाइनें और पटरियां उखाड़ते, बच्चों के स्कूल उड़ाते, दंतेवाड़ा में एक झटके में 76 जवानों की जान लेते, प. बंगाल में सौ रेल यात्रियों को मौत की नींद सुला देने वाली नक्सली टुकड़ियों को भोले-अनपढ़ आक्रोश के मुखौटे से ढकना वामपंथियों के लिए अब संभव नहीं है। राष्ट्रद्रोही चेहरे सामने आ चुके हैं, खूनी खेल के विरुद्ध अब साझी लड़ाई का बिगुल फूंकना ही होगा।
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