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बीसवीं शताब्दी के पांचवें और छठे दशक में जब अरब देशों में पेट्रोल की नदियां बहने लगीं तो सारी दुनिया आश्चर्य में पड़ गई। रेत के इस समंदर में जहां इनसान को पीने का पानी भी नसीब नहीं था, वहां दुनिया की हर सुविधाओं के खेत लहलहाने लगे। गरीब और पिछड़े देशों के लोग अरबस्तान की ओर भागने लगे। जिसे वीजा मिल जाता था वह यही सोचने लगता था कि बस उसे अलादीन का जादुई चिराग मिल गया है। अपने काले सोने के दम पर सारी दुनिया उनकी मुट्ठी में चली गई। प्रगतिशील कहलाने वाले अमरीका और यूरोप भी उनकी जीहुजूरी करने लगे। काला तेल काला सोना बन गया। अरबों की इस दौलत ने दुनिया को गुलाम बनाने का दुस्साहस किया और हर चीज उनकी गुलामी में पेश की जाने लगी। लेकिन 65 साल के बाद आज वही अरबस्तान की जनता अभावग्रस्त हो गई है। अरब शासक अपने यहां से विदेशी लोगों को निकाल रहे हैं और अपने नागरिकों के लिए काम-धंधे की योजनाएं बना रहे हैं। 2012-13 में मध्य-पूर्व के इन देशों से लगभग सात लाख लोग बाहर किए जा चुके हैं। इनमें मजदूरों से लेकर इंजीनियर और वैज्ञानिक भी शामिल हैं। आने वाले दिनों में अकेले सऊदी अरब से 45000 भारतीय स्वदेश लौट आएंगे। सऊदी सरकार कड़े नियम बना रही है ताकि वहां के स्थानीय लोगों को कामकाज मिल सके। पिछले पचास साल में वहां की पीढ़ी पढ़-लिखकर जवान हो गई है, वह अब काम मांग रही है। इसलिए अरबस्तान में बाहर से आए लोगों के सर पर तलवार लटक रही है।
कहां गया धन?
सवाल यह उठता है कि अरबों का धन कहां चला गया? मध्य-पूर्व के 26 देशों में राजनीतिक उथलपुथल चल रही है। हमने देखा कि 'अरब स्प्रिंग' के नाम पर मिस्र से लकर लीबिया, सीरिया, यमन और उत्तरी अफ्रीका के देशों में रक्तरंजित क्रांति का दौर शुरू हो गया। वहां के सत्ताधीश बदल गए और दुनिया की राजनीति में जो पुराने समीकरण थे उनमें भी परिवर्तन आ गया। अरब और ईरान में आतंकवाद ने अंगड़ाई ली। जिसका नतीजा यह हुआ कि उनका पेट्रो डॉलर अनेक आतंकवादी संगठन ले उड़े। सुरक्षा के नाम पर अब वहां की सरकारों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में कभी ईरान-ईराक का युद्ध तो कभी इराक और कुवैत का युद्ध, कभी फिलिस्तनी और इस्राइल का संघर्ष, तो कभी इन देशों के आंतरिक टकराव, जनमें शिया-सुन्नी विवाद से लेकर आतंकवादियों की कारिस्तानियों ने इस सम्पूर्ण क्षेत्र को आग में झोंक दिया। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में जो कुछ चल रहा है उसका प्रभाव भी यहां स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इस्लामी उलेमा और जुनूनी तत्व जिस पुनर्रोज्जीवनवाद की बातें करते हैं उन्होंने अरबों की कमाई को पानी की तरह बहा दिया। अभी तो सात दशक भी नहीं हुए थे कि अरबस्तान के ये देश इस काले सोने से हाथ धो बैठे। पेट्रोल भले ही उनकी धरती में पैदा होता हो लेकिन उसे बाहर निकालने, उस पर वैज्ञानिक प्रक्रिया करने और विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाने का काम तो पश्चिमी राष्ट्रों का संगठन 'ओपेक' ही करता है। भाव निश्चित करने से लेकर कितना उत्पादन किया जाए इन सभी मामलों पर अमरीका और यूरोप के देशों का आधिपत्य है। इसलिए कुछ ही समय में अरब देश अपने हाथों में भीख का कटोरा लेकर खड़े हो जाएं तो आश्चर्य नहीं। अमरीका ने भिन्न-भिन्न सैनिक संधियों के अंतर्गत इन पेट्रोल उत्पादक देशों को अपने शिकंजे में कस लिया है। सऊदी अरब के आंतरिक हालात जो हैं वे यह बता रहे हैं कि पश्चिमी राष्ट्रों ने इसे बुरी तरह से चूस लिया है। वहां की जनता किस प्रकार से सिसक रही है इसकी झलक वहां से निकलने वाले दैनिक अल मदीना, अरब न्यूज, कुवैत टाइम्स और दैनिक अल खलीज में देखने को मिलती है। अल जजीरा सहित अनेक चैनल इन दृश्यों को भी कभी-कभी प्रसारित करते हैं लेकिन पश्चिमी देशों का शिकंजा इतना मजबूत है कि उसका प्रचार नहीं के बराबर होता है। सऊदी अरब सहित अनेक अरब देशों में असंतोष का ज्वालामुखी कभी भी फट सकता है। वास्तविकता तो यह है कि एक चौथाई सऊदी नागरिक गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। दुनिया की सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले सऊदी अरब के लोगों के पास कोई काम नहीं है। 1970 में सऊदी की आबादी 60 लाख थी, जो अब 2.8 करोड़ हो गई है। शाही परिवार का यह दावा है कि सऊदी में कोई भूखा नहीं सोता है, लेकिन यह सफेद झूठ है। सरकार अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए मनचाही योजनाएं घोषित करती रहती है। लेकिन उनमें कोई दम नहीं है। सन् 2011 में तीन सऊदी वीडियो ब्लागरों को इस कारण से तीन सप्ताह तक जेल में डाल दिया था, क्योंकि उन्होंने सऊदी अरब की गरीबी पर 'ऑन लाइन' फिल्म बनाई थी। सऊदी अर्थशास्त्री रोसी बशीर, जिन्होंने विकास और गरीबी पर विस्तृत रपट तैयार की है, का कहना है कि सरकार अपने पेट्रो डॉलर के दम पर विदेशों में और कड़े दंड के प्रावधान करके देश की जनता के बीच इन पापों को छिपाने का प्रयास करने में सफल हो जाती है। सऊदी में जो दंड संहिता है वह 16वीं शताब्दी के अत्याचारों की याद दिला देती है। सऊदी सरकार अपने यहां के वास्तविक आंकड़े कभी नहीं बताती, लेकिन वहां के विश्वसनीय बुद्धिजीवियों का मत है कि 20 से 40 लाख सऊदी 530 डॉलर प्रति माह कमाते हैं। सऊदी के मध्यमवर्गीय लोग 17 डालर प्रतिदिन पर गुजर-बसर करते हैं, जो वहां की गरीबी रेखा कहलाती है। वहां दो प्रकार की अर्थव्यवस्था है। राजाशाही की अर्थव्यवस्था 1.6 करोड़ सऊदी नागरिकों के लिये है। उक्त अर्थव्यवस्था विदेशी कामगारों पर आधारित है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार दो तिहाई से अधिक सऊदी 30 वर्ष से कम आयु के हैं। कुल सऊदी बेरोजगारों में से तीन चौथाई 20 से 30 वर्ष की आयु के हैं। पिछले सात दशकों में आज का सऊदी अरब दुनिया के सामने आया है। सऊदी अरब अपने तेल उद्योग से औसतन 300 अरब डॉलर कमाता है।
खोखला सऊदी
अन्तरराष्ट्रीय फोर्ब्स पत्रिका द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार शाह अब्दुल्ला की व्यक्तिगत संपत्ति 18 अरब डॉलर है जो कि उन्हें ब्रूनेई के शासक के बाद विश्व का सबसे बड़ा धनिक व्यक्ति कहलाने का गौरव प्रदान करती है।
सऊदी राजा केवल नाम के ही नहीं बल्कि वास्तविक अधिकार रखने वाले राजा हैं। पिछले दिनों उन्होंने 70 अरब डॉलर की एक योजना बनाई। जिसके तहत वे चार आलीशान नगर बसाने वाले हैं। सरकारी प्रवक्ता का कहना है कि वहां 50 लाख लोग रह कर कार्य करेंगे। पिछले वर्ष सऊदी राजा ने 37 अरब डॉलर खर्च करने की घोषणा की थी। सरकारी सूत्र इस मामले में मौन हैं इसलिए सच्चाई का पता लगाना कठिन है। राजा का कहना था कि वे भवन निर्माण, सड़कें और जनता की सुविधाओं के लिए अस्पताल तथा उच्च शिक्षा के लिए इस धन को खर्च करेंगे। इसमें कुल कितना अब तक खर्च हुआ यह कह पाना कठिन है। सऊदी राजा मक्का और मदीना में करोड़ों डॉलर खर्च करते हैं। वे चाहते हैं कि प्रतिवर्ष आने वाले औसतन 24 लाख हाजी इसका लाभ उठा सकें। लेकिन सऊदी अर्थशास्त्रियों का मत है कि यह एक ऐसा खर्च है जिसे अनुत्पादक श्रेणी में रखा जा सकता है। इससे सऊदी जनता को भला क्या लाभ मिलेगा? लेकिन यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि तेल की खोज से पूर्व सऊदी अरब के जीवन का सबसे बड़ा सहारा हज यात्रा ही थी। लेकिन सऊदी नागरिक प्रतिवर्ष यहां की पुरानी मस्जिदों को तोड़ कर हज परिसर को विशाल बनाने के विरुद्ध हैं। उनका कहना है कि इससे मक्का का ऐतिहासिक स्वरूप खतरे में पड़ गया है। सऊदी राजा की उक्त योजना केवल बाहर की दुनिया के लिये आकर्षक हो सकती है लेकिन इससे सामान्य सऊदी का पेट भरने वाला नहीं हैं। सऊदी नागरिकों का कहना है कि रियाद की गलियों में कभी 'अरब स्प्रिंग' जैसे दृश्य देखने को मिले तो आश्चर्य नहीं।
सऊदी राजा अब्दुल्ला और युवराज सुल्तान बिन सलमान के पुत्र ने पिछले दिनों अपने साक्षात्कार में कहा कि सऊदी शासक जनता से कुछ भी छिपाना नहीं चाहते हैं। वे समय-समय पर दूरदराज के क्षेत्रों का दौरा भी करते हैं। वे आम आदमी से मिलते हैं। लेकिन सऊदी का नागरिक, जो बद्दू कहलाता है, का कहना है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और।
यथार्थ तो यह है कि अमरीका और अन्य पश्चिम के देशों ने अपनी सैनिक संधियां करके सुरक्षा के नाम पर सऊदी अरब को खोखला कर दिया है। उनके खनिज तेल पर असली अधिकार तो इन विदेशी कम्पनियों का है जो सऊदी में आकर डेरा डाले हुए हैं। कुवैत पर जब सद्दाम ने हमला किया तो अमरीका ने सऊदी अरब को भयभीत कर वहां अपनी सेना उतार दी। सद्दाम को मरे कई वर्ष हो चुके हैं, लेकिन अमरीका के सैनिकों को सऊदी अरब पाल रहा है। इन अमरीकियों के कारण वहां की संस्कृति भी खतरे में पड़ गई है। सच तो यह है कि तेल की अवैध कमाई आतंकवाद को बढ़ावा दे रही है। एक दिन इसी में दुनिया की यह बेइंतहा दौलत जलकर भस्म हो जाने वाली है। मुजफ्फर हुसैन
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