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देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि सीबीआई अर्थात केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो भारत सरकार का 'पिंजरे में बंद तोता' है। जो सरकार चाहती है वही इसकी जांच का परिणाम होता है। न्यायालय द्वारा तो यह अब कहा गया, पर इससे पहले भी देश की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियां केंद्र सरकार पर यह दोष लगाती रही हैं कि अपने निजी हितों के लिए सरकार जिस विपक्षी नेता को चाहे सीबीआई के कठोर पाश में फंसा कर अदालतों के धक्के खाने के लिए भेज सकती है और जेल में भी पहुंचा सकती है।
पिछले दिनों यह खूब चर्चा में आया कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के नेताओं को कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने सीबीआई के खौफ से ही अपने साथ संसद में समर्थन के लिए मजबूर किया था। देश की सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियां बार-बार यह कहती रहती हैं कि सीबीआई सरकारी शस्त्र है, जिसका भय दिखाकर अथवा जिसके जाल में फंसाकर केन्द्र सरकार विरोधी दलों का मुंह बंद रखने का काम करती है। अब यही बात जब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कह दी तो पूरा देश सीबीआई की विश्वसनीयता पर एक होकर अंगुली उठा रहा है। आश्चर्य यह भी है कि कभी सीबीआई को स्वतंत्र अस्तित्व में लाने का कोई प्रयास नहीं किया। यह भी कह सकते हैं कि सत्ताधीशों को यह 'पिंजरे में बंद तोते' की तरह सरकारी भाषा बोलती सीबीआई उपयोगी लगती रही है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 'सरकारी तोते' को पहचान देने से अथवा पहचान कर सार्वजनिक घोषणा कर देने से आम देशवासियों को बहुत राहत मिली है। पर देखना यह है कि ऐसे और कितने 'तोते' हैं जो वही बोलते हैं जो उनके सरकारी स्वामी चाहते हैं? मेरा पूछना है कि क्या कोई ऐसा 'सरकारी तोता' है जो अपनी आत्मा की आवाज सुनकर सत्य कह सके?
देश की न्यायपालिका अगर ध्यान दे तो पुलिस से बड़ा 'सरकारी तोता' और कोई नहीं। जो सरकार देखना या दिखाना चाहती है वही पुलिस के अधिकारी और कर्मचारी बोलते हैं। छोटे कर्मचारी तो बड़े अधिकारी की भाषा को अपनाने और लागू करने के लिए मजबूर हैं, पर जब बड़े अधिकारी भी 'यस सर', 'थैंक्यू सर' की भाषा में ही उचित-अनुचित सभी आदेशों का पालन करते हैं तो इस संस्कृति के कारण जनता न्याय पाने से वंचित रह जाती है। वह न्याय की आस में दर-दर भटकती रहती है। जिन दिनों पंजाब के साथ ही पूरे देश में पुलिस सुधार अर्थात पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए निर्णय में पुलिस कानून में समय के अनुसार सुधार करने की चर्चा चली थी तो भारत के किसी भी प्रांत में इन सुधारों को लागू नहीं किया। एक प्रांत के मुख्य सचिव ने तो मुख्यमंत्री की भाषा बोलते हुए यह कह दिया कि अगर पुलिस सुधार लागू कर दिए गए तो फिर सरकार कैसे चलाएंगे, पुलिस हाथ से निकल जाएगी। पंजाब में इसी का यह दुष्परिणाम रहा कि जब फरीदकोट की एक बेटी का नेताओं का संरक्षण प्राप्त गुंडों ने अपहरण कर लिया तब पुलिस एक वफादार पढ़ाए हुए तोते की तरह वही भाषा बोलती रही जो सरकार चाहती थी। उत्तर प्रदेश में डा. राजीव सचान जिस तरह जेल में तड़प-तड़प कर मरे और फिर रपट यह दे दी गई कि डाक्टर ने आत्महत्या की, वह भी 'सरकारी तोतों' की शानदार नौटंकी ही लगती है। देश में राष्ट्रीय रोजगार योजना के अंतर्गत लोगों को पूरा रोजगार और वेतन नहीं मिला फिर भी उस विभाग के सुशिक्षित 'तोते' सरकार को विश्वास दिलाते रहे कि जो हुआ सब अच्छा हुआ है और विरोधी दल केवल बोलने का शौक पूरा कर रहे हैं। बिहार के एक गांव में पुलिसकर्मी घायल लोगों की छाती पर पांव रखकर अपना पाश्विक नृत्य करते रहे, लेकिन वहां के 'तोते' भी सरकारी गुणगान करते रहे। पूरे देश में राशन की दुकानों का बुरा हाल है। गरीब को न कनक मिलती है, न चावल और न चीनी। मिट्टी का तेल तो कुछ बड़े गोदामों में बंद होकर थोड़े से लोगों को अमीर बना रहा है। गरीबी रेखा से नीचे लोग सिसक रहे हैं, पर सरकार के तोते लगातार यही रट लगा रहे हैं कि गरीबी कम हो रही है, साक्षरता बढ़ रही है और आम आदमी सरकार की कारगुजारी से बहुत प्रसन्न है। कौन नहीं जानता कि कोयला खदानों का महाघोटाला, 2-जी घोटाला और राष्ट्रमंडल खेलों में घपले-घोटाले तभी हो सकते हैं जब उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी, अधिकारी कम और 'तोते' ज्यादा बने रहते हैं।
सरकारी अस्पतालों में मजबूरी के मारे बहुत से शिक्षित-सुशिक्षित डाक्टर भी 'तोता' बनने को मजबूर हैं। कोई चोटिल व्यक्ति सरकारी अस्पताल में पहुंच जाए तो वहां भी डाक्टर को पहले उनके निर्देशों के अनुसार बोलना और लिखना पड़ता है जो उस समय के शासक होते हैं। जो अधिकारी तोता बनना पसंद नहीं करता उसका बनवास तय है। यह एक विभाग अथवा किसी राज्य विशेष की बात नहीं। जहां जो भी शासक है वह अपने सभी उच्चाधिकारियों से यही आशा रखता है कि वह उसी की भाषा बोलें और अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से भी वही रट लगवाएं।
सीबीआई पर न्यायपालिका की ऐतिहासिक टिप्पणी और सरकार को फटकार के बाद सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हा ने स्वयं यह कहा है कि इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि सीबीआई सरकारी तंत्र की गिरफ्त में नहीं है। राजनीतिक दलों द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग और सर्वोच्च न्यायालय में 'पिंजरे में बंद तोता' जैसी टिप्पणियों से आगे जाकर सिन्हा ने यह कहा है कि उन्हें खुशी है कि अब वह जांच एजेंसी की स्वायत्तता के लिए कदम उठा सकेंगे। वैसे श्री सिन्हा का यह भी कहना है कि सीबीआई को पूरी तरह खुला छोड़ना भी खतरे से खाली नहीं है। उन्होंने यह आशंका जताई कि सीबीआई के लोग पूर्ण स्वतंत्रता मिलने पर पद का दुरुपयोग शुरू कर देंगे। इसलिए सीबीआई को स्वायत्त बनाने का कानून सोच-समझकर बनाना और लागू करना चाहिए। आशा रखनी चाहिए कि पिंजरे खुलते ही इन तोतों में उड़ने की आत्मशक्ति भी आ जाएगी। लक्ष्मीकांता चावला
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