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विश्वास का टूटना ही 'अविश्वास' होता है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह देश का विश्वास पहले ही तोड़ चुके थे। सरकार ने कोयला आवंटन घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय का भी 'विश्वास' तोड़ा है। सर्वोच्च न्यायालय भी आहत है। सर्वोच्च न्यायालय ने विनीत नारायण के मामले (1997) में ही साफ कर दिया था कि जांच की विवेचनाओं में कार्यपालिका कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। बावजूद इसके प्रधानमंत्री कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों व कानून मंत्री ने कोयला घोटाले की जांच रपट में हस्तक्षेप किया। यह तथ्य भी न्यायालय से छुपाया गया। प्रधानमंत्री स्वयं इस घोटाले के आरोपी हैं। कोयले की खादानों के आवंटन के समय (2004-09) कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के ही पास था। आरोपी प्रधानमंत्री के ही कार्यालय के संयुक्त सचिव पर जांच रपट में परिवर्तन के आरोप हैं।
भारत में संविधान का शासन है। संविधान का पालन और प्रवर्तन प्रधानमंत्री की प्राथमिक जिम्मेदारी है। उन्होंने संविधान के अनु. 75(4) के अन्तर्गत 'भारत के संविधान के प्रति ली गई निष्ठा' की शपथ भी तोड़ी है। संविधान ने कार्यपालिका को संसद के साथ-साथ न्यायपालिका के प्रति भी जवाबदेह बनाया है। उनकी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को भी बेचैन किया है। देश में हडकम्प है। संविधान आधारित संसदीय व्यवस्था का चीरहरण है। संविधान तंत्र विफल हो गया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा गिरी है।
न्यायपालिका का अपमान
राष्ट्र व्यथित है। राज्यों में संविधान तंत्र की विफलता पर राष्ट्रपति शासन के प्रावधान हैं। तब राज्यों का शासन भी केन्द्र के अधिकार में होता है। केन्द्र में संविधान तंत्र की विफलता पर आखिरकार क्या किया जाए? संविधान सभा (3 अगस्त, 1949) में प्रख्यात विधिवेत्ता अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था, 'राष्ट्र और संघ सरकार का प्रथम कर्तव्य संविधान का पालन करना है।' 22 जनवरी, 1947 को पं. नेहरू ने संविधान का उद्देश्य संकल्प रखते हुए कहा था 'यह सभा भारत के भावी शासन के लिए संविधान बनाने की घोषणा करती है। प्रभुत्व सम्पन्न भारत की शक्तियां, प्राधिकार व शासन के सभी अंग लोक से उत्पन्न हैं। भारत के प्रभुत्व सम्पन्न अधिकार और न्याय सभ्य राष्ट्रों की विधि के अनुसार रखे जायेंगे।' उन्होंने कहा था, 'यह घोषणा है, दृढ़ निश्चय है, प्रतिज्ञा है, शपथ है और हम सबके लिए एक समर्पण।' संसद, प्रधानमंत्री, कार्यपालिका और न्यायपालिका को संविधान से ही शक्ति मिलती है। लेकिन विद्वान प्रधानमंत्री ने सत्ता के प्राधिकार, विधायिका और समूची संवैधानिक व्यवस्था का अपमान किया है। प्रधानमंत्री और उनके अधिकारियों व कानून मंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय का भी अपमान किया है। उन्होंने व उनकी सरकार ने न्यायालय निगरानी में जारी सी.बी.आई. जांच में अनाधिकार हस्तक्षेप किया है।
गिराई प्रधानमंत्री पद की गरिमा
प्रधानमंत्री कार्यालय, कोयला मंत्रालय के अधिकारी व कानून मंत्री संवैधानिक प्राधिकार का दुरूपयोग करते रंगे हाथों पकड़े गये हैं। आखिरकार प्रधानमंत्री कार्यालय ने सी.बी.आई. जांच रपट क्यों पढ़ी? ऐसा निर्देश प्रधानमंत्री ने ही दिया होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री आरोपों के घेरे में हैं। अधिकारियों ने आज्ञापालन किया। प्रधानमंत्री कार्यालय भारत की परासंवैधानिक सत्ता है। पं. नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा बाकी सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय ने जमकर हस्तक्षेप किया। श्रीमती इन्दिरा गांधी के समय इसे 'भारत सरकार' कहा जाता था। राजीव गांधी व नरसिंह राव के समय इस कार्यालय का पूरा राजनीतिकरण हो गया। तब सोनिया गांधी के वर्तमान राजनीतिक सचिव अहमद पटेल भी प्रधानमंत्री कार्यालय में थे। वर्तमान प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव के ताजा दु:साहस ने संविधान का अतिक्रमण किया है।
हास्यापद बयान
कानून मंत्री का वक्तव्य दयनीय है कि वे सी.बी.आई. 'रपट का व्याकरण' जांच रहे थे। वे दरअसल राजनीतिक व्याकरण के 'विस्मयादि बोधक चिन्ह' हटा रहे थे। संप्रग सरकार के राजनीतिक व्याकरण में विस्मयादि बोधक चिन्ह नहीं होते। इस राजनीतिक भाषाशास्त्र में संविधान पालन की साधारण प्रतिज्ञा भी नहीं है। संविधान सर्वोपरि सत्ता है। लेकिन यहां संविधान और उसकी व्यवस्था पर ही हमले हैं। सुशासन की बात तो दूर, संविधान का शासन भी सपना है। इन्हीं प्रधानमंत्री ने न्यायपालिका को हदें बताने का काम भी किया था। सी.बी.आई. तो उनकी आज्ञापालक एजेन्सी है। मूल प्रश्न यह है कि जब संविधान पालन के प्राथमिक जिम्मेदार प्रधानमंत्री और उनके मंत्री ही संविधान की धज्जियां उडा रहे हों तो शिकायत किससे करें? सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय ने ही आशावाद जगाया है।
लोकसभा के अविश्वास प्रस्ताव के कारण प्राय: राजनीतिक होते हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का सरकार के राजनैतिक निर्णयों से कोई लेना देना नहीं है। न्यायालय का अविश्वास संवैधानिक है। केन्द्र ने संवैधानिक मर्यादा का अतिक्रमण किया है। सरकार ने संवैधानिक संस्था के रूप में देश के साथ विश्वासघात किया है। संवैधानिक व्यवस्था पटरी से उतर गयी है। भारी घपलों-घोटालों की भी निष्पक्ष जांच में सरकारी हस्तक्षेप हैं। सरकारी आचरण संविधान व्यवस्था को तोड़ने वाले हैं। ऐसे में न्यायालय की सारी कोशिश संवैधानिक व्यवस्था को चुस्त व दुरूस्त करने से ही जुड़ी हुई है। हृदयनारायण दीक्षित
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