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विश्व बैंक की ताजा रपट के अनुसार पूरी दुनिया में एक अरब बीस करोड़ गरीब हैं। वैसे इस रपट में गरीबी रेखा से नीचे का कोई संकेत नहीं दिया गया है, लेकिन यह कहा गया है कि दुनिया भर के जितने भी आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोग हैं उनका एक तिहाई भारत में है। भारत की जनसंख्या लगभग एक अरब बीस करोड़ से कुछ ज्यादा है। इसका सीधा अभिप्राय यह है कि भारत के अति गरीब लोग 41 करोड़ से ज्यादा हैं। विश्व बैंक के अनुसार ये अपने जीवन की सारी आवश्यकताएं 65 रुपये प्रतिदिन से भी कम में ही पूरी करते हैं। मुझे लगता है कि यह भी पूरा सत्य नहीं। ठेके पर काम करने वाले बहुत से ऐसे कर्मचारी हैं, जिन्हें प्रतिमास तीन हजार रुपये से ज्यादा नहीं मिलता। अर्थात् 100 रुपया प्रतिदिन और उसी में वे अपने परिवार समेत जीवनयापन करते हैं। एक परिवार में कम से कम चार लोग होते ही हैं। स्पष्ट हो गया कि 100 रुपये में चार लोगों का भरण-पोषण अर्थात् 65 रुपये भी एक व्यक्ति को नहीं मिले। ऐसे भी असंख्य लोग हैं जिनके जीवन-यापन का कोई निश्चित साधन ही नहीं है। कभी कूड़े के ढेर में से रोटी चुनते हैं, कभी रेहड़ी-छाबड़ी लगाते हैं या दूसरों की दया पर ही निर्भर रहते हैं।
विश्व बैंक के अनुसार यद्यपि 1981 से लेकर 2010 तक हर विकासशील क्षेत्र में गरीबी कम हुई है। यह अनुपात 50 प्रतिशत से कम होकर केवल 21 फीसदी रह गया है, पर इन्हीं क्षेत्रों की जनसंख्या 59 फीसदी बढ़ने के कारण गरीबी कम होने का प्रत्यक्ष कोई संकेत दिखाई नहीं देता। अगर हम अपने भारत देश की स्थिति पर ही विचार करें तो यह लज्जाजनक स्थिति है कि अपना देश चालीस करोड़ से ज्यादा आधे भूखे और आधे नंगे लोगों का देश है। विश्व बैंक समूह के अध्यक्ष जिम योंग किम ने कहा है कि विश्व भर में इतने लोगों का गरीब होना हमारी सामूहिक चेतना पर कलंक है और इसके साथ ही विश्व बैंक के वरिष्ठ उपाध्यक्ष कौशिक बसु के अनुसार हमने गरीबी खत्म करने की कोशिश की है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं। विश्व की कुल आबादी का पांचवां हिस्सा अब भी गरीबी रेखा से नीचे है।
कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अपने देश के करोड़ों लोगों की अति निर्धनता की कल्पना करके भी कांप उठेगा, पर अगर कहीं विश्व बैंक यह आंकड़े जुटाए कि दुनिया भर के जनप्रतिनिधियों में से सबसे अमीर जनप्रतिनिधि कहां हैं तो निश्चित ही उनमें भारत का स्थान सबसे ऊपर होगा। भारत में राजनीति का धंधा इतना फल और समृद्धि-दायक है कि जो भी इस क्षेत्र में सफलता के साथ प्रवेश कर जाता है, अभाव, निर्धनता उससे कोसों दूर भाग जाते हैं। अब तो हालत यह हो गई कि कुछ जनप्रतिनिधियों द्वारा एकत्रित धन भारत के बैंकों में ही नहीं समाता और विदेशों में भेजने के लिए इन 'बेचारों' को विवश होना पड़ता है। विश्व की एक तिहाई अति गरीब जनता भारत में है। यह हम पर बहुत बड़ा धब्बा है। पर अति धनपति जनप्रतिनिधियों का भारत में होना भी हमारी साख को बढ़ाता नहीं। हम तुलसीदास जी के इस वाक्य को भूल गए कि मुखिया मुख सो चाहिए, खानपान को एक।
मुझे आश्चर्य होता है जब सरकारें नियम बनाती हैं और अपने कर्मचारियों को चार हजार रुपये प्रतिमास से लेकर दस हजार रुपये अधिकाधिक प्रतिमास देकर ठेके पर रखने की बात करती हैं और स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा दिए दोपहर भोज में एक ही समय सात लाख रुपये से ज्यादा का खाना पचा जाते हैं। काश राष्ट्रीय स्तर पर चिंतन यह किया जाता कि गरीब की गरीबी को कैसे कम किया जाए। उसे प्रतिदिन 65 रुपये में गुजारा न करना पड़े, कुछ ज्यादा दिया जा सके, ऐसा चिंतन तो देश में कभी भी किसी राजनीतिक दल ने नहीं किया। बहुत वर्ष पहले गरीबी हटाओ का नारा देकर गरीब के वोट लेकर सत्ता के शिखरों पर तो राजनेता आसीन हो गए थे, पर आज भी गरीबी दूर करने का समुचित प्रयास नहीं हो रहा है। नेता आम आदमी के पैसे के बल पर ऐश की जिन्दगी जी रहे हैं।
मेरा यह कहना है कि विश्व बैंक ने भारत की गरीबी देखी है, भारत की अमीरी और 'माले मुफ्त दिले बेरहम' का दृश्य नहीं देखा। कितना अच्छा होता अगर हम राजनेताओं की सुख-सुविधाओं पर खर्च होने वाले धन को उन लोगों को अर्पण कर दें जो अति गरीब हैं, जो 65 रुपये प्रतिदिन में ही अपने जीवन की सारी आवश्यकताएं पूरा करने को मजबूर हैं। जो नंगे तन हैं, भूखे पेट हैं, नीले आकाश के नीचे ही उनको सोना और जागना पड़ता है, घर-मकान तो दूर शौचालय की सुविधा पा लेना ही जिनके जीवन का कभी न पूरा होने वाला स्वप्न है। यद्यपि विश्व बैंक के दिए आंकड़ों के अनुसार पिछले तीस वर्षों में दुनिया ने तीस प्रतिशत अति गरीबी से छुटकारा पाया है, पर अपने देश भारत में आज भी अगर 33 प्रतिशत लोग गरीब नहीं, गरीबी रेखा से नीचे हैं तो इस देश के शासकों को नींद कैसे आती है?
वर्षों पूर्व किसी कवि ने लिखा था-
दुर्दशा गरीब की
गरीब होकर देखिए
कोठियों–बंगलों से
नेताजी जरा मुंह मोड़कर
सेठ साहूकारों की जेबों से
रिश्ता तोड़कर
धूप में दो मन का बोझा
सिर पर ढोकर देखिए
पर मुझे ऐसा लगता है कि लगभग आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी देश के नेताओं का रिश्ता सेठ-साहूकारों की जेबों से ज्यादा हो गया है और गरीब की पीड़ा न देखते हैं, न सुनते हैं, महसूस करना तो बहुत दूर की बात है। निश्चित ही चुनाव के दिनों में गरीब की झोपडी, टूटे लोटे में मिलने वाला पानी और टूटी खाट पर बैठ कर भरोसे देने का काम तो चलता है, उसके बाद ये आंकड़ा केवल भाषणों में घुल-मिल जाते हैं और फाइलों में बंद होकर दस वर्ष बाद आने वाले नए सर्वेक्षण की प्रतीक्षा में बीत जाते हैं। लक्ष्मीकांता चावला
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