हिन्दू धर्म के सामान्य आधार
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यहां प्रस्तुत है उस के संपादित अंश–
यह वही भूमि है, जो पवित्र आर्यावर्त में पवित्रतम मानी जाती है। यह वही ब्रह्मावर्त है, जिसका उल्लेख हमारे महर्षि मनु ने किया है। यह वही भूमि है, जहां से आत्मतत्व की उच्चाकांक्षा का वह प्रबल स्रोत प्रभाहित हुआ है, जो आने वाले युगों में, जैसा कि इतिहास से प्रकट है, संसार को अपनी बाढ़ से आप्लावित करने वाला है। यह वही भूमि है, जहां से उसकी वेगवती नद-नदियों के समान आध्यात्मिक महत्वाकांक्षाएं उत्पन्न हुईं और धीरे-धीरे एक धारा में सम्मिलित होकर शक्ति सम्पन्न हुईं और अन्त में संसार की चारों दिशाओं में फैल गयीं तथा वज्र-गम्भीर ध्वनि से उन्होंने अपनी महान शक्ति की घोषणा समस्त जगत् में कर दी। यह वही वीरभूमि है, जिसे भारत पर चढ़ाई करने वाले शत्रुओं के सभी आक्रमणों तथा अतिक्रमणों का आघात सबसे पहले सहना पड़ा था। आर्यावर्त में घुसने वाली बाहरी बर्बर जातियों के प्रत्येक हमले का सामना इसी वीरभूमि को अपनी छाती खोलकर करना पड़ा था। यही भूमि है, जहां बाद में दयालु नानक ने अपने अद्भुत विश्वप्रेम का उपदेश दिया। यहीं गुरु गोविन्दसिंह ने धर्म की रक्षा के लिए अपना एवं अपने प्राणप्रिय कुटुम्बियों का रक्त बहा दिया।
हे पंचनद-देशवासी भाइयो! यहां अपनी इस प्राचीन पवित्र भूमि में, तुम लोगों के सामने मैं आचार्य के रूप में नहीं खड़ा हुआ हूं, कारण, तुम्हें शिक्षा देने योग्य ज्ञान मेरे पास बहुत ही थोड़ा है। मैं तो पूर्वी प्रान्त से अपने पश्चिमी प्रान्त के भाइयों के पास इसलिए आया हूं कि उनके साथ हृदय खोलकर वार्तालाप करूं, उन्हें अपने अनुभव बताऊं और उनके अनुभव से स्वयं लाभ उठाऊं। मैं यहां यह देखने नहीं आया कि हमारे बीच क्या-क्या मतभेद हैं, वरन् मैं तो यह खोजने आया हूं कि हम लोगों की मिलनभूमि कौन सी है। यहां मैं यह जानने का प्रयत्न कर रहा हूं कि वह कौन सा आधार है, जस पर हम लोग आपस में सदा भाई बने रह सकते हैं।
स्वभावत: इस देश में सर्वत्र महान और तेजस्वी मेधा सम्पन्न पुरुषों का जन्म हुआ, जिनके हृदय में सत्य और न्याय के प्रति प्रबल अनुराग था, जिनके अन्त:करण में अपने देश के लिए और सबसे बढ़कर ईश्वर तथा अपने धर्म के लिए अगाध प्रेम था। अब तो पुनर्निर्माण का, फिर से संगठन करने का समय आ गया है। अब अपनी समस्त बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र करने का, उन सबको एक ही केन्द्र में लाने का और उस सम्मिलित शक्ति द्वारा देश को प्राय: सदियों से रुकी हुई उन्नति के मार्ग में अग्रसर करने का समय आ गया है।
हम लोग हिन्दू हैं। मैं 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग किसी बुरे अर्थ में नहीं कर रहा हूं, और मैं उन लोगों से कदापि सहमत नहीं, जो उनसे कोई बुरा अर्थ समझते हों। प्राचीन काल में उस शब्द का अर्थ था-सिन्धुनद के दूसरी ओर बसने वाले लोग। हमसे घृणा करने वाले बहुतेरे लोग आज उस शब्द का कुत्सित अर्थ भले ही लगाते हों, पर केवल नाम में क्या धरा है? यह तो हम पर ही पूर्णतया निर्भर है कि 'हिन्दू' नाम ऐसी प्रत्येक वस्तु का द्योतक रहे, महिमामय हो, आध्यात्मिक हो, अथवा वह ऐसी वस्तु का द्योतक रहे जो कलंक का समानार्थी हो, जो एक पददलित, निकम्मी और धर्मभ्रष्ट जाति का सूचक हो। यदि आज 'हिन्दू' शब्द का कोई बुरा अर्थ है तो उसकी परवाह मत करो। आओ, अपने कार्यों और आचरणों द्वारा यह दिखाने को तैयार हो जाओ कि समग्र संसार की कोई भी भाषा इससे ऊंचा, इससे महान शब्द का आविष्कार नहीं कर सकी है। मेरे जीवन के सिद्धान्तों में से एक यह भी सिद्धान्त रहा है कि मैं अपने पूर्वजों की सन्तान कहलाने में लज्जित नहीं होता। मुझ जैसा गर्वीला मानव इस संसार में शायद ही हो, पर मैं यह स्पष्ट रूप से बता देना चाहता हूं कि यह गर्व मुझे अपने स्वयं के गुण या शक्ति के कारण नहीं, वरन् अपने पूर्वजों के गौरव के कारण है। जितना ही मैंने अतीत का अध्ययन किया है, जितनी ही मैंने भूतकाल की ओर दृष्टि डाली है, उतना ही यह गर्व मुझमें अधिक आता गया है। उससे मुझे श्रद्धा की उतनी ही दढ़ता और साहस प्राप्त हुआ है, जिसने मुझे धरती की धूलि से ऊपर उठाया है और मैं अपने उस महान पूर्वजों के निश्चित किए हुए कार्यक्रम के अनुसार कार्य करने को प्रेरित हुआ हूं। ऐ उन्हीं प्राचीन आर्यों की सन्तानो! ईश्वर करे, तुम लोगों के हृदय में भी वही गर्व आविर्भूत हो जाए।
भाइयों! यह पता लगाने के पहले कि हम ठीक किस बात में एकमत हैं तथा हमारे जातीय जीवन का सामान्य आधार क्या है, हमें एक बात स्मरण रखनी होगी। जैसे प्रत्येक मनुष्य का एक व्यक्तित्व होता है, ठीक उसी तरह प्रत्येक जाति का भी अपना एक व्यक्तित्व होता है। जिस प्रकार अपने पूर्व कर्म द्वारा निर्धारित विशिष्ट मार्ग से उस मनुष्य को चलना पड़ता है, ठीक ऐसा ही जातियों के विषय में भी है। प्रत्येक जाति को किसी न किसी दैवनिर्दिष्ट उद्धेश्य को पूरा करना पड़ता है।
हम लोगों ने किस्से-कहानियों में दैत्यों और दानवों की बातें पढ़ी हैं। उनके प्राण 'हीरामन तोते' के कलेजे में बन्द रहते हैं और जब तक उस 'हीरामन तोते' की जान में जान रहेगी, तब तक उस दानव का बाल भी बांका न होगा, चाहे तुम उनके टुकड़े-टुकड़े ही क्यों न कर डालो। यह बात राष्ट्रों के सम्बंध में भी सत्य है। राष्ट्रविशेष का जीवन भी ठीक उसी प्रकार मानो किसी बिन्दु में केन्द्रित रहता है वहीं उस राष्ट्र की राष्ट्रीयता रहती है और जब तक उस मर्म स्थान पर चोट नहीं पड़ती, तब तक वह राष्ट्र मर नहीं सकता।
हमारी इस श्रद्धास्पद मातृभूमि पर बारम्बार बर्बर जातियों के आक्रमणों के दौर आते रहे हैं। 'अल्लाहो अकबर' के गगनभेदी नारों से भारत-गगन सदियों तक गूंजता रहा है और मृत्यु की अनिश्चित छाया प्रत्येक हिन्दू के सिर पर मंडराती रही है। ऐसा कोई हिन्दू न रहा होगा, जिसे पल-पल मृत्यु की आशंका न होती रही हो, संसार के इतिहास में इस देश से अधिक दु:ख पाने वाले तथा अधिक पराधीनता भोगने वाला और कौन देश है? परन्तु फिर भी हम जैसे पहले थे, आज भी लगभग वैसे ही बने हुए हैं, आज भी हम आवश्यकता पड़ने पर बारम्बार विपत्तियों का सामना करने को तैयार हैं।
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