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युवा पीढ़ी ही किसी देश या समाज का भविष्य होती है। युवा शक्ति को ही राष्ट्र के उत्थान या पतन का हथियार बनाया जा सकता है। उन्नीसवीं शताब्दी से बंगाल का इतिहास इस सत्य का साक्षी है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में अंग्रेजों द्वारा स्थापित हिन्दू कालेज में से निकली 'डेरोजियो पीढ़ी', जिसे ‘ªÉÆMÉ ¤ÉÆMÉɱɒ कहा जाता था, बंगाल के पतन का सूचक बनकर बाहर निकली, किंतु कुछ ही समय बाद राजनारायण बोस, देवेन्द्र नाथ ठाकुर, नवगोपाल मिश्र, बंकिम चन्द्र चटर्जी आदि के नेतृत्व में युवा पीढ़ी सांस्कृतिक पुनर्जागरण की वाहक बन गयी। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में रामकृष्ण परमहंस के आध्यात्मिक व्यक्तित्व ने विश्वविद्यालयी छात्रों की एक टोली को स्वामी विवेकानंद के नेतृत्व में संन्यास के पथ पर बढ़ाकर भारतीय अध्यात्म का पूरे विश्व में जयघोष गुंजा दिया। यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आध्यात्मिक जयघोष प्रखर राष्ट्रभक्ति के उभार में प्रगट हुआ और राष्ट्रभक्ति के उस ज्वार ने बंगाल विभाजन के षड्यंत्र के विरुद्ध प्रबल स्वदेशी आंदोलन का रूप धारण कर सर्वशक्तिमान ब्रिटिश शासन को पराजय की धूल जटा दी। उस स्वदेशी आंदोलन की पहली पंक्ति में युवा पीढ़ी ही वंदेमातरम् का उद्घोष करती हुई चल रही थी। कोलकाता की सड़कों पर उन दिनों युवा पीढ़ी का जोश बिखरा होता था, किंतु उसके पीछे कोई संगठन काम नहीं कर रहा था, वह स्वयंस्फूर्त्त था, पूर्वयोजित नहीं था।
भीड़ जुटाने में माहिर माकपाई
इस 3 अप्रैल (बुधवार) को भी कोलकाता ने एक विशाल दृश्य देखा। यह एक युवा नेता की शवयात्रा थी। उसका शव रंग-बिरंगे फूलों से पूरी तरह ढका था, दोनों ओर छात्र-छात्राओं की दो पंक्तियां हाथों में बैनर थामे चल रही थीं। मोटर साईकिल सवारों का एक दस्ता आगे आगे चल रहा था। सरकारी अस्पताल एसएसकेएम से चलकर यह शवयात्रा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया (एसएफआई) के कार्यालय पर रुक कर केउड़ातला श्मशान गृह में जाकर रुकी। अखबारों का कहना है कि वह 8 किलोमीटर लम्बा रास्ता नरमुंडों से खचाखच भरा हुआ था। पर यह दृश्य स्वयंस्फूर्त्त नहीं, प्रयत्नपूर्वक आयोजित था, एक ऐसे संगठन द्वारा जिसने 1977 से 2011 तक बंगाल पर एकछत्र राज किया था। यह शवयात्रा थी एसएफआई की राज्यसमिति के सदस्य सुदीप्तो गुप्त की। एक सेवानिवृत्त पेंशनधारी प्रणव गुप्त का पुत्र सुदीप्तो पिछले वर्ष रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एमए की परीक्षा पास करके छात्र जीवन से बाहर आ चुका था, पर अपनी पार्टी माकपा के आदेश पर छात्र आंदोलन में नेतृत्व कर रहा था। उसी के नेतृत्व में एसएफआई के छात्रों ने प. बंगाल सरकार के छात्र संघों के चुनाव न कराने के आदेश के विरोध में एक दिन पहले, मंगलवार को कालेज स्ट्रीट पर एक प्रदर्शन का आयोजन किया था, जिसमें उपस्थित छात्रों की संख्या 131 से 145 तक बतायी जा रही। यह ‘ÊvÉCEòÉ®ú |Énù¶ÉÇxÉ’ जब हिंसक रूप धारण करने लगा तब पुलिस ने 37 छात्रों को हिरासत में ले लिया और वह उन्हें बस में भरकर जेल ले जाने लगी। पुलिस सूत्रों के अनुसार होमगार्ड के दो जवानों अब्बास अली और विश्वजीत मंडल को केवल लाठी के सहारे बस में चौकसी के लिए नियुक्त किया गया था। प्रदर्शनकारी जोश में थे, वे दोनों होमगार्डों को गालियां दे रहे थे, उनके साथ धक्का-मुक्की कर रहे थे। इस समय अपनी आवाज को जनता तक पहुंचाने के लिए सुदीप्तो बस के दरवाजे के बाहर मुंह निकालकर जोशीले नारे लगा रहा था। अंदर की धक्का- मुक्की के कारण वह सड़क पर लगे एक लैम्प पोस्ट से टकराकर नीचे गिर पड़ा और उसे तुरंत एसएसकेएम अस्पताल पहुंचाया गया, जहां उसने उसी दिन सायंकाल 6.30 बजे अपने प्राण त्याग दिए।
माकपा का झूठा प्रचार
एक उदीयमान युवा नेता की इन दुखद परिस्थितियों में मृत्यु सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है, उस पर व्यापक शोक प्रदर्शन भी ठीक है। किंतु 34 साल बाद सत्ता से वंचित माकपा ने एक छात्र नेता की इस मृत्यु को अपनी सत्ता राजनीति के स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा और तुंरत ही उसकी मृत्यु को पुलिस द्वारा हत्या का रंग देकर सुदीप्तो को ‘ºÉ®úEòÉ®úÒ दमन का ¶É½þÒnù’ घोषित कर दिया। विमान बसु अस्पताल पहुंच गये। उन्होंने पार्टी के अलीमुद्दीन स्ट्रीट मुख्यालय में एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर सुदीप्तो की मृत्यु से उत्पन्न शोक और आक्रोश को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विरुद्ध मोड़ने का प्रयास किया। विमान बसु ने बड़े नाटकीय ढंग से ममता बनर्जी पर आरोप लगाया कि जिस समय ममता बनर्जी की पुलिस सुदीप्तो की पीट-पीटकर हत्या कर रही थी, उस समय ममता साल्टलेक स्थित स्टेडियम में आईपीएल मैच के उद्घाटन समारोह में नाच-गाना देखने में मगन थीं। ममता बनर्जी के कठोर आलोचक भी उन पर नाच-गानों के शौक का आरोप नहीं लगा सकते। किंतु अपने विरोधियों का चरित्र हनन कम्युनिस्ट राजनीति का लेनिन और स्तालिन के जमाने से ही बड़ा हथियार रहा है। माकपा की नजरों में ममता बनर्जी उसकी सबसे बड़ी शत्रु हैं, क्योंकि बंगाल पर मार्क्सवादियों के 34 वर्ष लम्बे शासन को समाप्त करने के चमत्कार का पूरा श्रेय अकेले ममता बनर्जी को ही जाता है। वे कई प्राणघातक हमलों को झेलकर भी मैदान में डटी रहीं और कम्युनिस्ट विरोध का प्रतीक बन गयीं। उन्होंने बड़ी कुशलता से पहले मुस्लिम वोट बैंक को, जिसके सहारे वाममोर्चा सत्ता में बना रहता था, उनसे दूर किया और फिर मध्यम वर्गीय भद्रलोक को। सिंगूर और नंदीग्राम में किसानों की भूमि के अधिग्रहण का विरोध करके ग्रामीण क्षेत्रों में वाममोर्चे को उखाड़ा और इस प्रकार 2011 में प.बंगाल में सत्ता परिवर्तन का चमत्कार घटित कर दिखाया। इस अकल्पित पराजय से हतप्रभ वाममोर्चा कुछ समय तो सहमा रह गया। क्योंकि उसके लम्बे शासनकाल में उत्पीड़न और आतंक की स्मृति जनमन में ताजा थी। एक जानकारी के अनुसार, कम्युनिस्ट शासनकाल में प. बंगाल में 70 हजार लोग मारे गए थे। वाममोर्चे के कार्यकर्त्ता जनता के सामने खड़े होने का साहस नहीं कर पाते थे। फिर भी वे, बलात्कार और स्कूलों में शिक्षकों द्वारा छात्रों को दंडित करने की इक्की-दुक्की घटनाओं को मीडिया में उछालकर ममता बनर्जी पर ‘xÉÉ®úÒ Ê´É®úÉävÉÒ’ व ‘¾þnùªÉ½þÒxÉ ¶ÉɺÉEò’ की छवि लादने का प्रयास करते रहे। उनके समर्थक ममता विरोधी उत्तेजक कार्टून और व्यंग्य रचकर सरकारी कार्रवाई को आमंत्रित कर ममता को ‘+ʦɴªÉÊHò विरोधी iÉÉxÉɶÉɽþ’ का रंग देते रहे। उनके ये सब प्रयास ममता की लोकप्रियता को बहुत नीचे नहीं गिरा सके।
यह तो शुरुआत है
पर, सुदीप्तो की मृत्यु कम्युनिस्टों के लिए वरदान बनकर आयी। उन्होंने सुदीप्तो को ‘{ÉÖÊ±ÉºÉ अत्याचार का ʶÉEòÉ®’ú और ‘¶É½þÒnù’ घोषित कर दिया। पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने एसएफआई कार्यालय के सामने मंच पर रखे सुदीप्तो के शव पर माल्यार्पण किया, अ.भा.नेता और सांसद सीताराम येचुरी टीवी चैनलों पर आ गये। विमान बसु और येचुरी ने न्यायिक जांच की मांग उठा दी। किंतु उसके पहले ही बंगाल के राज्य मानवाधिकार आयोग ने पहल करके जांच शुरू कर दी। सुदीप्तो की शवयात्रा के आगे एक बड़े बैनर पर सुदीप्तो का बड़ा चित्र बनाया गया। पूरे देश में ‘ÊvÉCEòÉ®ú Ênù´ÉºÉ’ मनाने की घोषणा की गयी। दिल्ली में वामपंथी गढ़ जेएनयू में छात्र संघ के अध्यक्ष लेनिन कुमार ने छात्र संघ में इस घटना की निंदा कर प्रस्ताव पारित कर दिया। जेएनयू, जामिया मिलिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के लगभग सौ वामपंथी छात्रों ने बंग भवन पर उग्र प्रदर्शन किया।
अभी यह शुरुआत है। वाममोर्चा सुदीप्तो की लाश पर चढ़कर सत्ता के बेर खाने के सपने देख रहा है। कई यूरोपीय और द.अमरीकी राज्यों में ऐसे ही इक्के-दुक्के भावनात्मक प्रसंगों को प्रचार का हथियार बनाकर कम्युनिस्टों ने सत्ता पर कब्जा जमाया था। क्या बंगाल में भी वे उस इतिहास को दोहराने का सपना देख रहे हैं?
यदि सुदीप्तो की मृत्यु को पुलिस द्वारा हत्या की घटना मान लें तो भी सवाल उठता है कि बंगाल में पुलिस का यह चरित्र बनाया किसने? क्या इसके लिए कम्युनिस्टों का चौंतीस वर्ष लम्बा शासनकाल जिम्मेदार नहीं है? उन्होंने ही पहली बार पुलिस वालों की ट्रेड यूनियन गठित की और पुलिस बल को एक ‘ºÉÆMÉÊ`öiÉ उत्पीड़क nù±É’ की छवि दी। शिक्षा क्षेत्र में भी अध्यापकों और छात्रों की यूनियनों पर अपना एकाधिकार स्थापित किया। कम्युनिस्ट शासनकाल में जब जब मुझे कोलकाता जाकर वहां के बुद्धिजीवियों से बात करने का मौका मिला, मैंने उन्हें कम्युनिस्ट यूनियनों के आतंक से भयभीत पाया। एक राष्ट्रवादी परिवार के कालेज छात्र ने बताया कि किस प्रकार उसके कालेज में वामपंथी छात्र अपने से असहमत छात्रों का उत्पीड़न करते हैं। जहां तक बंगाली भद्रलोक का सवाल है, उसकी बौद्धिक क्षमता और वाचालता से परेशान अंग्रेज शासक उनकी कायर मनोवृत्ति से आश्वस्त रहते थे। ऐसी स्थिति में 2011 के सत्ता परिवर्तन को स्थायी बनाना और कम्युनिस्ट शासन की वापसी को रोकना बंगाल व भारत के हित में अति आवश्यक है।
चिंताजनक हालात
बंगाल के 42 लोकसभा क्षेत्रों में से 28 में मुस्लिम जनसंख्या 11 प्रतिशत से अधिक है और वहां के चुनाव परिणाम को प्रभावित करने की निर्णायक स्थिति में है। उनकी मांगें लगातार बढ़ती जा रही हैं और ममता बनर्जी को सत्ता संतुलन बनाये रखने के लिए जूझना पड़ रहा है। एक ओर वह रवीन्द्रनाथ ठाकुर और स्वामी विवेकानंद की जयंतियां मनाने में सहयोग कर रही हैं, दूसरी ओर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगले सप्ताह कोलकाता यात्रा के समय नेताजी इंडोर स्टेडियम में उनका सार्वजनिक अभिनंदन करने की अनुमति उन्होंने नहीं दी है। क्या यह निर्णय मुसलमानों के मन में सेकुलरवादियों के लम्बे अपप्रचार के द्वारा बैठायी गयी मोदी की इस्लाम विरोधी छवि के कारण लिया गया है?
ममता बनर्जी इस समय कठिन दौर से गुजर रही हैं। एक ओर मुसलमानों की बढ़ती मांगें, दूसरी ओर मध्यमवर्गी भद्रलोक के भावुक मन को सरकार विरोधी बनाने की वामपंथियों की कोशिशें, तीसरी ओर राष्ट्रवादी खेमे की बढ़ती अपेक्षाएं, चौथी ओर सोनिया पार्टी की बंगाल इकाई और केन्द्रीय सरकार की ओर से आ रहा विरोध। अभी हाल में ममता बनर्जी आगामी पंचायती चुनावों की तिथियों एवं सुरक्षा व्यवस्था के प्रश्न पर राज्य चुनाव आयोग से टकराव की स्थिति में पहुंच गयी हैं। उन्होंने अपनी ओर से चुनाव की तिथियां 23-24 अप्रैल घोषित कर दीं जो आयोग को स्वीकार नहीं थीं। आयोग चाहता है कि उन चुनावों की सुरक्षा का दायित्व केन्द्रीय सुरक्षा बल संभालें जो शायद ममता को स्वीकार नहीं। यह पहली बार हुआ है कि कोई राज्य चुनाव आयोग अपनी ही सरकार के विरुद्ध न्यायालय में गुहार लगाये। इन चौतरफा विरोधों के कारण यदि बंगाल का सत्ता संतुलन बिगड़ गया तो क्या होगा? इसकी चिंता राष्ट्रवादी क्षेत्रों को अभी से करना आवश्यक है। 4 अप्रैल 2013 देवेन्द्र स्वरूप
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