संसद हमले के दोषी जिहादी अफजल को फांसी
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मनमोहन शर्मा
भाजपा एवं अन्य राष्ट्रवादी संगठनों के दबाव के कारण सरकार को आखिर 12 वर्ष के बाद संसद पर हमले के साजिश रचने वाले जिहादी अफजल को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी पर लटकाना पड़ा। गत सात वर्ष से सरकार अफजल की फांसी को इसलिए टाल रही थी क्योंकि वह चुनावों में अल्पसंख्यकों के मत बटोरने के लिए उसका इस्तेमाल तुरुप के पत्ते के रूप में करती आ रही थी। उसको फांसी की सजा सुनाने वाले न्यायमूर्ति एस. एन. ढींगरा ने यह स्वीकार किया है कि नेताओं ने इस मामले में फैसला करने में जानबूझकर देर की। तिहाड़ जेल में 24 वर्ष बाद किसी को फांसी की सजा दी गई है। इससे पूर्व 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दो हत्यारों को फांसी पर लटकाया गया था। इस जेल में फांसी पर लटकाया जाने वाला अफजल दूसरा जिहादी है। इससे पूर्व जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक अन्य नेता मकबूल बट्ट को भी इसी तरीके से इसी जगह फांसी पर लटकाया गया था। उस पर गुप्तचर विभाग के एक कर्मचारी की हत्या करने का आरोप था।
चेहरे बेनकाब
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने तीन महीनों के भीतर ही दो कुख्यात आतंकवादियों की क्षमा याचनाएं रद्द कीं। इसके बाद ही अजमल आमिर कसाब और अफजल को फांसी पर लटकाना संभव हो सका। कहा जाता है कि अफजल की देखरेख पर गत 12 वर्षों में सरकार को 50 करोड़ रुपए की विपुल धनराशि खर्च करनी पड़ी। इस संदर्भ में यह स्पष्ट करना भी जरूरी है कि क्षमादान की याचिका को भले ही संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति निपटाते हों मगर इस संदर्भ में पूरा मामला केन्द्रीय गृह मंत्रालय ही तैयार करता है। वही यह निर्णय करता है कि फांसी की सजा पाने वाले कैदी को क्षमादान दिया जाए या नहीं। इस सिफारिश का राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर करके केवल अनुमोदन किया जाता है।
इसमें दो राय नहीं कि इस फांसी से कई छद्म सेकुलरवादियों के चेहरे बेनकाब हो गए हैं। जहां तक कांग्रेस का संबंध है, वोट बटोरने के लिए वह शुरू से ही आतंकवाद को प्रोत्साहन देती आ रही है। पंजाब में खालिस्तान की ज्वाला भड़काने वाला जरनैल सिंह भिंडरावाला हो या लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण, इनको कांग्रेस ने न सिर्फ पैदा किया बल्कि उनका पालन-पोषण किया। यह दीगर बात है कि कांग्रेस द्वारा प्रोत्साहित उग्रवाद ने आखिरकार श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी, दोनों की जान ली। ओखला में पुलिस की गोली के शिकार हुए दो उग्रवादियों के प्रति कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद खुलेआम सहानुभूति व्यक्त करते रहे हैं। इन दोनों ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुसलमानों के वोट बटोरने के लिए बड़े घड़ियाली आंसू बहाए मगर फिर भी उन्हें वोट प्राप्त न हुए। इसी तरह अफजल की फांसी पर आंसू बहाए तथाकथित मानवाधिकारवादियों ने जो सिर्फ और सिर्फ आतंकियों के 'मानवाधिकारों' की चिंता करते हैं। उधर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उनके पिता फारुख अब्दुल्ला ने अफजल को फांसी पर लटकाए जाने की आलोचना की है। इससे जम्मू-कश्मीर के युवा वर्ग में पृथकतावाद को प्रोत्साहन मिलेगा। फारुख अब्दुल्ला जब इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तो उनके जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध थे। उनके छोटे भाई तारिक अब्दुल्ला लंदन में रहते हुए पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजे गए प्रतिनिधिमण्डल के साथ गए थे। उन्होंने जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले करने की खुलेआम वकालत की थी। जब संसद में इस बारे में जोरदार हंगामा हुआ तो भारत सरकार को उनका पासपोर्ट रद्द करना पड़ा था। अब्दुल्ला परिवार के साथ इंदिरा गांधी के समझौते के बाद उन्हें न केवल माफ कर दिया गया बल्कि उन्हें जम्मू-कश्मीर पर्यटन निगम का अध्यक्ष नियुक्त करके कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी दे दिया गया। पूर्व केन्द्रीय गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी उग्रवादियों की कथित मदद से चुनाव जीती थी, जिससे कुर्सी की भूखी कांग्रेस ने सभी सिद्धांतों को ताक पर रखकर गठबंधन किया ताकि वह सत्ता की मलाई चाट सके। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता यासीन मलिक और हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं को केंद्र सरकार ने पासपोर्ट दिए और वे पाकिस्तान जाकर आतंकवादियों से मेलजोल बढ़ा आए। ये तत्व कई वर्षों से पाकिस्तान जाकर राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में जुटे हुए हैं मगर आज तक उनके पासपोर्ट रद्द करने की सरकार को हिम्मत नहीं हुई।
अपराध और फैसला
13 दिसंबर 2001 को पाकिस्तान के पांच आतंकवादियों ने संसद परिसर में घुसकर अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू की थीं। इसके कारण 9 निर्दोष सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। बाद में सुरक्षाकर्मियों ने जवाबी कार्रवाई की जिसके नतीजे के तौर पर पांचों उग्रवादी मार गिराए गए। 15 दिसंबर 2001 को दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा ने जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी अफजल को कश्मीर से गिरफ्तार किया था जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कालेज के एस.ए.आर. गिलानी एवं दो अन्य उग्रवादियों शौकत हुसैन और उसकी पत्नी को गिरफ्तार किया गया था। 18 दिसंबर 2002 को अदालत ने पत्नी को तो बरी कर दिया मगर अन्य तीनों आरोपियों को फांसी की सजा दी। बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने गिलानी को बरी कर दिया। 4 अगस्त 2005 को सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल की फांसी की सजा पर मोहर लगाई। जबकि शौकत के मृत्युदंड की सजा को 10 वर्ष के कठोर कारावास में बदल दिया। 26 सितंबर 2006 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने अफजल को फांसी देने का आदेश दिया था। उसके एक सप्ताह बाद अफजल की पत्नी तबस्सुम ने तात्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के पास दया याचिका भेजी थी। तब से यह याचिका विचाराधीन ही चल रही थी। 3 फरवरी 2013 को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस याचिका को खारिज किया।
अफजल को फांसी देने के खिलाफ जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश में कहीं भी विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ। लगभग सभी राष्ट्रभक्त नागरिकों, संगठनों ने फांसी दिए जाने को न्यायोचित ठहराया है। केवल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एवं देहरादून में कुछ कश्मीरियों ने इस फांसी के खिलाफ जरूर प्रदर्शन किया। राजधानी में जामिया मिलिया इस्लामिया के कुछ अध्यापकों एवं छात्रों के अतिरिक्त विदेशी खैरात पर पलने वाले कुछ तथाकथित मानवाधिकारी संगठनों के स्वयंभु नेताओं ने भी इस फांसी के खिलाफ प्रदर्शन करने का प्रयास किया था, जिसका बजरंग दल एवं देश के आम नागरिकों ने मुंहतोड़ जवाब दिया।
कैसी विडम्बना है कि संसद भवन पर हुए इस हमले की साजिश को बेनकाब करने वाले दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा के दोनों अधिकारी एसीपी राजबीर सिंह और इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा अफजल की फांसी को देखने तक जीवित नहीं रहे।
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