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मिथिला उत्तर बिहार का वह क्षेत्र है जो सीतामढ़ी से लेकर मधुबनी होता हुआ दरभंगा तक जाता है। इसका कुछ भाग पूर्णिया में है और कुछ नेपाल में। प्राचीन काल में यह भूमि जनकों की थी। विदेहों और लिच्छवियों के प्रजातंत्र की क्रीड़ा भूमि यही रही है। हमारे छह दर्शनों में से दो न्याय और मीमांसा का जन्म यहीं हुआ था।
प्राचीनकाल से ही मिथिला नारी शक्ति का केन्द्र रहा है। सीता का त्याग, आम्बपाली का सौन्दर्य और भारती मिश्र की विद्वता से सभी परिचित हैं। प्रकृति ने मिथिला में दोनों हाथों से सौन्दर्य लुटाया है। एक लोक कवि ने मैथलानी के नेत्रों की चर्चा करते हुए लिखा है-
खाइबो में चिउरा, चबाइबे को पुंगीफल
देखिबे को खंजन नयन मैथिलानी को।
यहां की महिलाओं ने सौन्दर्य के साथ जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी कीर्तिमान स्थापित किये हैं। सबसे पहले लोक संगीत को देखें तो पाते हैं कि महाकवि विद्यापति, गोविन्ददास, हर्षनाथ झा आदि लोक-कवियों ने जिन गीतों की रचना की, यहां की विदुषियों ने अपना कंठ प्रदान कर उन्हें अमर बना दिया।
मैथिली गीतों का मधुरतम अंश तो वह है जो खेतों, खलिहानों, आंगनों और मंडपों में रचा गया और हजारों कंठों का आश्रय पाकर मिथिला के कोने-कोने में गूंज उठा। विवाह से सम्बंध रखने वाले गीतों का जितना बड़ा भंडार मैथिली में है उतना शायद विश्व के किसी भी साहित्य में दुर्लभ है। मिथिला का विवाह भी कोई साधारण विवाह नहीं होता। यहां दूल्हे को कम से कम सवा महीना ससुराल में रहना जरूरी है। इस अवधि में प्रतिदिन विवाह की विधि अवश्य होती है और हर विधि के लिए अलग-अलग गीत। लड़की की विदाई की करुण बेला को भी संगीत में ढाल देने की परम्परा हम मैथिली गीतों में देखते हैं-
धिया हे, रहब सबहक प्रिय जाए,
एतन छलहु सबके अतिप्रिय भेली
नयनन देखि जुड़ाए
ओतए रहब सबके अनुचरि भेली
भेंटत ओतए नहीं माय।
अर्थात् हे बेटी! वहां (पति के घर) सबकी प्यारी बनकर रहना। तुम यहां (मां के घर) सबकी प्यारी थीं। तेरा बचपन देखकर सब लोग खुश थे। वहां तो सबकी दासी बनकर रहना है। वहां मां नहीं मिलेगी।
गीत की अन्तिम पंक्तियां अत्यन्त मार्मिक हैं-
छोड़ती पैर नहीं माय कहत नहिं,
गद्गद् कंठ सुखाय।
भनय बिंध्य नाथ वियोग काल में
कानन एक उपाय।
अर्थात् बेटी पैर नहीं छोड़ रही है, मां बोल नहीं रही है। गद्गद् कंठ सूख रहे हैं। कवि कहता है कि वियोग के समय रोना ही एकमात्र उपाय रह जाता है।
एक समय मधुबनी चित्रकारी काफी प्रसिद्ध थी। यह चित्र शैली मिथिला की नारियों की महान देन है। यह चित्र सदियों से मिथिला की महिलाएं अपने घरों में बनाती रही हैं। प्रत्येक धार्मिक त्योहार और सामाजिक उत्सवों के अवसर पर चित्र बनाने की परंपरा रही है। शादी के बाद जिस कक्ष में वर-वधू पहली बार मिलते हैं उसकी दीवारों पर चित्र अंकित किए जाते हैं। इन चित्रों में देवी-देवताओं के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के प्रेम प्रसंगों की आकृतियों को उभारा जाता है। इस लोकचित्रकारी का दिग्दर्शन सबसे पहले 1951 में दिल्ली की एक प्रदर्शनी में किया गया। यह पहला मौका था जब इस चित्रशैली को मिथिला से बाहर के लोगों ने देखा। उसे विदेशी प्रतिनिधियों ने बड़े शौक से खरीदा। इन चित्रकारियों से उनके दूतावासों को सजाया गया। संसार भर में इस चित्रकारी की मांग बढ़ गई। इसी कला की बदौलत सीता देवी, बऊआ देवी, गंगा देवी जैसे कलाकारों को प्रसिद्धि मिली। इस कला में प्रसिद्धि और पैसे को देखते हुए पूंजीपतियों ने हस्तक्षेप किया। नये-नये तरीके ढूंढ लिए। एक महिला एक दिन में एक या दो चित्र मनोयोग से बनाती थी। अब मशीन द्वारा एक दिन में हजारों चित्र बनने लगे हैं।
संगीत और चित्रशैली के अलावा मिथिला की कलाविद् नारियों का चरखे पर सूत कातने की कला पर भी एकाधिकार रहा है। इस कला ने विगत शताब्दी के आरंभ में जोर पकड़ा जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी चम्पारण आए। उन्होंने कहा कि हम चरखा चलाकर व स्वदेशी अपनाकर आजादी पा सकते हैं। उनके इस आह्वान पर लाखों मैथिल महिलाएं चरखा चलाने लगीं। देश में सबसे पहले 'महिला चरखा संघ' की स्थापना मधुबनी में हुई। आज भी यहां की खादी सारे देश में प्रसिद्ध है। मिथिला में एक गांव है-कपसिया। यहां सदियों से कपास की खेती होती आई है। यहां के किसान एक खास प्रकार का कपास उपजाते हैं जिसका रंग हलका जोगिया होता है। इसका रंग इतना टिकाऊ है कि बार-बार धोए जाने पर भी कपड़ों के रंग में कमी नहीं आती। यहां के काते हुए सूत महिलाओं के हाथ के होते हैं। वे सूत इतने बारीक होते हैं कि पूरा थान अंगूठी से निकल जाए, किन्तु आधुनिकता के दौर में इस व्यवसाय को लकवा सा मार गया है।
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