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भारतीय संस्कृति में कमल का विशिष्ट स्थान है। वह सभी पुष्पों में प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है। सृष्टि की उत्पत्ति से संबंधित पौराणिक कथा के अनुसार कमल इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड से भी पुराना है। क्षीरसागर में लेटे हुए भगवान विष्णु की नाभि से सर्वप्रथम कमल की ही उत्पत्ति हुई। कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और ब्रह्मा ने इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की।
देवी–देवताओं का प्रिय पुष्प
कमल का हमारे सभी देवी-देवताओं से कुछ न कुछ संबंध है। तीन अलग-अलग रंगों के कमल हमारे तीन प्रमुख देवताओं के प्रतीक माने जाते हैं। रक्त कमल ब्रह्मा का, श्वेत कमल विष्णु का तथा नील कमल नीलकंठ शिव का प्रतीक है। शास्त्रों में सफेद कमल को 'पुंडरीक', रक्त कमल को 'कोकनद' और नील कमल को 'इन्दीवर' की संज्ञा दी गयी है। 'श्रीसूक्त' के अनुसार लक्ष्मी जी रक्त कमल पर आसीन हैं। लक्ष्मी जी का कमल से विशेष सम्बंध है। वे कमल से उत्पन्न हुई मानी जाती हैं। शास्त्र-सम्मत विधि के अनुसार लक्ष्मी जी की प्रतिमा की गरदन में कमल की माला होनी चाहिए, वे कमल पर बैठी हुई हों तथा उनके चार हाथों में से दो हाथों में कमल होने चाहिए। कमलप्रिय होने के कारण ही लक्ष्मी जी का एक नाम 'कमला' है। 'श्रीसूक्त' में दिये गए उनके अनेक नाम भी उनके कमल प्रेम को प्रकट करते हैं। यथा-पद्मवर्णा, पद्ममालिनी, पद्मोस्थिता, पद्मप्रिया, पद्महस्ता तथा पद्मसम्भवा आदि। 'श्रीसूक्त' के निम्नांकित उद्धरण में लक्ष्मी जी की कमल से जो समानता बतलाई गई है, वह दृष्टव्य है-
पद्मानने पद्म–उरु, पद्माक्षी पद्म संभवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षी, येन सौख्यं लभाभ्यहम्।।
पद्मानने पद्मिनी पद्मपये, पद्मदलायताक्षी।
विश्वप्रिये विश्मनोनुकूले त्वत्पाद पद्मंमयि सन्निधत्सव।।
सरसिज निलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगंधमाल्य शोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवन भूतिकरी प्रसीद मह्यम्।। (श्रीसूक्त)
(अर्थात जिसका मुख कमल जैसा है, जंघा कमल जैसी मुलायम हैं, ऐसी कमलनयन, कमलजा मुझे ऐसा कुछ दे, जिससे मुझे सुख मिले। कमलमुखी कमला, कमलपत्रारूढ़, कमलप्रिय, कमलदल नयन, विश्वप्रिये, विश्व की रुचिकर देवी तुम्हारे चरण कमल मेरे पास रख देना। हे कमलवासिनी, कमलधारिणी, शुभ्र और महीन वस्त्रों से तुम शोभायमान हो। हे भगवती हरिप्रिया, समस्त त्रिभुवन को वैभव सम्पन्न करने वाली तुम, मुझ पर प्रसन्न रहो।)
सिन्धु घाटी से प्राप्त अवशेषों में अनेक स्थानों पर कमल का अंकन प्राप्त हुआ है। यत्र-तत्र कमल पुष्पों के बीच एक देवी की आकृति भी प्राप्त हुई है। संभवत: यही देवी आगे चलकर लक्ष्मी जी के रूप में परिवर्तित हो गयी।
लक्ष्मी जी और कमल में समानता
कमल से लक्ष्मी जी का जन्म होने की मान्यता के अतिरिक्त भी लक्ष्मी का कमल से गहन संबंध है। सर्वप्रथम तो पौराणिक कथा के अनुसार समुद्रमंथन से हमें जो वस्तुएं प्राप्त हुईं, उन्हीं में लक्ष्मी जी भी एक थीं। कमल की उत्पत्ति भी समुद्र से हुई। इस रूप में दोनों की जन्मस्थली एक ही है। दूसरे, लक्ष्मी जी भगवान विष्णु की पत्नी हैं और विष्णु का निवास क्षीरसागर में है, जो कमल की जन्मस्थली भी है। तीसरे ब्रह्मा ने इस धरती की सृष्टि, कमल पर बैठकर ही की थी, और वह धरती भी लक्ष्मी जी का एक रूप मानी जाती है, इसीलिए इसे 'भू-लक्ष्मी' भी कहते हैं। इस रूप में भी लक्ष्मी जी की उत्पत्ति परोक्षत: कमल से ही हुई। पद्मपुराण के अनुसार, 'विष्णु की नाभि से जो कमल उत्पन्न हुआ, वह पृथ्वी रूप में ही था। वह कमल ही पृथ्वी कहा जाता है।' भू-लक्ष्मी के रूप में लक्ष्मी का स्वरूप निम्नांकित श्लोक से भी स्पष्ट रूप में प्रकट होता है-
समुद्र वसने देवि पर्वत स्तन मंडले।
विष्णु पत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व में।।
(अर्थात- 'हे समुद्र की करधनी धारण करने वाली देवी, हे पर्वत रूपी स्तनों को धारण करने वाली विष्णु पत्नी, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं। अपने पैरों द्वारा स्पर्श के लिए मुझे क्षमा करना।)
लक्ष्मी जी के समान कमल भी सुख, सौभाग्य, सौंदर्य तथा आकर्षण का प्रतीक है। इस रूप में भी ये दोनों समान है। लक्ष्मी जी को कमल प्रिय है और इसलिए वे कमल पर बैठती हैं तथा अपने हाथों में भी कमल धारण करती हैं। अन्य अनेक देवी-देवताओं के साथ भी कमल का निकट संबंध है। किसी भी देवता या विशिष्ट जन के प्रभावशाली व्यक्तित्व का वर्णन बिना कमल के अधूरा है। उनके विभिन्न अंगों की तुलना अधिकांशत: कमल से की जाती है, यथा-राजीवलोचन, चरणकमल, मुखकमल, हस्तकमल आदि। महाकवि बाण ने अपने ग्रंथ 'कादम्बरी' और 'हर्षचरित' में कमल का विस्तृत उल्लेख किया है और उसके अनेक नाम बतलाये हैं। महाकवि कालिदास ने भी अपने साहित्य में कमल की विस्तार से चर्चा की है तथा उसकी अनेक विशेषताओं का वर्णन किया है। कालिदास ने कमल के अरविन्द, पंकज, उत्पल, अम्बुज, हेमाम्भोज और पद्म आदि नाम बतलाये हैं और उनके विभिन्न वर्ण तथा उत्पत्ति स्थलों की जानकारी दी है। कालिदास ने शकुंतला के चरणों की रक्तकमल से उपमा दी है।
पौराणिक प्रसंगों में राम को राजीवलोचन कहा गया है। एक बार जब पूजा के लिए उन्हें कमल उपलब्ध नहीं हुए तो उन्होंने अपने नेत्र देवी को चढ़ाना चाहे। तभी देवी ने प्रसन्न होकर उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान की जिससे रावण मारा गया।
कमल का संदेश
कमल का एक नाम पंकज है, जो बड़ा सार्थक है। वह कीचड़ में उत्पन्न होता है फिर भी वह सौंदर्य और आकर्षण का केन्द्र है तथा प्रेरणा का पुंज है। उत्पत्ति स्थल की हीनता से वह स्वयं हीन नहीं हो जाता। सभी प्रकार की हीनता के भावों से अलग रहकर वह गर्व से अपना सिर ऊंचा किये रहता है। कमल चाहे किसी जंगल के कीचड़ में हो, चाहे किसी भव्य महल के सरोवर में, वह सदैव अनासक्त योगी के रूप में रहता है। पानी में खड़े रहने के बावजूद उसकी पत्तियों पर पानी की बूंद भी नहीं ठहर पाती। इस रूप में कमल हमारे लिए एक गुरू, उपदेशक और प्रेरक है। अधिक मान-सम्मान और लक्ष्मी (धन-सम्पदा) प्राप्त करके हम अभिमान के नशे में चूर न हो जाएं और कष्टकर परिस्थितियों में फंसकर हम निराशा की गहराइयों में डूबने न लगें। सुख और दु:ख में समान भाव से निर्लिप्त रहकर हमें सर्वत्र कमल के समान अपना सौरभ ही बिखेरना है और केवल जनहित के लिए अपना जीवन जीना है- यही कमल का शाश्वत संदेश है।
कमल प्रकाश का उपासक है। सूर्य के आगमन के साथ ही वह अपनी आंखें खोलता है और दिन भर उसी ओर उन्मुख रहते हुए सूर्यास्त के साथ स्वयं भी अपनी पंखुड़ियों को समेट लेता है। सूर्य की किरणें सत्य और ज्ञान की प्रतीक हैं। अपनी इस प्रवृत्ति के माध्यम से कमल हमें सदैव सत्य का समर्थन और ज्ञान के अनुसरण का संदेश देता है।
कमल की प्रेरणादायी प्रवृत्ति के कारण ही वह भारतीय संस्कृति में अनादिकाल से प्रतिष्ठा और प्रेम का प्रतीक रहा है। वैदिक साहित्य में इसे 'पुष्कर' नाम से पुकारा जाता था तथा जिन जलाशयों में यह प्रस्फुटित होता था, उन्हें 'पुष्करिणी' का नाम दिया गया। सृष्टि के रचयिता स्वयं ब्रह्मा का जन्म भी कमल से ही हुआ। 'महायान' के अनुसार भी प्रारंभ में एक कमल प्रस्फुटित होता है और उसी में से आदिबुद्ध अवतार लेते हैं। जैन मत के आदिपुराण के अनुसार 'भगवान ऋषभदेव देव कुमारों के साथ मोर बन जाते थे, तब ऋषभदेव ताली पीटते हुए उन्हें नाचना सिखाते थे। वे कभी राजहंसों को कमलनाल खिलाते, कभी हाथी के बच्चों के साथ खेलते, कभी मुर्गों को अपनी छाया के साथ लड़ते देखते और कभी बावड़ी में जल क्रीड़ा करते।'
कमल पर प्रयोग व उसका उपयोग
हमारे यहां प्राचीनकाल से ही कमल श्रृंगार का भी एक प्रमुख साधन रहा है। विशिष्ट जन सदैव और आमजन विशेष अवसरों पर कमल पुष्पों से ही अपना श्रृंगार करते या अपनी देव मूर्तियों को सजाते। प्राचीन साहित्य में जब सर्वश्रेष्ठ नायिका की चर्चा की गयी तो उसे भी कमल से संबंधित करके 'पद्मिनी' की संज्ञा दी गयी।
लक्ष्मी जी के साथ कमल को जोड़ने के पीछे हमारे प्राचीन मनीषियों की प्रमुख भावना शायद यह रही कि लक्ष्मी (धन-सम्पदा) प्राप्त करके हम कहीं अपने को विशिष्ट न समझने लगें और उसे खर्च करते समय ज्ञान के प्रकाश को सदैव साथ रखें। यदि कभी किसी को लक्ष्मी प्राप्त न हो सके तो भी उसे कमल के समान नि:स्पृह रहकर प्रसन्नता से अपना जीवन बिताना चाहिए।
आस्ट्रेलिया में किये गए एक अध्ययन के अनुसार कमल में न केवल अपना तापमान स्थिर रखने की क्षमता होती है बल्कि वे स्वयं को ऊष्मा भी दे सकता है। आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने कई दिनों तक अलग-अलग समय पर वायु का तापमान देखा जो 50 से लेकर 86 डिग्री फारेनहाइट तक घटता-बढ़ता रहा। मगर इस बीच कमल के फूलों का तापमान हमेशा 86 से 95 डिग्री फारेनहाइट के बीच ही बना रहा। उन पर समय चक्र और प्रकाश की उपलब्धता- दोनों का ही प्रभाव नहीं पड़ा। कमल के फूल दो से चार दिन तक अपना तापमान स्थिर बनाये रखने में सफल रहे। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मनुष्य की भांति कमल भी अपने एकत्रित स्टार्च को जलाकर ऊष्मा पैदा करता है और यह स्टार्च उसकी जड़ों, पंखुड़ियों और तनों में जमा होता है। इससे अनुमानत: एक वाट तक की शक्ति (ऊर्जा) उत्पन्न की जा सकती है।
आयुर्वेद में भी कमल के अनेक उपयोग बताए गए हैं। कमल-पराग (रस) से मधुमक्खियां जो शहद बनाती हैं, वह नेत्रों के लिए अत्यंत उपयोगी होता है। सभी प्रकार के शरीरगत दाह (पीड़ा), वर्ण विकार, मस्तिष्क दौर्बल्य, मूच्छर्ा, मानसिक उद्वेग, अनिद्रा, वमन, अतिसार, प्रदर, ज्वर आदि अनेक रोगों में कमल उपयोगी माना गया है। अरविंदासव तथा अर्क नीलोफर औषधियां कमल से ही तैयार होती हैं।
अर्थात सभी पुष्पों में कमल का महत्व इसलिए सर्वाधिक है कि वह सार्वकालिक पुष्प है, उसका ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व है तथा वह जीवन का संदेश भी प्रदान करता है।
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