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परिवर्तन का उजास

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Nov 5, 2012, 12:00 am IST
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परिवर्तन का उजास

दिंनाक: 05 Nov 2012 13:10:37

दीपावली पर्व है उजास का और उन आकांक्षाओं की पूर्णता का जो असुरों के राज से त्रस्त जनमानस ने श्रीराम के राज्याभिषेक में पिरोई थीं। रामराज्य ने जनभावनाओं के पोषण और जनाकांक्षाओं पर सौ टंच खरा उतरने का जो आदर्श प्रस्तुत किया, वह आज भी पूरे विश्व के सामने शासन व्यवस्था का अनूठा उदाहरण है। इसीलिए देश की स्वाधीनता के बाद महात्मा गांधी ने भारत की जनमनरंजक शासन व्यवस्था की रूपरेखा रामराज्य में तलाशी, लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि गांधी के भक्तों ने ही गांधी के सपनों को पलीता लगा दिया। देश की स्वतंत्रता, जो सुख, समृद्धि और राष्ट्र उन्नयन का सोपान बननी चाहिए थी, वह देशवासियों के हितों की उपेक्षा कर कुछ लोगांे के स्वार्थों की पूर्ति का साधन बन गई। इन हालात में फैज अहमद फैज की यह पंक्ति कितनी सार्थक है– कौन आजाद हुआ मुल्क में कातिल के सिवा? देश में भ्रष्टाचार, अपराध, अनैतिकता, गरीबी, बेबसी का ग्राफ निरन्तर बढ़ता गया और सत्तालोलुप राजनीति की छत्रछाया में सुशासन का रूपांतरण कुशासन में होता गया। आज तो स्थिति इतनी विकट हो गई है कि जनता इससे मुक्ति के लिए छटपटा रही है। इस भ्रष्ट, जनविरोधी, देश की आंतरिक–बाह्य सुरक्षा, संप्रभुता व राष्ट्रीय स्वाभिमान को अपने सत्ता स्वार्थों के लिए दांव पर लगाने वाले, जनाकांक्षाओं का गला घोटने वाले शासन से मुक्ति के लिए जनता की बेचैनी को हमने बाबा रामदेव, अण्णा हजारे के आंदोलनों में उमड़ते जनज्वार के रूप में देखा है। मुंबई में जिहादी आतंकवादी हमलों के बाद देशभर में उभरे जनाक्रोश में भी इसे देखा। मानो आज फिर से एक कुशासन के विरुद्ध देशवासियों की देहरी पर बदलाव की दस्तक सुनाई दे रही है। लेकिन राजनीतिक बियाबान में इसकी अनुगूंज दिग्भ्रमित सा कर देती है कि आखिर बदलाव के लिए किधर जाएं? आखिर कैसा बदलाव देश और जनता के भविष्य में आजादी के सपनों के रंग भर देगा कि फिर से पछताना न पड़े? क्या राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन से ही राष्ट्रीय व सामाजिक जीवन में वह उजास फैल जाएगा जिसकी चाह हर देशवासी को है?

देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते हुए बलिदान हुए असंख्य हुतात्माओं की आंखों में जिस भारत के स्वप्न पलते थे, राजनीतिक सत्ता स्वार्थों ने उनकी परवाह न कर अपनी लालसाओं की अलग राह बना ली। महात्मा गांधी ने राष्ट्रभक्त सरदार पटेल को दरकिनार कर बड़े चाव से अपने प्रिय जवाहर लाल नेहरू के सिर पर देश का ताज सजाया, लेकिन पाश्चात्य सोच के रंग में रंगे नेहरू ने गांधी के जीतेजी ही उनके ग्राम स्वराज्य, रामराज्य और राजनीति में ʅट्रस्टीशिपʆ के सिद्धांत जैसे विचारों को धता बता दी और सत्ता की ऐसी राह पकड़ी जहां सत्ता लिप्सा के लिए राष्ट्र विरोधी मजहबी लीगी तत्वों के सामने घुटने टेककर मातृभूमि का विभाजन अंगीकार कर स्वाधीनता के नाम पर खंडित भारत स्वीकार किया गया, समाज जीवन में भारतीय जीवन मूल्यों व नैतिकता को साम्प्रदायिकता का रंग दे दिया गया, शिक्षा के माध्यम से चरित्र निर्माण व राष्ट्रभाव को मजबूत करने की बजाय डिग्रियां बटोरना व पश्चिमी रंग–ढंग में जीना सिखाया गया, जिससे श्रेष्ठ भारतीय जीवन पद्धति व भाषाई स्वाभिमान को ठोकर मारकर अंग्रेजियत के रंग में रंगे मैकाले पुत्रों की संख्या बढ़ती गई, सरदार पटेल के भारतीय रियासतों को देश के झंडे तले एकजुट करने के राष्ट्रीय अभियान में बाधा डालते हुए अपना उदारवादी चेहरा प्रतिष्ठित करने हेतु मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए जम्मू–कश्मीर को भारत में पूर्ण विलय के बावजूद शेख अब्दुल्ला जैसों के हाथों सौंपकर देश की एकता–अखंडता के लिए नासूर बना दिया गया, विकास के नाम पर भारत की ग्राम व कृषि आधारित रचना को तबाह करके शहरीकरण व औद्योगिकीकरण की ऐसी अंधेरी सुरंग में देश को धकेल दिया गया जहां देश के पारम्परिक कुटीर व लघु उद्योग–धंधे दम तोड़ते गए, लोग बेरोजगार होते गए, गरीबी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती गई और निरंतर बढ़ते आर्थिक असंतुलन ने देश की खुशहाली को लील लिया। और तो और, उस समय के राजनीतिक नेतृत्व ने अपनी वैश्विक व शांति पुरुष की छवि बनाने के लिए देश की संप्रभुता व राष्ट्रीय सुरक्षा को भी दांव पर लगाया। ʅहिन्दी–चीनी भाई–भाईʆ के दिवास्वप्न में खोए हुए चीनी आक्रमण के खतरों से बेखबर, देश की 38000 वर्ग किमी. भूमि पर चीनी कब्जा हो जाने दिया, तिब्बत पर चीनी कब्जा इसकी दस्तक था, लेकिन भारत के तत्कालीन नीति–नियंताओं ने इसकी अनदेखी की और भारत पर चीनी आक्रमण की आधारभूमि तैयार हो जाने दी। शासन व्यवस्था के इस ʅनेहरू मॉडलʆ ने देश को सब प्रकार से गर्त्त में धकेल दिया।

आज फिर नेहरू की सोनिया कांग्रेस ने देश के सामने उसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए और भी भयावह परिस्थितियां खड़ी कर दी हैं। हालात में बदलाव का अहसास दिलाने के लिए मंत्रिमंडल में फेरबदल जैसे भ्रम पैदा कर कांग्रेस देश को छल रही है। भ्रष्टाचार के आरोपी मंत्रियों को प्रोन्नति, उद्योग घरानों की दखलंदाजी से अच्छी छवि वाले मंत्रियों के विभाग बदलने और आर्थिक नीतियों में अमरीकी दबाव के चलते खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश जैसी आत्मघाती स्थितियां पैदा करके कांग्रेस यथास्थिति को ही और गंभीर रूप दे रही है, जिसका अंधकार निरन्तर गहराता जा रहा है और देश इससे निकलने के लिए परिवर्तन के उजास की प्रतीक्षा में है। लेकिन यह परिवर्तन केवल राजनीतिक सत्ता बदलने से नहीं आएगा। 1977 और 1989 में भी प्रबल जनाकांक्षाओं पर सवार होकर सत्ता में बदलाव आया था और कांग्रेस चारों खाने चित नजर आई थी, लेकिन कुछ समय की खुशफहमी के बाद जनता को निराशा ही हाथ लगी, क्योंकि तब न तो राजनीतिक संस्कृति बदली और न व्यवस्था तंत्र, बस गद्दी पर बैठने वाले लोग बदल गए, उनकी सोच, उनका राजनीतिक चरित्र कमोबेश वैसा ही था जिसमें दूरगामी राष्ट्रीय जीवन दृष्टि और सत्ता से बड़ा राष्ट्रहित का भाव नदारद था। कुर्सी के लोभ ने परिवर्तन के इतने बड़े अवसरों को व्यर्थ कर दिया। जनता फिर ठगी सी रह गई। इसलिए परिवर्तन न केवल सोच और राजनीतिक संस्कृति के स्तर पर हो, बल्कि जनता की भूमिका भी इसमें एक महत्वपूर्ण कारक है। लोकतंत्र का अर्थ चुनाव आने पर वोट देना भर नहीं है, वह भी जाति–पंथ या प्रलोभन के वशीभूत, बल्कि लोकतंत्र में जनता ही नियामक शक्ति है, वह अपनी उसी शक्ति को पहचाने, समझे और उसका यथारूप प्रयोग करे न केवल वोट देते समय, बल्कि देशहित और समाजहित के प्रति सर्वदा चैतन्य रहकर ताकि उनके वोट से चुने जनप्रतिनिधि या सरकारें उसे छल न सकें, भले ही हमारी चुनाव प्रणाली और व्यवस्था तंत्र में अनेक खामियां हैं और उन्हें बदले बिना कोई भी परिवर्तन दूरगामी और सकारात्मक प्रभाव वाला नहीं होगा, लेकिन यदि जनता में सामाजिक, राजनीतिक व राष्ट्रीय चेतना रहे तो जो लोग उसके वोट से चुनकर आए हैं उन पर उसका नियंत्रण कमजोर नहीं पड़ेगा और फिर ऐसे राजनेता उसे भरमा नहीं सकेंगे। तंत्र पर लोक की शक्ति कायम हो इसकी आवश्यकता है। पर इसके लिए जनता को सजग रहना होगा जाति–पंथ–प्रलोभन की सीमाओं से ऊपर उठकर। तभी वह भ्रष्टाचारियों, सत्तालोलुपों और वोट के लिए देश की एकता–अखंडता को दांव पर लगा देने को तत्पर रहने वालों के कान उमेठ सकेगी।

देश की चौखट पर बदलाव दस्तक दे रहा है। महर्षि अरविंद ने कहा है कि जो अवसर का लाभ उठाने के लिए तैयार नहीं होते, अवसर उनके हाथ से निकल जाता है, परन्तु जो नैतिक शक्तियां हैं, राष्ट्रधर्म के प्रति सचेष्ट हैं उनके लिए वही अवसर एक बार फिर द्वार खटखटाता है। इस दस्तक को तो हम सुनें ही, लेकिन प्रामाणिकता से नैतिक अभिधान का अवलंबन कर राष्ट्रचेता बने बिना हम इस अवसर का लाभ नहीं उठा सकेंगे। यह बात इस देश की जनता को भी समझनी होगी और राजनीतिक–सामाजिक नेतृत्व को भी। हम एक–दूसरे की आंखों में धूल झोंक सकते हैं, नियति की नहीं। इस परिवर्तन के दौर में स्वामी विवेकानंद की वाणी हमें याद रखनी होगी कि भारत उठेगा, लेकिन भौतिक समृद्धि के बल पर नहीं, आध्यात्मिक चेतना के सहारे। हमारी वह आध्यात्मिक चेतना ही ʅस्वʆ का बोध है। इस ʅस्वʆ को विस्मृत करने से ही हमारा नैतिक पतन होता है और राजनीति सत्ता का उपकरण मात्र बनकर रह जाती है, उसमें से सेवा का भाव लुप्त हो जाता है, फिर सत्ता हमारे अंदर विकार पैदा करती है। भारत के आध्यात्मिक व सांस्कृतिक अधिष्ठान पर खड़े इस ʅस्वʆ का पोषण करने वाली शक्तियों के नैतिक अवलंबन के भरोसे ही यह परिवर्तन सुपरिणामकारी होगा। लेकिन यह ध्यान रखना पड़ेगा कि उनकी पुण्यायी का क्षय न हो। इस पुण्यायी के बल पर ही ʅरावण रथी विरथ रघुवीराʆ जैसी स्थिति से व्याकुल विभीषण ने आसुरी शक्तियों का समूल नाश देखा और लंका से लेकर अयोध्या तक दीपमालिका की पावन ज्योति जगमगा उठी। उसी में से रामराज्य का उदय हुआ। परिवर्तन के इसी उजास की अभिलाषा में दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों के साथ दीपावली के अवसर पर पाञ्चजन्य का यह विशेष आयोजन आप सबको समर्पित है–

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

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