होगी जय, होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन!
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हे पुरुषोत्तम नवीन!
राकेश सिन्हा
क्या देश की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियां एवं परिदृश्य मन, मस्तिष्क और हृदय को संतप्त, व्याकुल और उद्वेलित करने वाला नहीं है? ऐसा इसलिए नहीं कि राष्ट्रीय विकास दर में गिरावट हो गई है या जनमानस इच्छा-शक्ति खो चुका है। सत्य तो यह है कि दुनिया के नक्शे पर भारत के भविष्य की आहट इस कोने से लेकर उस कोने तक सुनाई पड़ रही है। एक आर्थिक ताकत, एक प्राचीन सभ्यता और प्रगतिशील संस्कृति का सम्मिश्रित रूप उन सबको दिखाई पड़ रहा है जो कल तक भारत को विलियम आर्चर या कैथरिन मैरी की नजरों से देखा करते थे। आर्चर ने अपनी पुस्तक 'इंडिया एंड इट्स फ्यूचर' में देश की संस्कृति को बर्बरता का पर्याय, तो मैरी ने 'मदर इंडिया' में इसके सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक भविष्य पर बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा किया था। यही औपनिवेशिक मानसिकता अलग-अलग रूपों में व्यक्त होती रही है। सूर्योदय जैसे अपनी प्रखर लालिमा से नए सुबह का संदेश प्रसारित कर देता है, वैसे ही भारतवर्ष का पुनर्भ्युदय का काल प्रारंभ हो चुका है। इसीलिए तो भारत पर नजर लगाए पश्चिम वह सब कर रहा है जो उसके अपने भौतिक पराभव को रोकने में मददगार सिद्ध हो। भारतीय मेधा, प्राकृतिक संसाधन, बाजार, संस्कृति सबके सब उसके निशाने पर हैं। उसे साम्राज्यवादी हथकंडों, आर्थिक शोषण करने एवं राजनीतिक आधिपत्य को स्थापित करने का पुराना अनुभव और महारथ प्राप्त है। इसीलिए देश के भीतर पिछले दो-ढाई दशकों से जो कुछ हो रहा है और जिस प्रकार की कुलबुलाहट दिखाई पड़ रही है वह हमें उपरोक्त प्रश्न की परिधि में लाकर खड़ा कर देती है। वर्तमान परिस्थितियों एवं परिदृश्य के दो आयाम हैं। बाह्य दुनिया क्या सोच रही है और क्या कर रही है? यह एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष भी है- हम अपने प्रति कितने सजग हैं? अपनी जिम्मेदारियों का हमें कितना अहसास है? और वेदना को मन के तेज में बदलने की कितनी क्षमता है? बाहरी दुनिया की सोच, समझ और स्वभाव की ग्राह्यता किसी भी ईमानदार, सच्चे राष्ट्रवादी चिंतक के लिए असामान्य बात नहीं है।
अमरीकी प्रतिरोध
1991 में स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना के समय अपने भाषण में श्री दत्तोपंत ठेंगडी ने चेताया था कि आने वाले समय में यदि हम सजग, सचेत, संगठित और स्वावलंबी नहीं रहे तो 'अमरीकी प्रतिरोध' के आधार पर देश के वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री की नियुक्ति होगी। तब यह बात बहुतों को हजम नहीं हुई थी। अभी स्याही सूखी भी नहीं कि अमरीका और उसके पिछलग्गू पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करने का जो प्रयास चल रहा है वह नवसाम्राज्यवाद नहीं तो और क्या है? उदाहरणार्थ हमारी स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था कैसी होगी इसका निर्धारण उन्हीं देशों द्वारा गठित संस्थाओं (विश्व व्यापार संगठन) एवं कथित समझौतों के मापदंडों/पैमानों के आधार पर हो रहा है। पश्चिम के व्यापारिक राष्ट्रवाद की नजर में सब कुछ बिकाऊ है। इसलिए बाजार में बाजारू जीव बनकर प्रतिदिन अस्तित्व, अस्मिता की लड़ाई लड़ना ही इसका दर्शन है। बाजार का आकार-प्रकार, लाभ का अंश किसी नैतिकता, धर्म, मर्यादा को नहीं मानता है। इसीलिए तो पश्चिम के पूंजीवाद के नए संस्करण में भारत की सामुदायिक चेतना को निशाना बनाकर उन सभी परंपराओं को नष्ट करने की कोशिश है जो समाज को स्थायित्व का भाव प्रदान करता है। तभी तो श्री ठेंगडी ने स्वदेशी का मतलब सिर्फ देश में बना साबुन, सर्फ, बिस्किट नहीं होकर औपनिवेशवादी सोच से बाहर निकलकर स्वाभिमानी राष्ट्र का नायक बनने को माना था। व्यापार में लाभ-हानि के ग्राफ के ऊपर-नीचे होने से तात्कालिक प्रभाव होता है परंतु सोच, समझ, चिंतन में यदि परकाया प्रवेश हो जाता है तो 'स्व' का भाव ही लुप्त हो जाता है। यह होता है अस्तित्व का संकट। यहीं पर देश के भीतर के आयामों पर गहराई से सोचने की जरूरत है।
नैतिकता का हृास
आखिर हम क्यों संतप्त और उद्वेलित हो रहे हैं? किस बात की वेदना और आघात से हम व्याकुल होकर प्रतिदिन कुछ नए की खोज में विचर रहे हैं? इसका उत्तर कठिन नहीं है। देश की राजनीतिक-आर्थिक जीवन में नैतिकता का ग्राफ उत्तरोत्तर गिरता जा रहा है। पिछले एक दशक का काल तो भारत के लिए त्रासदियों से भरा रहा है। राजनीति में कितने एम.बी.ए., कितने उच्च शिक्षा प्राप्त और स्वर्ण पदक लब्ध नेतृत्व है यह प्रश्न पूरी तरह अप्रासंगिक है। राजनीति की योग्यता समाज, संस्कृति, राष्ट्रीयता से उपजी उपाधियों से बनती है। नेतृत्व किन बड़ी विदेशी संस्थाओं से शिक्षित है, क्या यह बात उतनी महत्वपूर्ण है जितनी कि वह समाज की प्रयोगशाला में कितने वर्षों तक बदलाव की प्रतिबद्धता से प्रयोगधर्मी बनकर कार्य करता रहा है? ऑक्सफोर्ड, हार्वर्ड जैसी विश्व की बड़ी संस्थाओं की उपाधियां ही नेतृत्व का मापदंड होतीं तो एक गांव में टूटे-फूटे स्कूल-कॉलेज में शिक्षित पं. दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय परिदृश्य में चुनौती, विकल्प, फौलादी नेतृत्व बनकर नहीं उभर पाते। वह भी तब जब देश की प्राय: सभी राष्ट्रीय पार्टियों, कांग्रेस से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी एवं स्वतंत्र पार्टी तक में ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड से प्रक्षिशित मन, मानसिकता और मेधा वाले लोग भरे-पड़े थे। राजनीति व्यवसाय नहीं, तिल-तिल जलकर समाज व राष्ट्र के प्रति समर्पण का एक मार्ग है। जब यह भावना लुप्त हो जाती है तब राजनीति मरुभूमि बन कर रह जाती है जहां सिर्फ कैक्टस के ही पौधे उगते और अस्तित्व में रह जाते हैं। इसी कैक्टसवादी काल में भारतीय राजनीति पहुंच गई है। भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अमर्यादा, निर्लज्जता को राजनीतिक व्यावहारिकता बताकर उसे सफलता का मार्ग एवं श्रंृगार दोनों माना जाने लगा है।
इतिहास के अपराधी
नई आर्थिक नीति अपने साथ नई राजनीतिक संस्कृति लेकर आई है। पहले भी राजनीतिक दलों को व्यवसायियों एवं औद्योगिक घरानों से पैसा मिलता था। इसमें आपत्ति की भी बात नहीं है। जो वामपंथी इस संदर्भ में नैतिकता की डींग हांकते हैं उन्हें एक उद्धरण याद दिलाना आवश्यक है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन 'चेयरमैन' श्रीपाद अमृत डांगे ने पार्टी के राष्ट्रीय परिषद एवं मुख पत्र 'न्यू एज' में 1964 में स्वीकार किया था कि पार्टी को उद्योगपतियों से धन मिलता है और इसमें कोई आसमान टूटकर जमीन पर गिरने की बात नहीं है। परंतु तब और अब में एक गुणात्मक अंतर और पराभव का ग्राफ दिखाई पड़ता है। तब दलों के भीतर कार्यकर्ताओं का महत्व था। वे उसके प्राण होते थे। उनका तप ही दलीय व्यवस्था की नींव था। विचारधाराओं के माध्यम से लगातार संवाद व संघर्ष से जन प्रबोधन होता था। राजनीति विचारवान, आदर्शवादी और प्रतिबद्ध लोगों को आकर्षित करती थी। सभी दलों के नेतृत्व एवं कार्यकर्ताओं में ऐसे लोगों की बहुतायत होती थी। परंतु परिस्थिति में कितना परिवर्तन हुआ है इसका अंदाजा चाय की दुकान से लेकर विश्वविद्यालय परिसर तक राजनीति के मूल्यांकन से पता चल जाता है। कल तक हिन्दी फिल्मों में राजनीतिज्ञों के 'खलनायक' रूप में चित्रण को अतिशयोक्ति मान लिया जाता था, लेकिन आज वह चित्रण वास्तविकता के सामने कमजोर लगने लगा है। सत्य तो यह है कि राजनीति का नैतिक आधार तेजी से लुप्त हो रहा है। किसी भी समाज व राष्ट्र के लिए यह सबसे नाजुक दौर होता है। तब नैतिक आयामों से युक्त नेतृत्व को पुनस्स्थापित करना ही इसका समाधान है। व्यावहारिकता की आड़ में अपने पराभव, पतन, विलासिता, धनलोलुपता और चरित्रगत कमजोरियों को वैधानिकता प्रदान करने की कोशिश जितनी निंदनीय है उससे कहीं अधिक आपराधिक कार्य, उसे समर्थन देना या आंख, कान, मुंह बंदकर रखना है। दु:शासन के द्वारा चीरहरण के दुस्साहस को प्रतिद्वंद्विता के नियमों से बांधकर देखने वाले भला इतिहास के अपराधी नहीं तो और क्या हैं?
भारतीय राष्ट्र का तब-तब पतन हुआ है जब-जब हम पतित राजा-राजवाड़ों, जागीरों जमींदारों को सहन कर छद्म आशावादिता में जीते रहे। क्या ईस्ट इंडिया कंपनी सत्ता के लिए हिंदुस्थान आई थी? हमारी राजनीतिक, नैतिक कमजोरियों ने उन्हें व्यापारिक कार्यों के साथ-साथ राजनीतिक आधिपत्य के लिए भी प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया था।
लूटपाट की रणनीति
वर्तमान आर्थिक नीति में उदारीकरण के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों, राज्य की संपत्तियों को निजी हाथों में देने का आग्रह है। इसलिए पूंजी अपने आधिपत्य के लिए राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, स्वैच्छिक संगठनों सबको अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने का प्रयास करती है। इन क्षेत्रों के लोगों की विलासी और महत्वाकांक्षी जरूरतों को सुलभता से पूंजी के द्वारा पूरा कर उन्हें अपने प्रति कृतज्ञ बनाती है। फिर क्या, किसानों की जमीन, वनवासियों की वनभूमि या खनन क्षेत्र सबके सब पर लूटपाट की रणनीति से वे चमड़े का सिक्का चलाते हैं। विरोध का स्वर कमजोर होने के कारण वे निष्कंटक रहते हैं। इसी को कहते हैं सहकारी भ्रष्टाचार। समाज में राजनीतिक दल नहीं, राजनीतिक वर्ग के विरुद्ध जो मन, मानसिकता, विरोध और नफरत का वातावरण बनता जा रहा है वह न तो देश के लिए न ही लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। पश्चिम ऐसी ही अराजकता को प्रोत्साहित करता है। राजनीति एवं लोकशाही के बीच तनाव, राजनीति में अस्थिरता, उसे (पश्चिम को) अपनी पूंजी के मार्फत हस्तक्षेप करने, निर्णयात्मक भूमिका निभाने का अवसर देता है। ऐसा करने में वह अपने नए सूबेदारों को आदर्श की प्रतिमा बनाकर भी खड़ा करता है। वह पहले तो राजनीति को भ्रष्ट करता है फिर उसे स्वस्थ बनाने का स्वांग रचता है। इस कुचक्र को समझने और फिर उसकी वैकल्पिक व्यूहरचना को अमल में लाने की जरूरत जितनी आज है उतनी 1947 के बाद से कभी भी नहीं रही थी। भ्रष्टपूंजी के अधिनायकवाद का सबसे बड़ा खतरा दस्तक दे रहा है।
भानुमति का कुनबा
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार भानुमति का कुनबा है। इसका आकार-प्रकार अपरिभाषित है। हर ताकत का एक गुरुत्वाकर्षण केंद्र होता है जो उस वस्तु या ताकत का केंद्र होता है। संप्रग सरकार और गठबंधन का गुरुत्वाकर्षण केंद्र अज्ञात है। सोनिया या मनमोहन के चेहरे अदृश्य ताकत के मुखौटे मात्र हैं। वे उस ताकत के प्रतिनिधि हैं जो उभरते भारत को खोखला बनाकर नवसाम्राज्यवादी शिकंजे में कसना चाहती है। जब देश के नेतृत्व की बौद्धिकता प्रेस वक्तव्य के दायरे में सिमटकर रह जाए, अपने भाषणों के लिए उसे दूसरों की कलम पर आश्रित होकर रहना पड़े तब इस निरीह वर्ग में हम देश का कैसा भविष्य तलाश सकते हैं? लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल, महात्मा गांधी, महर्षि अरविंद ही नहीं डॉ. अम्बेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पं. दीनदयाल उपाध्याय सहित प्रथम पीढ़ी के राजनीतिज्ञ चिंतक थे, उनमें दृष्टि थी और उनमें मौलिक अभिव्यक्ति थी। इन स्वतंत्रता सेनानियों का चरित्र, कृतित्व ही नहीं, बल्कि लेखनी भी हमारी महत्वपूर्ण बौद्धिक धरोहर है। किसी से सहमति या असहमति होना एक पृथक विषय है। समाज, राष्ट्र के प्रति समझदारी होना, आत्मविश्वासपूर्ण अभिव्यक्ति होना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से आज राजनीति ऋण ली गई बौद्धिकता की बैसाखी से रास्ता नाप रही है। तभी तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2005 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के समारोह में भारत को ब्रितानी साम्राज्यवाद का उपनिवेश रहने के फायदे बताकर उपेक्षित मान लेते हैं। जिस भिक्षावृत्ति की नीति को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1905 में त्याग दिया था उसे 100 साल बाद मैकाले की संतानों ने पुन: आत्मसात कर लिया। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है?
प्रयोगधर्मी राजनीतिज्ञ
क्या लिंकन या चर्चिल ने किसी भी मौके पर अपने राष्ट्र के स्वाभिमान का सौदा किया था? क्या भारत की विरासत चंद्रगुप्त मौर्य का व्यक्तित्व पैदा करने का अहसास, अभिमान और आत्मविश्वास दे पा रही है? दीनदयाल उपाध्याय ने 1949 में 'चंद्रगुप्त' नामक उपन्यास लिखा था। उन्होंने राजनेता को तब परिभाषित करते हुए लिखा था कि 'चंद्रगुप्त तुम भूल रहे हो। तुम्हारा व्यक्तित्व अभी मिटा नहीं है। तुम अपने लिए नहीं, भारत के लिए सम्राट बनोगे। चंद्रगुप्त सम्राट नहीं होगा परंतु भारत सम्राट चंद्रगुप्त होगा। पर्वतक जैसा स्वार्थी तथा महत्वाकांक्षी, फिर वह कितना ही वीर क्यों न हो सम्राट बनने के योग्य नहीं है। भारत का सम्राट तो नि:स्वार्थ वृत्ति से संयम एवं दृढ़तापूर्वक जनता की सेवा करने वाला व्यक्ति होना चाहिए। भगवान ने तुमको ये गुण दिए हैं, पर तुम भूल से उन्हें अपना समझ बैठे हो। वे देश के हैं और देश का अधिकार है कि उनका उचित उपयोग करे। तुम सम्राट बनने, न बनने वाले कौन होते हो? आज देश को आवश्यकता होगी तो उसी के लिए तुम्हें भिक्षुक भी बनना पड़ेगा।' स्वयं पं. उपाध्याय के शब्दों व कर्म के बीच अंतर नहीं था। इसका प्रमाण उनके जीवन से मिलता है। उन्होंने लोकसभा में जाना अपना साध्य नहीं बनाया। राजनीति में जाति के प्रकोप को रोकने के लिए वे पहले प्रयोगधर्मी राजनीतिज्ञ बने। लोकसभा उपचुनाव में 'हारकर' भी वे 'जीत' गए। क्या उस 'जीत' की प्रतिध्वनि को हमने जाने-अनजाने में कमजोर नहीं किया है?
समाज में व्याकुलता सिर्फ भ्रष्ट आचरण से ही नहीं है। राजनीति आज सत्तावादी ही नहीं सत्तागामी हो गई है। सत्ता ऐश्वर्य का चरम बिन्दु बन गयी है और उसके लिए सभी अनैतिक आचरण राजनीतिक उपकरण बन गए हैं। चिंता का विषय देश में बढ़ती असमानता और असंवेदनहीनता है जो निश्चित तौर पर सामाजिक सौहार्द, सामंजस्य और संतुलन पर खतरे की घंटी है। आज एक निजी कंपनी का सी.ई.ओ. एक श्रमिक की तुलना में तीस हजार गुणा अधिक वेतन पाता है। 'हिंदू' अखबार के वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ ने जिन प्रश्नों पर हमारा ध्यान खींचा है वह उस वास्तविकता का बोध कराता है जो टेलीविजन चैनलों के रंगीन पर्दों पर जगह पाने की पात्रता शायद नहीं रखता है।
कैसी आत्मनिर्भरता?
देश का राजनीतिक नेतृत्व कितना असंवेदनशील हो चुका है उसका एक प्रमाण सिर्फ विदेशों में पड़े हजारों करोड़ का काला धन ही नहीं हर स्तर पर लोक बोध का अभाव है। देश 20 मिलियन टन अनाज 5 रुपए 45 पैसे प्रति किलो की दर पर निर्यात करता है तो देश में गरीबों को यही अनाज 6 रुपए 15 पैसे की दर से बेचा जाता है। आत्मनिर्भरता के दौर में हम कहां पहुंचे हैं उसका एक और प्रमाण देखिए। भारत आस्ट्रेलिया से गेहूं का आयात करता है, जबकि नौ साल पहले आस्ट्रेलिया पंजाब से गेहूं आयात करता था। देश में एक 'नेशनल क्राइम ब्यूरो' है जिसके आंकड़े प्रामाणिक होते हैं। इसके अनुसार 1995 से 2010 तक 2,50,000 किसानों ने आत्महत्या की है। एक दिन में औसतन दो किसान कर्ज, गरीबी, अन्याय से तंग आकर आत्महत्या करते हैं। यूपीए सरकार ने सच के सामने आने पर ब्यूरो के आंकड़ों को उद्धृत करना ही बंद कर दिया है। कल हो सकता है कि 'नेशनल क्राइम ब्यूरो' पर ताला लगा दिया जाए। सच बोलना तो व्यवस्था के खिलाफ बगावत करने जैसा है। पश्चिम इनके मन-मस्तिष्क पर भूत की तरह सवार है। इसका उदाहरण इस सरकार की नीतियों-रीतियों से मिलता है। 'वाशिंगटन पोस्ट' एवं 'टाइम मैग्जीन' में मनमोहन-राहुल के ऊपर नकारात्मक रपट छपने से सरकार कितनी आतंकित हो गई कि रातों-रात खुदरा, बीमा और पेंशन में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए नीतिगत घोषणा कर दी है। यह एक गंभीर प्रश्न है जिस पर बहस-विमर्श की आवश्यकता है परंतु यहां इतना बताना यथेष्ट है कि इस निर्णय के अमल में आने पर भारत के करीब पौने छ: करोड़ छोटे किसान सड़कों पर अनाथ बनकर रह जाएंगे। यह कल्पना नहीं है। मैक्सिको में वालमार्ट ने 112 मिलियन सीमांत किसानों के वजूद को मिटा दिया है।
असमानता से पीड़ित भारतीयों का स्वरूप 2017 में क्या होगा इसको देखिए। 'ग्लोबल वेल्थ रपट' के अनुसार 95 प्रतिशत भारतीयों की आय पांच लाख से कम होगी जबकि 0.3 प्रतिशत भारतीयों की आय 50 लाख रुपए होगी। निर्लज्जता किस सीमा तक आ गई है कि इस व्यवस्था के विचारक विकास के लिए गैर-बराबरी को आवश्यक व औचित्यपूर्ण मानते हैं। गैर बराबरी और भ्रष्टाचार दोनों का चोली दामन का संबंध है। भारत में क्या किसी राजनीतिज्ञ को भ्रष्टाचार के कारण सजा हुई है? मंगोलिया, फीजी, इस्रायल, दक्षिण कोरिया, जापान, आस्ट्रेलिया, फ्रांस में बड़े राजनेताओं को जेल की सजा दी गई। 1948 से 90 तक 26 राजनीतिज्ञों को जापान में सजा हुई है जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री भी शामिल हैं।
देश बांटने की साजिश
देश को मजहबी, जातीय एवं क्षेत्रीय संकीर्णताओं में बांटने की साजिश में राजनीति को उपकरण बनाया जा रहा है। आज की परिस्थिति वही है। जिसमें कहा जा सकता है कि सकारात्मकता और नकारात्मकता के बीच चित-पट का खेल है। राष्ट्रवादी ताकतों की परीक्षा की घड़ी है। नेपथ्य से बाहर आकर प्रत्यक्ष नेतृत्व देने की आवश्यकता समाज, समय और संदर्भ तीनों के लिए औचित्यपूर्ण होगा। इसी राष्ट्रवादी ताकत की प्रतिनिधि संस्था होने के नाते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज निशाने पर है। इसकी राष्ट्र के प्रति अखंड प्रतिबद्धता और परिवर्तन के प्रति आकांक्षा और समाज को संवेदना तथा राष्ट्र को सजीवता से देखने की योग्यता ने इसे नव उदारवादियों, छद्म पंथनिपेक्षतावादियों एवं मार्क्सवादियों तीनों का समान शत्रु बना दिया है। संघ द्वारा वैचारिक परिवेश की निरंतर निर्माण प्रक्रिया से जो लोकशक्ति का निर्माण हो रहा है उसी से राष्ट्रीय नेतृत्व से ओझल होते नैतिक चरित्र को पुनस्स्थापित करने की अपेक्षा की जा रही है।
देश को अल्पसंख्यकवाद, असमानता और अनाचार के चक्रव्यूह से बाहर निकालने की जिम्मेदारी उसी ताकत, नेतृत्व विचारधारा की है जो लोकशक्ति के माध्यम से परिवर्तन का वाहक है। आज देश में संधिकाल का संकट है। अत: समय सक्रियता का है। अवसर नेतृत्व करने का है। भीतर-बाहर के अमर्यादित एवं लूट संस्कृति के वाहकों को खत्म करने की चुनौती है। एक वैकल्पिक धारा समाज की कोख से बाहर आने के लिए उफान मार रही है। यह भारत को अपनी विरासत के आधार पर नैतिक नेतृत्व से संचालित राष्ट्र के रूप में स्थापित देखना चाहती है। इस उफान को पहचानने और अपनी शक्ति को मूर्त परिवर्तन का सारथी बनाकर हम राष्ट्र के इस ऐतिहासिक क्षण में अहम भूमिका के पात्र बन सकते हैं। जब भी संस्कृति से उपजी ऊर्जा खड्ग उठाती है तब निराला के इन शब्दों की प्रतिध्वनि हमारे आत्मविश्वास को इतिहास की एक चिरस्मरणीय घटना से जोड़ देती है-
होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन।
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
(लेखक 'भारत नीति प्रतिष्ठान' के मानद निदेशक हैं।)
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