पवनजल्लाद के हाथ कसाब को फांसी पर चढ़ाने के लिए कसमसा रहे हैं। खानदानी पेशे से जल्लाद, मेरठ (उ.प्र.) के रहने वाले पवन को इससे पहले किसी को भी फांसी पर चढ़ाने में खुशी नहीं होती थी, पर इस बार वह आतुर है एक पाकिस्तानी हमलावर को फांसी पर चढ़ाने के लिए। ऐसा करके वह अपने पूर्वजों द्वारा, पेशे की मजबूरी के कारण, भगत सिंह को फांसी पर लटकाने के पाप को धो डालना चाहता है। उसकी यह हसरत जल्दी पूरी भी हो सकती है। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने भी आखिरकार अजमल आमिर कसाब को फांसी पर चढ़ाने का आदेश सुना दिया है। इस फैसले के तुरंत बाद से देशभर का, देशभक्तों का (देशद्रोहियों को छोड़कर) एक ही समवेत स्वर है- कसाब को अविलम्ब फांसी दो। भारतीय न्यायिक प्रणाली पर गौरव जताते हुए सभी कह रहे हैं कि हम हर अभियुक्त के मामले में तय न्यायिक प्रक्रिया को पूरा करते हैं। पाकिस्तानी हमलावर कसाब के बारे में भी ऐसा करके हमने विश्व के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। अभिनंदन है भारतीय न्यायिक प्रणाली का!! पर जरा भारतीय राजनीतिक प्रणाली की ओर भी देखें, क्योंकि कसाब को फांसी पर लटकाने की बाकी प्रक्रिया इसी राजनीतिक प्रणाली से होकर गुजरनी है। भले कसाब पाकिस्तानी हो, पर उसे भी भारत के राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार है। और अगर ऐसा हुआ तो यकीन मानिए जैसे अफजल को फांसी पर लटकाने की हसरत लिए पवन के पिता मम्मू जल्लाद चल बसे, वैसे ही कसाब को जल्दी फांसी पर लटकते देखने की हमारी हसरतें भी कहीं धरी की धरी न रह जाएं।
लगभग 4 वर्ष पहले, 26 नवम्बर 2008 (26/11) को जब मुम्बई पर हमला हुआ था, ताज होटल सहित पूरी मुम्बई और यहां तक कि देश तक लगभग बंधक-सा हो गया था, समुद्र के रास्ते आए 10 पाकिस्तानी हमलावरों ने 166 निर्दोष भारतीयों-विदेशियों को मौत के घाट उतार कर तथाकथित 'जिहाद' का नंगा नाच किया था, तब लोगों और पुलिसकर्मियों की मुस्तैदी से पकड़े गए एकमात्र जिंदा पाकिस्तानी हमलावर अजमल आमिर कसाब के कारण उम्मीद जगी थी कि अब भारत पाकिस्तान पर दबाव बना सकेगा, उसके आतंकवादी मंसूबों के कारण उसे विश्व मंच पर दोषी सिद्ध कर सकेगा, उसे अलग-थलग कर सकेगा, पाकिस्तान पर कूटनीतिक और रणनीतिक दबाव बना सकेगा, कुछ और नहीं तो भारत कम से कम मुम्बई पर हमले के साजिशकर्ताओं- हाफिज सईद, अबू पाशा, जरार शाह, लखवी और जकी उर रहमान पर कार्रवाई के लिए तो पाकिस्तान को मजबूर कर ही देगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पाकिस्तान की तो छोड़िए, अमरीका की जेल में बंद मुम्बई हमले के षड्यंत्रकारी डेविड कोलमैन हेडली और तहब्बुर राणा तक से भारत की सुरक्षा व गुप्तचर एजेंसियां अब तक पूछताछ करने में सफल नहीं हो पायी हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी भारत के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे कह रहे हैं कि वे पाकिस्तान से 'आग्रह' करेंगे कि वह अपने यहां के दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करे। विदेश मंत्री एसएम कृष्णा भी कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री अपनी तेहरान यात्रा के दौरान पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के साथ इस मुद्दे को उठाएंगे।
बहरहाल इस बीच न्यायिक प्रणाली अपनी गति से अपराधी पर आरोप सिद्ध करने की प्रक्रिया में जुटी रही। पहले निचली अदालत में कसाब को न्यायालय की ओर वकील दिया गया, कसाब असहयोग करता रहा, वीडियो कांफ्रेंसिंग में कैमरे पर थूकता रहा, अट्टहास लगाता रहा, पर न्याय हुआ, उसके कबूलनामे पर उसे फांसी की सजा सुनाई गई। फिर मुम्बई उच्च न्यायालय में भी यही प्रक्रिया चली। और अब मार्च, 2011 से सर्वोच्च न्यायालय बड़ी बारीकी से इस मामले की सुनवाई कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूतिर् आफताब आलम और न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद की खण्डपीठ ने न्यायमित्र (न्यायालय की ओर से नियुक्त कसाब के वकील) राजू रामचंद्रन के माध्यम से कसाब को बचाब का पूरा अवसर दिया। सर्वोच्च न्यायालय में कसाब की ओर से यह कहा जाना कि उसका जिहाद के नाम पर 'ब्रेनवाश' किया गया या वह तो केवल 'रोबोट' की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था, यह साफ करता है कि उसने प्रत्यक्ष तौर पर पाकिस्तान की भूमिका स्वीकार कर ली। पर इस आधार पर उसकी सजा माफ करने की याचिका खारिज करते हुए 29 अगस्त, 2012 को दिए निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय साफ कर दिया कि कसाब को फांसी से कम कोई सजा नहीं दी जा सकती, क्योंकि उसका अपराध जघन्यतम है, विरलतम श्रेणी का है, भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कसाब की फांसी बरकरार रखने पर महाराष्ट्र के वरिष्ठ अधिवक्ता उज्ज्वल निकम का वह शेर पुन: स्मृति में उभरा- बदले तुमने बहुत रंग, बदले बहुत नकाब। फांसी तक हमने तुम्हें, ला ही दिया कसाब।। पर फांसी तक लाने की उनकी उक्ति के बाद डेढ़ वर्ष का समय बीत ही चुका है सर्वोच्च न्यायालय तक के सफर में। सफर अभी और भी बाकी है, खासकर राजनीतिक गलियारों का। ऐसे में मुम्बई हमले में शहीद हुए पुलिसकर्मी तुकाराम ओंबले के भाई एकनाथ की सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर की गई टिप्पणी एक सीख है कि- अगर 10 साल पहले अफजल को फांसी दे दी गई होती तो अजमल कसाब पैदा ही न होता और न ही 26/11 होता।
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