अंग दान एक सामाजिक दायित्व
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अंग दान एक सामाजिक दायित्व
गत लेख में हमने नेत्र और यकृत दान की चर्चा की थी। प्रस्तुत लेख में हम अन्य अंगों के दान की चर्चा करेंगे।
गुर्दा दान (किडनी डोनेशन)
गुर्दा हमारे शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसका प्रमुख कार्य रक्तशोधन करना, हानिकारक तत्वों को शरीर से बाहर निकालना, 'एसिड्स' को नियंत्रित करना तथा मूत्र उत्पन्न कर शरीर में पानी के संतुलन को बनाये रखना है।
गुर्दे की कार्यप्रणाली जब 25 प्रतिशत से भी कम रह जाती है तब शरीर में गंभीर परेशानियां उत्पन्न होने लगती हैं। जब 10-15 प्रतिशत से भी कम गुर्दे की कार्यप्रणाली रह जाती है, तब गुर्दा प्रत्यारोपण की जरूरत पड़ती है। गुर्दे के फेल होने के अनेक कारण हैं जैसे 'डायबिटीज', उच्च रक्तचाप, 'ग्लोमेरूलर डिजीज', वंशानुगत एवं जन्मजात गुर्दा रोग आदि।
गुर्दा फेल हो जाने के बाद व्यक्ति का जीवन बचाने का एक मात्र रास्ता गुर्दा प्रत्यारोपण ही होता है। अत: इसके लिए आवश्यक है कि उसके पारिवारिक सदस्य जैसे माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, निकट संबंधी के अलावा मरीज के साथ भावनात्मक संबंध रखने वाले व्यक्ति अपना एक गुर्दा स्वेच्छा से दान कर सकते हैं। गुर्दा दाता शारीरिक रूप से स्वस्थ होना चाहिए तथा किसी भी खतरनाक रोग (कैंसर, डायबिटीज, हृदय रोग, लीवर रोग, सिकल सेल डिजीज, एचआईवी आदि) से मुक्त होना चाहिए अन्यथा उनका गुर्दा उपयुक्त नहीं होता है। जो व्यक्ति अपना एक गुर्दा दान कर देता है, उसे शारीरिक रूप से कोई परेशानी नहीं होती है तथा एक ही गुर्दा शरीर के क्रियाकलाप को संतुलित करने में पूरी तरह समर्थ होता है। अनेक लोगों के शरीर में जन्म से एक ही गुर्दा होता है तथा उनका भी जीवन सुचारू ढंग से चलता है।
अस्थि मज्जा दान
अस्थि मज्जा एक लचीला ऊतक (टिश्यूज) होता है जो हमारी हड्डियों के भीतर पाया जाता है। अस्थि मज्जा नई रक्त कोशिकाओं का निर्माण करती है। रक्त बनाने की एक प्रकार की यह फैक्ट्री है। यह लसीका तंत्र (लिम्फेटिक सिस्टम) का महत्वपूर्ण तत्व है। 'लिम्फोसाइट्स' का निर्माण इसके ही द्वारा होता है। यह लिम्फ के पश्च बहाव को रोकती है। दो प्रकार की अस्थि मज्जा होती है – 'रेड मैरो' जो मुख्य तौर पर 'हिमेटोपोयटिक टिश्यू' से बनी होती है तथा 'यलो मैरो' जो मुख्य रूप से 'फैट सेल्स' से बनी होती है। शरीर को संक्रमण से बचाने के लिए 'व्हाइट ब्लड सेल्स', समूचे शरीर में आक्सीजन को पहुंचाने के लिए 'रेड ब्लड सेल्स' तथा रक्त बहाव को रोकने के लिए 'प्लेटलेट्स रेड मैरो' में पैदा होते हैं। सफेद रुधिर कणिका, लाल रुधिर कणिका अथवा 'प्लेटलेट्स' में विकसित होने से पूर्व स्टेम सेल्स ही रेड सेल्स हैं जिनका आरंभिक अवस्था में विकास अस्थि मज्जा में होता है। यह कणिकायें ही प्रत्यारोपण में प्रमुख तत्व हैं।
अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण गहन चिकित्सा (इंटेन्सिव ट्रीटमेन्ट) का रूप है। इसे 'ल्यूकीमिया', 'लिम्फोमास' आदि कैंसर, 'मल्टीपल मायलोमा' जैसे कैंसर रोग में प्रयोग किया जाता है। ऐसी बीमारी जिसमें अस्थि मज्जा ठीक और पर्याप्त मात्रा में 'रेड सेल्स' उत्पन्न नहीं कर पाती है, तब प्रत्यारोपण की जरूरत पड़ती है जैसे सिकल सेल एनीमिया, एप्लास्टिक एनीमिया, थैलेसिमिया, कान्जेनिटल न्यूट्रोपेनिया, गंभीर इम्यूनोडेफिसिएन्सी सिन्ड्रोम्स आदि।
अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण प्रमुख रूप से दो प्रकार का होता है–
'ऑटोलोगस ट्रांसप्लांट' : इस प्रकार की अस्थि मज्जा अथवा 'स्टेम सेल्स' का प्रत्यारोपण जिस व्यक्ति में होना है, उसका ही लिया जाता है। मरीज की अस्थि मज्जा अथवा 'स्टेम सेल्स' को बहुत थोड़ी मात्रा में लिया जाता है तथा 'हाई डोज ट्रीटमेंट' में जमा किया जाता है। जब चिकित्सा पूरी हो जाती है तब अस्थि मज्जा अथवा 'स्टेम सेल्स' को नस के माध्यम से मरीज के शरीर में पहुंचाया जाता है।
'एलोजेनिक ट्रांसप्लांट': इस प्रकार में अस्थि मज्जा अथवा 'स्टेम सेल्स' किसी दाता से प्राप्त किया जाता है। यह जरूरी होता है कि दाता के ऊतक (टिश्यूज) मरीज के ऊतक से मिलते हों। इसके लिए सर्वोत्तम दाता मरीज के भाई-बहन अथवा घनिष्ठ संबंधी हैं। उपयुक्त अस्थि मज्जा अथवा 'स्टेम सेल्स' परिवार अथवा सगे-संबंधियों के अलावा गैर लोगों से भी लिया जा सकता है परन्तु यह भारत में संभव नहीं है।
फेफड़ा दान (लंग डोनेशन)
फेफड़े के प्रत्यारोपण की सलाह चिकित्सक द्वारा तभी दी जाती है जब दवा अथवा अन्य चिकित्सकीय माध्यमों से फेफड़े की बीमारी के ठीक होने की संभावना खत्म हो जाती है। फेफड़े की विभिन्न बीमारियां जैसे 'सिस्टिक फाइब्रोसिस', जन्म के समय हृदय में खराबी होने के कारण फेफड़े की 'आर्टरीज' में क्षति, 'लार्ज एअरवेज' तथा फेफड़े क्षतिग्रस्त हो गये हों, 'एम्फाइसीमा' या 'क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मनरी डिजीज' (सीओपीडी), फेफड़े के 'टिश्यूज' में सूजन आ गयी हो तथा क्षतिग्रस्त हो गये हों (इंटरस्टिशियल लंग डिजीज), 'पल्मनरी हाइपरटेंशन, सारकॉयड' आदि में प्रत्यारोपण की आवश्यकता पड़ती है।
फेफड़े का दान दो माध्यमों से होता है-पहला : 'ब्रेन डेड' व्यक्ति जिसे जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा गया हो। दूसरा: जीवित अवस्था में फेफडे का दान किया जा सकता लेकिन इसके लिए दो दानकर्ता की जरूरत होती है। प्रत्येक व्यक्ति से उसके फेफड़े का अंश लिया जाता है। यद्यपि निकाले गये फेफड़े का अंश फिर से शरीर में नहीं बन पाता है लेकिन फेफड़े की कार्यप्रणाली पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।
अग्नाशय दान (पैंक्रियाज डोनेशन)
अग्नाशय शरीर का सबसे छोटा अंग है। एक तरह से यह पाचन तंत्र का ऊर्जा गृह है। 'इंसुलिन' को पैदा करके शरीर में शुगर का नियंत्रण करना इसका प्रमुख कार्य है। जब अग्नाशय पर्याप्त मात्रा में 'इंसुलिन' पैदा करने में असमर्थ हो जाता है तब ब्लड शुगर खतरनाक ढंग से या तो बहुत कम हो जाता है या बहुत अधिक हो जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति 'टाइप' 1 मधुमेह की गिरफ्त में आ जाता है। कुछ लोग 'टाइप' 1 'डायबिटीज' से ग्रस्त रहने के बावजूद 'इंसुलिन' लेकर सामान्य जीवन जीते हैं लेकिन कुछ लोगों को परेशानी अधिक उत्पन्न हो जाती है। अत: जब दवा आदि के माध्यम से अग्नाशय के ठीक होने की संभावना खत्म हो जाती है तब प्रत्यारोपण पर चिकित्सकों द्वारा विचार किया जाता है। कुछ मामलों में अग्नाशय और गुर्दा दोनों का प्रत्यारोपण होता है। प्रत्यारोपण के लिए अग्नाशय दो प्रकार से प्राप्त होता है-जीवित दानकर्ता के अग्नाशय में से छोटा हिस्सा निकाला जाता है तथा वह दानकर्ता जिसकी तुरन्त मौत हुई हो।
पाठकों से अनुरोध है कि यदि उनके निकट संबंधी, रिश्तेदार या परिवार के किसी सदस्य की शारीरिक स्थिति इस अवस्था में पहुंच गयी है कि संबंधित अंग का प्रत्यारोपण एकमात्र विकल्प है तो संबंधित अंग दान करने में पीछे न हटें। चिकित्सक संबंधित अंग का दान तभी लेंगे जब व्यक्ति की शारीरिक स्थिति दान देने के योग्य होगी। अत: लोगों को भी अंगदान करने के लिए प्रेरित करें।
(लेखक से उनकी वेबसाइट www. drharshvardhan.com तथा ईमेल drhrshvardhan@ gmail.com के माध्यम से भी सम्पर्क किया जा सकता है।)
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