मुगल शासकों को महान बताना देश का अपमान है
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कुछ चाटुकार सेकुलरवादियों तथा वामपंथी इतिहासकारों ने मुगल शासनकाल में भारतीय राष्ट्रीयता की विवेचना तथा स्वरूप को तथ्यरहित तथा मनमाने ढंग से प्रस्तुत किया है। इन्होंने मुगल शासनकाल को भारत का 'शानदार युग' तथा मुगल शासकों को 'महान' बताया है। भारत के मुगल शासकों में पहले छह शासक (1526-1707) ही प्रमुख थे। शेष ग्यारह शासक तो 1857 तक जैसे–तैसे शासन चलाते रहे। अंतिम शासक (बहादुरशाह जफर) के आते–आते तक मुगल साम्राज्य दिल्ली के लाल किले की चार दीवारी के भीतर तक ही सिमट कर रह गया था। लेकिन वामपंथी लेखकों ने मनमाने ढंग से राष्ट्रीयता के दो भाग कर दिए। एक को विशुद्ध राष्ट्रवादी तथा दूसरे को सीमित अर्थ में राष्ट्रवादी कहा। इन्होंने मुगल शासक अकबर, औरंगजेब आदि खलनायकों को पहली श्रेणी में तथा महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे नायकों को दूसरी श्रेणी में रखा। यह विडम्बना ही है कि आक्रमणकारी तथा देश के रक्षकों की श्रेणी मनमाने ढंग से, बिना किसी तथ्य या तर्क से निर्धारित की गई। इन सभी कथित विद्वानों ने अपना विश्लेषण करते हुए इसकी कारण–मीमांसा तक नहीं की।
भ्रम फैलाने के कारण
एक प्रसिद्ध इतिहासकार ने वामपंथी लेखकों द्वारा 1860 के दशक में फैलाए गए इस भ्रमजाल के चार सम्भावित कारण दिये हैं। पहला–यह संभावना हो सकती है कि अंग्रेजों ने मुगलों से राज्य छीना था। अत: इन लेखकों ने मुगल शासकों को देशभक्त समझा हो। परन्तु यह कुतर्क ही होगा, क्योंकि ब्रिटिश इतिहासकारों तथा प्रशासकों ने माना है कि अंग्रेजों ने भारतीय सत्ता मुगलों से नहीं बल्कि मराठों तथा सिखों से छीनी थी। अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर तो नाममात्र का शासक था, जो दिल्ली के लाल किले तक सीमित था। दूसरा– यह तर्क हो सकता है कि मुगल शासकों का शासन दिल्ली के पठान शासकों की तुलना में अच्छा था। परन्तु यह कथन भी आधारहीन है। इस आधार पर कोई भी कह सकता है कि ब्रिटिश शासन मुगलों से बेहतर था। तीसरा– अकबर ने अपने शासनकाल में कुछ सुधार किए थे। परन्तु केवल इस कारण ही उसके राज्य को 'राष्ट्रीय राज्य' या उसे 'राष्ट्रीय शासक' नहीं कहा जा सकता। चौथा–कुछ आधुनिक मुस्लिम इतिहासकारों के एक वर्ग ने सत्य को छिपाते हुए मुगल साम्राज्य की सफलताओं को बढ़ा–चढ़ाकर प्रस्तुत किया, परन्तु साथ ही उन्होंने मुगल शासकों की असफलताओं तथा कमियों को बिल्कुल भुला दिया या छिपाया। अत: वामपंथी इतिहासकारों के कथन राजनीति से प्रेरित तथा अवसरवादिता का परिणाम ही लगते हैं।
अराष्ट्रीय मुगल शासक
मुगल शासक मूलत: विदेशी थे। अत्यधिक शराबी तथा व्यसनी बाबर, मुगलों का प्रथम शासक–वस्तुत: एक लुटेरा था। वह हिन्दुओं के लिए हमेशा 'काफिर' शब्द का प्रयोग करता था (देखे बाबरनामा)। न उसे कभी भारत से लगाव था और न ही यहां के लोगों से। उसे तो भारत के मुसलमान भी नहीं चाहते थे। उससे तो अत्यन्त श्रेष्ठ हसन खां मेवाती था जिसने स्वेदश की रक्षा के लिए राणा सांगा की सेना में भाग लिया था। मेवाती को अपने पक्ष में लाने के लिए बाबर ने अनेक प्रलोभन दिए थे, लेकिन हसन खां मेवाती ने अपने पुत्र नाहर खां को बाबर द्वारा बन्धक बना लिए जाने के बाद भी स्वदेश भक्ति नहीं छोड़ी। इसी भांति बाबर के अफीमची पुत्र हुमांयू को भारत से किंचित मात्र भी लगाव नहीं था। वह छोटी– मोटी विजय के पश्चात जश्न, दावतों तथा विलासिता में डूब जाता था। बार–बार ईरान की ओर भागता था। वह जीवन भर लुढ़कता रहा और उसकी मृत्यु भी लुढ़क कर हुई थी।
मुगलों का तीसरा साम्राज्यवादी शासन अकबर था, जिसने लगभग 50 वर्षों तक भारत पर शासन किया। स्मिथ के अनुसार उसमें राष्ट्रीयता की एक बूंद तक नहीं थी। वह अफीम मिली शराब का व्यसनी था तथा उसके नशे में धुत रहता था (स्मिथ–अकबर दि ग्रेट, पृ. 16)। अबुल फजल के अनुसार उसके हरम में 3000 महिलाएं थीं। साम्राज्य के विस्तार में वह तैमूर लंग की भांति नृशंस, क्रूर तथा छल–कपट में जरा भी नहीं हिचकता था। विशेषकर हेमचन्द्र विक्रमादित्य, महारानी दुर्गावती तथा महाराणा प्रताप के साथ संघर्ष उसके कलंकित चरित्र को सामने लाते हैं। अकबर की इस साम्राज्यवादी प्रवृत्ति की विश्व प्रसिद्ध वामपंथी इतिहासकार डा. रामविलास शर्मा ने भी कटु आलोचना की है (देखें–इतिहास दर्शन)। यह भी सत्य है कि उसकी मध्य एशिया में समरकन्द तथा अपने पूर्वजों की भूमि फरगना जीतने की आकांक्षा अधूरी रही। वह 1595 में केवल कांधार ही जीत सका।
राष्ट्रीयता के प्रतीक कौन?
विचारणीय व गंभीर प्रश्न यह है कि भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतीक साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षी अकबर है या देशाभिमान पर शहीद होने वाली रानी दुर्गावती, अथवा भारतीय स्वतंत्रता के लिए मर मिटने वाले हेमचन्द्र विक्रमादित्य या देश की आजादी के लिए जंगलों में भटकने वाले महाराणा प्रताप। क्या भारत का राष्ट्रीय पुरुष अकबर है जो छल–कपट तथा दूसरों पर आक्रमण कर उसे जीत लेने के पागलपन से युक्त था या हेमू जैसा साहसी व्यक्ति, जिसने विदेशी शासन को देश से उखाड़ फेंकने तथा दिल्ली पर स्वदेशी शासन पुन: स्थापित करने का प्रयत्न किया? क्या राष्ट्र का प्रतिनिधि गोंडवाना की रानी पर अकारण आक्रमण करने वाला अकबर है या शत्रु द्वारा पकड़े जाने व अपमानित होने की आशंका के स्वयं छुरा घोंप कर बलिदान देने वाली रानी? क्या राष्ट्र का प्रेरक चित्तौड़ में 30,000 हिन्दुओं का नरसंहार करने वाला अकबर है या महाराणा प्रताप का संघर्षमय जीवन, जिन्होंने मुगलों की अजेय सेनाओं को नष्ट कर दिया था।
वस्तुत: विद्वानों द्वारा किसी भी शासक का मूल्यांकन राष्ट्र के जीवन मूल्यों के लिए किए गए उसके प्रयत्नों के रूप में आंका जाना चाहिए। इस दृष्टि से भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप का नाम सदैव प्रेरक रहा है, अकबर का नहीं। शचीन्द्रनाथ सान्याल की क्रांतिकारी समिति का कोई भी सदस्य ऐसा नहीं हो सकता था जो चित्तौड़ के विजय स्तम्भ के नीचे शपथ न ले। तब चित्तौड़ की तीर्थयात्रा तथा हल्दी घाटी का तिलक लगाना अनिवार्य हो गया था। वस्तुत: अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने में महाराणा प्रताप ने नाम से जादू का काम किया था। मजहबी तथा सांस्कृतिक कुकुत्यों में अकबर भी किसी से कम नहीं था। मूर्छित अवस्था में पड़े हेमचन्द्र विक्रमादित्य का सिर काटकर अल्पायु में भारत में पहली वार 'गाजी' की उपाधि प्राप्त करने वाला अकबर बड़ी धनराशि हज जाने वाले यात्रियों पर लुटाता था। पहले इबादत खाना, फिर मजहर, इसके बाद दीन–ए– इलाही उसके मजहबी प्रयत्न थे। मजहर को उसकी गुप्त भावनाओं से प्रेरित एक पाखण्ड नीति कहा गया है। स्मिथ ने उसकी दीन–ए–इलाही की स्थापना की योजना को मिथ्यास्पद तथा निरकुंश स्वेच्छाचारिता का विकास माना है। (देखें, स्मिथ–अकबर दि ग्रेट, पृ. 160)। यह उल्लेखनीय है कि चाटुकार तथा वामपंथी इतिहासकारों के साथ ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी अकबर के शासन की बड़ी प्रशंसा की है। यहां तक कि भारत में अंग्रेजों का अंतिम वायसराय लार्ड माउन्टबेटन भी पाकिस्तान के जन्म पर भाषण देने में अकबर को श्रद्धाञ्जलि देना नहीं भूला (देखें, इंडियन एक्सप्रेस, 14 अगस्त, 1947)।
निरंकुश और बर्बर मुगल
जहांगीर तथा शाहजहां–दोनों ही अत्यधिक मतान्ध तथा विलासी थे। दोनों सुरा के साथ सुन्दरी के भी भूखे थे। अकबर के बिगड़ैल पुत्र जहांगीर ने स्वयं लिखा कि वह प्रतिदिन बीस प्याले शराब पीता था। दोनों ने हिन्दू, जैन तथा सिख गुरुओं को बहुत कष्ट दिए थे। ये दोनों अपने पूर्वजों की भूमि नहीं भूले थे। जहांगीर ने इसी कोशिश में कांधार भी गंवा दिया था। शाहजहां ने मध्य एशिया को जीतने में 12 करोड़ रुपए तथा अपार जनशक्ति लगा दी थी, पर एक इंच भूमि तक नहीं जीत सका। शाहजहां की ही मजहबी कट्टरता तथा असहिष्णुता ने औरंगजेब की प्रतिक्रियावादी शासन पद्धति को जन्म दिया था। उसने भारत को दारुल हरब से दरुल इस्लाम बनाने के सभी घिनौने प्रयत्न किए। उसके ही शासन काल में गुरु तेग बहादुर का बलिदान हुआ, गुरु गोविन्द के चारों पुत्रों का बलिदान हुआ था। इसके बावजूद कुछ चाटुकार तथा वामपंथी इतिहासकारों ने उसे 'जिंदा पीर' का भी खिताब दिया है।
यहां पुन: वही प्रश्न है कि औरंगजेब भारत का राष्ट्रीय शासक था अथवा शिवाजी तथा गुरु गोविन्द सिंह राष्ट्रीय महापुरुष थे? महादेव गोविन्द रानाडे ने शिवाजी के जन्म को एक महान संघर्ष तथा तपस्या का परिणाम माना है। वामपंथी इतिहासकार औरंगजेब की तुलना में शिवाजी को राष्ट्रीय मानने को तैयार नहीं हैं। उनके संघर्ष को देश के साथ जोड़ने में उन्हें लज्जा आती है। जबकि सर यदुनाथ सरकार जैसे विश्वविख्यात इतिहासकार का कथन है कि शिवाजी जैसा सच्चा नेता सम्पूर्ण मानव जाति के लिए एक अद्वितीय देन है। यह सर्वविदित है कि शिवाजी द्वारा हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना का लक्ष्य औरंगजेब जैसे 'जार' से भिन्न था तथा राष्ट्रभक्तों का संरक्षण था। शिवाजी का लक्ष्य हिन्दू साम्राज्य की स्थापना, हिन्दुत्व की रक्षा तथा भारतभूमि से विदेशी साम्राज्य को नष्ट करना था। हर समय घोड़े की पीठ पर रहने वाले शिवाजी की तुलना पालकी में बैठकर युद्ध करने वाले औरंगजेब से किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं है।
महान तो ये हैं
इसी भांति गुरु गोविन्द सिंह जी का व्यक्तित्व तथा कृतित्व भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। गुरु गोेविन्द सिंह ने समस्त समाज को, बिना किसी भेदभाव के भयमुक्त तथा नि:स्वार्थ भावना से ओत-प्रोत किया। औरंगजेब को भेजा जफरनामा (विजय पत्र) उनकी वीरता तथा श्रेष्ठता का प्रतीक है। उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना कर सम्पूर्ण राष्ट्र को जीवनदायिनी बूटी दी थी। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मुगल शासक विदेशी, साम्राज्यवादी, क्रूर, लुटेरे तथा मतान्ध थे। उन्हें न भारत भूमि से कोई लगाव था और न ही भारतीयों से। अभारतीयों को राष्ट्रीय शासक कहना सर्वथा अनुचित है तथा देशघातक है। इसके विपरीत राणा प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, राणा सांगा, हेमचन्द्र विक्रमादित्य, रानी दुर्गवती विदेशी शासकों को खदेड़ने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अमर सेनानी थे, जिन्होंने भारत में सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की पुन:स्थापना के लिए अपने जीवन का सर्वस्व बलिदान दिया।
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