लोकरंग में डूबा भादों
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मृदुला सिन्हा
लोकरंग में डूबा भादों
'ई भर बादर, माह भादर, सुन मंदिर मोर
सखी हे हमर दु:खक नहीं ओर'
मैथिली कविराज विद्यापति जी ने उपरोक्त पंक्तियों में बादल और विरहिणी नारी के मन की स्थिति का वर्णन किया है। यूं तो वर्षा ऋतु की पहचान सावन से बनती है। सावन के तीज-त्योहार में प्रकृति और जीव मात्र की स्थिति अन्य मासों से भिन्न होती है। सावन बहार का प्रतीक है। 'सावन हे सखि, सर्वसुहावन' कहा जाता है। झूले पर बैठना, गीत गाना, मेंहदी लगाना, मायके जाना – रस ही रस है। सावन की फुहार जो है। 'सावन झरी लागेला, धीरे-धीरे।'
वर्षा ऋतु का यौवन काल है सावन। लेकिन भादों महीना तो वर्षा ऋतु की प्रौढ़ावस्था है। इसी माह में अधिक वर्षा होने के कारण बाढ़ की विभीषिका से जन जीवन प्रभावित होता है। मानव और पशुओं के जानमाल की भयंकर क्षति होती है। भादों मास की गर्मी (उमस भरी), धूप, चांदनी, अंधेरा सबके सब तीव्रतम रूप में होते हैं। यूं तो भगवान अपनी शैय्या पर असाढ़ मास में ही चले जाते हैं। पर भादों मास में तीज-त्योहारों की कमी नहीं होती। कृष्ण जन्माष्टमी (भादों-कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि) से ही-
'भादों अठमी पख पहुंचल गे सजनी
आधा राति किसुन अवतार'
वर्षा की फुहार के कारण लोकमन में सावन की अधिक रूमानी स्थिति है, पर भादों माह का अस्तित्व कम नहीं होता। इसलिए हमारे ग्राम जीवन में 'आया भादों झूम के' ही होता था। व्रत-त्योहारों से भरा होता है भादों मास। कृष्ण जन्माष्टमी से प्रारंभ होता है इस माह का त्योहार। ग्राम मन में कृष्ण का बाल रूप ही प्रधान होता है। हमारे बचपन में दादी कहती थीं-'आज कृष्ण का जन्मदिन है। हम लोग व्रत रखेंगे।'
'क्यों दादी। जन्मदिन पर उपवास क्यों?' हम लोग पूछते। दादी को यह नहीं पता था कि किसी देवी-देवता के जन्मदिन पर उपवास क्यों रखते हैं। वे हमें बहलातीं-'अरे! आदमी का जन्मदिन नहीं है न! भगवान के जन्मदिन पर उपवास रखकर हम उनके प्रति भक्ति भाव जताते हैं। शुद्ध शरीर और मन से उनकी स्तुति करते हैं?'
हम भाई-बहन भी व्रत रख लेते थे। सुबह बीता नहीं कि पेट में चूहे कूदने लगते थे। दादी समझती थीं। वे रात्रि पूजा की तैयारी में लगी रहतीं। हमें कहतीं-'जाओ दरवाजे पर झूला लगाओ। कृष्ण जी की झांकी बनाओ। भूख भूल जाओगे।'
हम ऐसा ही करते। फूल-पत्ती तोड़ कर लाना। कृष्ण जी की मूर्ति छोटे झूले पर बैठाकर झूलाना, अपने बड़े झूले पर झूलना, फिर क्या था, भूख लगती नहीं थी। पर दादी को हम पर दया आ जाती थी। वे कहतीं-'अब जा नहा धोकर आ। आम, अमरूद, खीरा खा ले।
'क्यों दादी! हम उपवास तोड़ दें?'
'नहीं! फल खाने से उपवास नहीं टूटता। और यह व्रत तो कृष्ण जी का जन्मदिन है। वे तो स्वयं माखन खाते रहते थे।'
'हां दादी! वे तो माखन चुराते भी थे न! फिर तो हम चोरी करके भी खा सकते हैं।' दादी जोरों से हंसती। कहतीं-'नहीं रे। वे चोरी नहीं सिखाते थे। माखन, दूध, दही चुराने का काम तो वे बच्चों के लिए करते थे। ग्वालिन माताएं अपना दूध-दही-माखन बाजार में बेच आती थीं, इसलिए वे चुरा-चुरा कर उनके ही बच्चों को खिला देते थे। ताकि वे माताएं सीख सकें कि उनके बच्चों को भी वे पदार्थ चाहिए।'
हम दादी की कथाएं बड़े ध्यान से सुनते। कृष्ण के बचपन से संबंधित अनेक कथाएं दादी को स्मरण थीं। पर वे गीत की पंक्तियों को गुनगुनातीं, कभी-कभी ऊंचे स्वर में गातीं, फिर उन्हीं गीतों की पंक्तियों से एक प्रसंग निकाल लेतीं। हमें सुनातीं। हम ध्यान मग्न होकर सुनते। भादों महीने में इसलिए भी दादी के संगसाथ का अधिक मौका मिलता कि कभी अधिक वर्षा कभी बाढ़ के कारण गांव की सड़कें, विद्यालय का प्रांगण सब जलमग्न हो जाता। विद्यालय जाते भी कैसे। फिर तो दादी ही हमारी शिक्षिका होती थीं। दादी ने कृष्ण के बचपन का इतना वर्णन सुनाया था कि हमारे प्रौढ़ होने तक कृष्ण हमारी स्मृति में बच्चे ही रहे।
भादों मास का दूसरा महत्त्वपूर्ण व्रत होता है हरितालिका तीज। शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाने वाले इस व्रत को सुहागन औरतें ही मनाती हैं। कहीं-कहीं कुंआरी कन्याएं भी मनाती हैं। इस व्रत की कथा के अनुसार पार्वती ने देश के दक्षिण छोर पर जाकर शिव को प्राप्त करने के लिए कठिनतम व्रत किया था। वे उत्तर दिशा की ओर मुख करके सागर में एक शिला पर खड़ी हो गईं। वहां से वे हिमालय स्थित शिव का ध्यान करके पूजा करतीं। केवल बेलपत्र खाकर रहतीं। इसलिए उनका एक नाम 'अपर्णा' भी है। अंत में शिव उनकी अराधना से प्रसन्न हुए। उनका उनसे विवाह हुआ। वे सात जन्मों तक उसी पति का वरण करती रहीं- 'वरौं शम्भु न त रहहुं कुंआरी'।
दादी शिवपार्वती की भी ढेर सारी कहानियां सुनातीं। मां, चाची, दादी और सभी सुहागनें हरितालिका व्रत करती थीं। मेंहदी लगातीं, आलता रचातीं, सोलहों श्रृंगार करतीं। रात्रि को कथा सुनतीं। सबके मन में अपने पतियों के प्रति अच्छे भाव आते। एक बार की बात है। मेरी मां ने तीज व्रत किया हुआ था। पिताजी की किसी बात पर वे उन्हें डांटने लगीं। दादी ने सुन लिया। बोलीं- 'अब तुम अपना उपवास तोड़ दो।'
'क्यों?' मां ने पूछा।
'इसलिए कि जिसके लिए तुम व्रत कर रही हो, उसे ही भला-बुरा कह गई। फिर व्रत का क्या फल मिलेगा। केवल भूखा रहने से व्रत का उद्देश्य नहीं पूरा होता। मन, वचन, कर्म पर नियंत्रण होना चाहिए। 'शिव-पार्वती की कथा नहीं सुनी? कैसे अस्त-व्यस्त जीवन था शिव का। फिर भी पार्वती सहन करती थीं। स्त्री सहन करती है, इसीलिए तो पुरुष से बड़ी होती है।'
मां ने माफी मांग ली। दिन-रात पतियों से झगड़ने वाली महिलाएं भी हरितालिका व्रत के दिन पतियों की सारी भूलें सह लेती थीं। मेरे मन पर भादों माह की यह बड़ी पहचान बनी हुई है।
तीज के दूसरे दिन या कभी-कभी तीज वाले दिन ही चौथ आ जाती थी। चौथ में गणेश की पूजा होती है। सारे देश में भिन्न-भिन्न प्रकार से गणेश पूजा होती है। बिहार में परिवार का एक व्यक्ति दिनभर भूखे रहकर शाम को चांद का अर्घ्य देता/देती है। आंगन में खड़े होकर चन्द्रमा को अर्घ्य देते हैं। घर का हर व्यक्ति हाथ में फल लेकर ही चांद देखता है। मान्यता है कि चौथ का चांद देखने से कलंक लगता है। हाथ में फल लेकर चांद देखने से वह कट जाता है। यह प्रसंग भी कृष्ण के जीवन से जुड़ा है। व्रत करने वाले कथा नहीं जानते। जैसा होता आया है, वैसा ही करते हैं।
सभी विद्यालयों में गणेश की पूजा होती थी। दूसरे ही दिन से सभी शिक्षक और विद्यार्थी द्वारा घर-घर जाकर एक-एक बच्चे के माता-पिता से मिलते, गीत गाते, अभिभावक द्वारा उपहार लेने की परंपरा थी। आज स्कूलों के सरकारीकरण होने के कारण सब समाप्त हो गया। वह भी अभिभावक-शिक्षक मिलन का अनोखा तरीका था। विद्यार्थियों द्वारा कई प्रकार के गीत गाए जाते थे। जिस बच्चे के दरवाजे गए उसकी आंखों पर पट्टी बांध देते थे, दूसरे बच्चे गीत गाते थे, अपने बच्चे की आंख खुलवाने के लिए माताएं गुरुजी के लिए रुपया, वस्त्र, फल यथायोग्य दान करती थीं। बच्चे की पढ़ाई-लिखाई और गुण-अवगुण के बारे में शिक्षक और अभिभावक के बीच अनुभवों का आदान-प्रदान होता था। यह सिलसिला 15 दिनों तक चलता था।
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