पारदर्शिता के पक्षधर-विजय कुमार
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विजय कुमार
शर्मा जी हमारे मोहल्ले के एक अति जागरूक नागरिक हैं। देश में कोई भी घटना या दुर्घटना हो, उसका प्रभाव उनके मन, वचन और कर्म पर जरूर दिखाई देता है।
15 अगस्त और 26 जनवरी को वे नियम से मोहल्ले में झंडारोहण कराते हैं। चाहे उन्हें पार्क में अकेले ही खड़ा होना पड़े; पर उन्होंने यह नियम कभी नहीं तोड़ा। कहीं बाढ़ या तूफान से जनहानि हो जाए, तो वे चंदा जमा करने निकल पड़ते हैं। उन्हें समाज सेवा की धुन सवार है। यद्यपि कई लोग उन्हें सनकी और झक्की भी कहते हैं; पर शर्मा जी इस ओर ध्यान न देते हुए काम में लगे रहते हैं।
अण्णा हजारे और बाबा रामदेव पिछले कुछ समय से सरकारी कामकाज में पारदर्शिता के लिए आंदोलन चला रहे हैं। शर्मा जी भी उनकी तरह सदा से ही पारदर्शिता के पक्षधर हैं। यह बात दूसरी है कि उन्हें अण्णा और बाबा जैसी प्रसिद्धि नहीं मिली।
शर्मा जी ने जो भी काम किया, जहां भी नौकरी की, वहां इसे जीवन का मूल मंत्र बनाया। यह बात दूसरी है कि इस कारण वे कहीं भी अधिक समय तक टिक नहीं सके। कहीं से वे स्वयं हट गये, तो कहीं से उन्हें हटा दिया गया। इसके बाद भी उन्होंने पारदर्शिता की नीति नहीं छोड़ी। कई लोग तो मजाक में उन्हें शर्मा जी की बजाय 'पारदर्शी जी' कहने लगे।
जब दफ्तर और व्यापार में पारदर्शिता का सूत्र नहीं चला, तो उन्होंने अपने घरेलू जीवन में पारदर्शिता अपनाने का निश्चय किया। सुबह की चाय वे दरवाजे के बाहर खड़े होकर पीने लगे। कुछ दिन तो उन्होंने नाश्ता भी सड़क पर कुर्सी–मेज डालकर ही किया; पर एक दिन उसमें शामिल होने कुछ कुत्ते भी आ गये। मजबूरी में उन्हें अंदर जाना पड़ा।
इस पर भी शर्मा जी ने पारदर्शिता का सूत्र नहीं छोड़ा। अब वे मेज पर कप–प्लेट के साथ डंडा भी रखने लगे। एक दिन कान से मोबाइल लगाये एक नौजवान मोटर साइकिल वाला मेज से टकरा गया। शर्मा जी को चोट तो लगी ही, सारी खाद्य सामग्री भी बेकार हो गयी। चाय से उस युवक के कपड़े खराब हो गये। अत: वह गाली बकने लगा। शर्मा जी ने उसके सिर पर डंडा मार दिया।
डंडा लगते ही वह युवक भड़क गया। इससे बात बढ़ते हुए हाथ और लात तक जा पहुंची। गुत्थमगुत्था होते ही शर्मा जी समझ गये कि वह युवक उन पर भारी पड़ रहा है, अत: जैसे–तैसे जान छुड़ाकर वे घर में घुस गये। पत्नी को दुबारा नाश्ता बनाने को कहा, तो उसने साफ मना कर दिया। बेचारे शाम तक भूखे बैठे रहे, तब से उन्होंने खानपान में पारदर्शिता का विचार त्याग दिया।
फिर उन्हें एक और धुन सवार हुई। वे खुली छत पर जाकर नहाने लगे। इस पर पड़ोसियों ने आपत्ति की। मजबूरी में यह विचार भी उन्हें छोड़ना पड़ा। एक दिन वे बहुत पुराने, लगभग पारदर्शी हो चुके कपड़े पहनकर घूमने निकल पड़े। कई लोग यह देखकर हंसने लगे, तो कुछ ने शर्म से मुंह घुमा लिया। एक पुरातत्वप्रेमी इतिहासकार उन्हें हड़प्पा की खुदाई से निकले कपड़े समझकर मुंहमांगे दाम पर खरीदने की बात करने लगा।
मोहल्ले के कुछ शरारती बच्चे ताली बजाते और हो–हो करते हुए उनके पीछे लग गये। एक बच्चा न जाने कहां से एक टूटा कनस्तर ले आया। उसे बजाने से बच्चों का वह हुजूम एक जुलूस की तरह लगने लगा। हंगामा होता देख पुलिस वालों ने उन्हें पागल समझकर पकड़ लिया। कुछ जान–पहचान वालों ने बीच–बचाव करा लिया, वरना वे उन्हें पागलखाने ले ही जा रहे थे। शर्मा जी के बच्चों को पता लगा, तो उन्होंने उनके सब पुराने कपड़े फाड़कर आग में डाल दिये। पारदर्शिता के जंगल में शर्मा जी फिर अकेले रह गये।
पिछली 26 जनवरी को राष्ट्रपति जी ने कई समाजसेवियों को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किया। दूरदर्शन पर उनके खिले चेहरे बार–बार दिखाये गये। पत्र–पत्रिकाओं में भी उनके चित्र छपे। यह देखकर शर्मा जी को समाज सेवा की धुन सवार हो गयी। अब सुबह से शाम तक वे समाज सेवा में सक्रिय रहते हैं।
इस सक्रियता का एक कारण और भी है। वे दुकान पर जाते हैं, तो बच्चे वहां बैठने नहीं देते। शर्मा जी पारदर्शी ढंग से व्यापार करना चाहते हैं; पर उन्हें कौन समझाए कि देश को आजाद हुए 65 साल हो गये। नेहरू वंश की कृपा से भारत की नदियों में अब पानी की बजाय भ्रष्टाचार का कीचड़ अधिक हो गया है। अब जमाना केंचुए जैसी धीमी चाल का नहीं, बल्कि खरगोश जैसी तेजी का है।
शर्मा जी की आंखों के सामने उनके बच्चे जब मिलावट करते हुए एक रुपये की चीज पांच रुपये में बेच देते हैं, तो उनका मुंह खुला रह जाता है। वे कुछ बोलना चाहते हैं; पर बच्चों के भय से कह नहीं पाते। शर्म से उनकी आंखें झुक जाती हैं। इसलिए जब कभी वे दुकान पर जाते हैं, तो बच्चे किसी न किसी बहाने उन्हें घर भेज देते हैं।
लेकिन घर पर भी उन्हें आराम नहीं मिलता। वे कभी–कभी रसोई में जाकर पारदर्शिता की जांच करने लगते हैं। इससे उनकी श्रीमती जी नाराज हो जाती हैं। वे उन्हें दो–चार घंटे दुकान पर जाकर बच्चों की सहायता करने को कहती हैं। एक बार रसोई में आम के अचार में तेल और मसालों की जांच करते हुए मर्तबान गिर कर टूट गया। अपनी कई महीने की मेहनत मिट्टी में मिली देखकर श्रीमती जी का पारा चढ़ गया। उन्होंने धक्का देकर शर्मा जी को रसोई से निकाल दिया। तब से उन्होंने रसोई में न घुसने की कसम खा ली।
शर्मा जी काफी समय तक चक्की के इन दो पाटों के बीच पिसते रहे। एक बार किसी आंदोलन के चक्कर में उन्हें जेल जाना पड़ा। दसवें दिन पत्नी और बच्चे मिलने आये। उन्होंने कहा कि आपके न होने से अब घर और दुकान दोनों ठीक चल रहे हैं। आप जब तक चाहें, जेल में ही रहें। शर्मा जी ने यह सुनकर सिर पीट लिया। अब वे जाएं तो कहां जाएं?
इसीलिए जेल से आकर उन्होंने पूरा समय समाज सेवा में ही लगाने का संकल्प कर लिया। बस, तब से वे इसी में जुटे हैं। सुबह नाश्ता कर निकलते हैं, तो रात को ही घर लौटते हैं। इससे बच्चे भी खुश हैं और पत्नी भी। पीर–बावर्ची भिश्ती–खर जैसा आदमी मिलने से मोहल्ला कल्याण सभा वाले भी गद्गद हो गये, चूंकि शर्मा जी हर काम करने को तैयार रहते थे।
लेकिन अफसोस, यहां भी बात लम्बे समय तक नहीं चल सकी। शर्मा जी आय–व्यय और चंदे आदि में पूरी पारदर्शिता चाहते थे; पर मोहल्ला कल्याण सभा वाले इतने पारदर्शी नहीं थे। नाराज होकर शर्मा जी ने 'मोहल्ला उद्धार सभा' बना ली। आजकल वे उसकी सदस्यता में जुटे हैं।
देश के राजकाज में पारदर्शिता लाने के लिए पिछले साल बाबा रामदेव, अण्णा हजारे और उनके साथ देश के लाखों लोगों ने सच्चे मन से उपवास किया था। साध्वी उमा भारती ने गंगा की रक्षा के लिए, तो नरेन्द्र मोदी ने राज्य में सद्भावना फैलाने के लिए उपवास किया। नरेन्द्र मोदी का विरोध करने के लिए गुजरात के हजारों कांग्रेसी भी भूखे रहे। कुछ प्रसिद्ध लोगों ने अनशन किया, तो कुछ लोगों ने अनशन से प्रसिद्धि पाई।
यों तो शर्मा जी 'भूखे भजन न होय गोपाला, ये ले अपनी कंठी माला' के अनुयायी हैं; पर देश के एक जागरूक नागरिक एवं सक्रिय समाजसेवी होने के नाते उन्होंने भी उपवास का निश्चय किया।
इन दिनों वे मोहल्ला कल्याण सभा के काम में पारदर्शिता लाने के लिए 'मोहल्ला उद्धार सभा' के बैनर तले चौराहे पर तख्त डालकर उपवास कर रहे हैं। उन्होंने उस चौक को ही मिनी जंतर–मंतर घोषित कर दिया है; पर न मोहल्ले वालों का ध्यान उनकी ओर है और न मीडिया का। उनके डेरे–तम्बू और दिन में कई बार होने वाले भाषण से बाजार में दुकानदारों को भी परेशानी हो रही है।
पिछले तीन दिन से उनकी आंतें कुलबुला रही हैं। पेट में चूहे कबड्डी खेल रहे हैं। आंखें गढ्डे में धंसी जा रही हैं। रक्तचाप और शुगर का स्तर डांवाडोल हो रहा है। चौराहे की हलचल में दिन तो कट जाता है; पर रात को अकेले सोते हुए डर लगता है। इसलिए अब जैसे भी हो, वे अनशन तोड़ना चाहते हैं; पर बिना किसी आश्वासन के ऐसा करने से रही–सही प्रतिष्ठा के भी चले जाने का भय है।
पत्नी और बच्चे कई बार खाना लेकर आये; पर पारदर्शिता के पक्षधर शर्मा जी मोहल्ले और मीडिया वालों की उपस्थिति में, किसी बच्चे के हाथ से नींबू पानी पीकर अण्णा हजारे की तरह अनशन तोड़ना चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि इस अवसर पर कुछ राजनेता भी उपस्थित रहें, तो और अच्छा रहेगा।
15 अगस्त फिर आ रहा है। कृपया अनशन तुड़वाकर पारदर्शी जी की सहायता करें, जिससे वे पार्क में झंडा फहरा सकें।
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