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चुनौतियों से जूझते जोशीले युवा-बालेन्दु शर्मा दाधीच

by
Aug 16, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Aug 2012 19:39:15

 

अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों के दौरान उमड़ी जोशीले युवाओं की भीड़ से इस धारणा पर तो स्थायी विराम लग जाना चाहिए कि आज के युवा अपने समय, समाज और राजनीति से कटे हुए हैं या बेपरवाही की शीतनिद्रा से ग्रस्त हैं। पिछले एक साल की घटनाएं बताती हैं कि भारतीय युवक न सिर्फ समकालीन समस्याओं, चुनौतियों और गिरावटों से बाखबर है, बल्कि इनसे छुटकारा पाने के लिए बेचैन भी है। लेकिन उसके सामने दिशा स्पष्ट नहीं है और न ही उनकी अपरिमित शक्ति का देश हित में सार्थक इस्तेमाल करने का कोई सुस्पष्ट जरिया ही उपलब्ध है। जिस दिशाहीनता को भोगने के लिए वह मजबूर है, वह उसकी अपनी पैदाइश नहीं है, वह अपनी नई पीढ़ी को उन लोगों का 'उपहार' है, जो स्वप्न तो राष्ट्र के लिए देखते हैं लेकिन जब उन पर अमल की बारी आती है तो निजी स्वार्थों को वरीयता देते हैं। जो यह उपदेश तो खूब देते हैं कि देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना जरूरी है, उसे सुदृढ़ व सुरक्षित बनाने के लिए अनुशासन, कड़ी मेहनत, बलिदान की भावना और नि:स्वार्थ योगदान जरूरी है लेकिन जब इन्हीं उपदेशों पर अमल की बारी आती है तो दूसरों की ओर इशारा कर देते हैं। कब ऐसे लोग सामने आएंगे जो भ्रष्टाचार, जुल्म, अत्याचार, शोषण, अमानवीयता, भेदभाव और अकर्मण्यता जैसी सामाजिक रुग्णताओं के विरुद्ध मजबूती के साथ खड़े होंगे और देश के पचास करोड़ से ज्यादा युवाओं के लिए मिसाल बनेंगे? जिनके लिए देश हित निजी हित से ऊपर होगा, सिर्फ कथनी में ही नहीं बल्कि करनी में भी। जो युवा शक्ति के अनंत उफान को सार्थक दिशा में मोड़ने की दृष्टि और जज्बा दिखाएंगे।

पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने हाल ही में भारत की सबसे बड़ी संपदाओं को गिनाते हुए कहा था कि एक तो इस राष्ट्र को प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों की सौगात मिली है, दूसरे पिछले साठ साल में उसने काफी तरक्की की है और सबसे ऊपर है हमारे 54 करोड़ युवाओं की ताकत। यदि समाज के इस तबके को सशक्त बनाया जाए तो मुझे विश्वास है कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य सन् 2020 से भी पहले हासिल किया जा सकता है। डा. कलाम के शक्तिशाली विचारों से असहमत होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन प्रश्न उठता है कि हम अपनी युवा पीढ़ी को आखिर सशक्त कब बनाएंगे? कब उसे सार्थक शिक्षा, कौशल, प्रशिक्षण, नवाचार, स्वरोजगार, व्यवसाय और रोजगार के सही अवसर मुहैया कराएंगे? चौवन करोड़ युवाओं वाला यह देश आखिर कब ओलंपिक खेलों में बीस-बीस लाख की आबादी वाले देशों से पिछड़ने के अभिशाप से मुक्त होगा? जनसंख्या के मामले में दूसरे और युवाओं की संख्या के लिहाज से पहले स्थान पर आने वाला यह राष्ट्र आर्थिक तरक्की, मानव विकास, भ्रष्टाचार-निरोध, खेलकूद जैसी तालिकाओं में निचले स्थानों पर अवतरित होने की विडंबना से कब आजाद होगा?

जवान भारत

प्रश्न उठता है कि दुनिया भर में इन दिनों भारत के पक्ष में बैठने वाले जिस सबसे महत्वपूर्ण पहलू की चर्चा की जा रही है उसके प्रति हम खुद कितने जागरूक हैं? जिस देश में जोश, यौवन और संकल्प से भरे 54 करोड़ सुशिक्षित युवाओं की कतार मौजूद हो, उसके लिए क्या सीमाएं और क्या रुकावटें! चीन, अमरीका, जापान और रूस जैसे राष्ट्र जहां एक ओर बुढ़ा रहे हैं, वहीं भारत जवान हो रहा है। एक अच्छा और दृष्टिवान नेतृत्व हो तो इस अद्भुत शक्ति के बल पर क्या कुछ नहीं किया जा सकता? उद्योग-धंधों, सर्विस सेंटरों, सरकारी दफ्तरों, कारोबार, राजनीति, शिक्षा, विज्ञान, सुरक्षा, खेल-कूद जैसे क्षेत्रों की शक्ल बदल सकती है। भारत उत्पादन और सेवा क्षेत्र की वैश्विक राजधानी बन सकता है। पूरी दुनिया को कुशल प्रोफेशनल्स मुहैया कराने वाला जरिया बन सकता है यह देश, क्योंकि आज हमारे पास रोजगार लायक 54 करोड़ युवा मौजूद हैं जो 2030 तक 65 करोड़ तक पहुंच जाएंगे। गोल्डमैन सैक्स के अनुसार सन् 2020 में भारतीय नागरिकों की औसत आयु होगी 29 साल, जबकि चीनियों की 37 और यूरोपियों की 49 साल होगी। युवा शक्ति के जरिए अर्थव्यवस्था और तकनीक में नई ऊंचाइयां छू सकते हैं हम। लेकिन कहां है वह नेतृत्व जिसके पास इतनी अपार जनशक्ति का उपयोग करने की दृष्टि और इच्छाशक्ति हो? और हमारा युवा वर्ग स्वयं अपनी शक्ति तथा दायित्वों के प्रति कितना जागरूक और तैयार है?

युवा और बाजार

यह सच है कि आज का युवा शिक्षा, तकनीक और संसाधनों के लिहाज से पहले की तुलना में अधिक सशक्त है।अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर भारत के बदलते दर्जे ने उसका आत्मविश्वास भी बढ़ाया है और बाजार में उभरते अवसरों के प्रति आकर्षण भी पैदा हुआ है। शिक्षा और रोजगार के प्रति उसकी सोच बदली है। अब बीए करके किसी दफ्तर में लग जाना मात्र उसका सपना नहीं है। सरकारी नौकरी पाना आज कल जैसा आकर्षक लक्ष्य नहीं रहा, जहां काम न करते हुए वेतन लेते रहने की आजादी है। आज का युवा तो काम करना चाहता है। वह देश की तरक्की, उसकी अर्थव्यवस्था में हाथ बंटाना चाहता है। कितने ही युवा नौकरियां छोड़कर अपने निजी कामधंधे शुरू करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। डा. कलाम का यह कथन उनका मार्गदर्शन करता है कि नौकरी पाना तुम्हारा उद्देश्य नहीं होना चाहिए बल्कि खुद को इस योग्य बनाओ कि दूसरों को नौकरी दे सको। लेकिन उन सबके लिए इतने सारे अवसर भी तो पैदा करने होंगे। अपने युवाओं को संरक्षण भी तो देना होगा। इस संदर्भ में चीन के उदाहरण का जिक्र किया जा सकता है। इंटरनेट के क्षेत्र में गूगल, फेसबुक, अमेजन जैसी बड़ी-बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियां हैं। वे भारत सहित पूरी दुनिया में बेरोकटोक पांव पसार रही हैं। लेकिन चीन ने महसूस किया कि इंटरनेट के क्षेत्र में उभरता अरबों डालर का स्थानीय बाजार किसी बाहरी कंपनी के हाथ में क्यों जाए? उसने विदेशी कंपनियों को हमारी तरह खुली छूट देने की बजाए स्थानीय युवा व्यवसायियों की इंटरनेट कंपनियों को प्रोत्साहित किया। आज गूगल के विकल्प बाइदू की बाजार कीमत चालीस अरब डालर के करीब (दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा) है तो ट्विटर के विकल्प सीना को 3 अरब डालर (15000 करोड़ रुपए) का आंका गया है। वे बहुराष्ट्रीय इंटरनेट दिग्गजों को टक्कर ही नहीं दे रहे, कई जगह उन पर भारी भी पड़ रहे हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि चीन ने अपने युवा उद्यमियों को स्थानीय बाजार पर पकड़ बनाने का अवसर दिया, जबकि हमने अपने युवाओं को विदेशी कंपनियों के लिए बाजार में तब्दील कर दिया।

जुझारू जापान

युवाओं की बदौलत भारत को जो जनसंख्यामूलक लाभ मिल रहा है, वह सन् 2050 तक ही रहेगा। उसके बाद हमारे यहां युवाओं की संख्या में गिरावट आने लगेगी। फिर भी युवा शक्ति का इस्तेमाल करने के लिए हमारे पास करीब-करीब चालीस साल है। इस दौरान भारत का युगांतरकारी परिवर्तन संभव है। सन् 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने और दूसरे विश्वयुद्ध में अपमानजनक पराजय झेलने के बाद जापान हर लिहाज से शक्तिहीन और पंगु हो चला था। लेकिन अपने राष्ट्रीय संकल्प और युवाओं की ताकत के बल पर वह एक बार फिर उठ खड़ा हुआ। छोटे आकार और छोटी जनसंख्या वाले इस देश ने अपने बड़े हौंसलों और अटूट संकल्प के साथ इतनी तरक्की की कि देखते ही देखते दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन गया। अपनी पराजय के दस साल के भीतर उसने बुलेट ट्रेन बना ली और उन्नीसवें साल में ओलंपिक खेलों का आयोजन कर लिया। जापान के पास न तो हम जैसा संख्याबल था और न ही हमारे जितने प्रचुर प्राकृतिक संसाधन। उसने जो कुछ किया, मेहनत, लगन, संकल्प और प्रतिभा के बल पर किया। हम तो उसकी तुलना में कहीं अधिक सौभाग्यशाली हैं। और फिर हमारे पास उससे कहीं अधिक समय है। समृद्ध गौरवशाली इतिहास और आदर्श, प्रेरणादायी व्यक्तित्व भी हमारी मजबूती हैं। युवाओं को चाहिए कि स्वामी विवेकानंद, जिनके जन्मदिन को हम राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं, के शब्दों को ब्रह्मवाक्य मानकर देश की शक्ल बदलने में जुट जाएं, जिन्होंने कहा था- उठो, चलो और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य हासिल न हो जाए। और फिर यह भी कि सारी शक्ति तुम्हारे भीतर समाहित है। अपने में भरोसा रखो, तुम कुछ भी करने में सक्षम हो।

शिक्षा में परिवर्तन

हमारे युवाओं को अपनी शक्ति का अहसास अवश्य है। टाइम्स ऑफ इंडिया के सर्वेक्षण में सवाल पूछा गया था कि भारत की सबसे बड़ी शक्ति क्या है। इसके जवाब में 61 प्रतिशत युवाओं ने कहा- युवा शक्ति। यह उनके आत्मविश्वास को दिखाती है। सोलह-सोलह प्रतिशत ने भारत की उभरती अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र को देश की सबसे बड़ी शक्ति माना। युवा शक्ति में युवाओं का गहरा विश्वास एक अच्छी चीज है लेकिन यदि देश को अपने संसाधनों का बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के साथ इस्तेमाल करना है तो युवाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के अवसर मुहैया कराने होंगे। शुरुआत राजनीति से ही हो सकती है, जहां जीवन का सातवां और आठवां दशक व्यतीत कर रहे राजनीतिज्ञ सेवानिवृत्त होने के लिए तैयार ही नहीं हैं। यदि एक नेता एक लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व पिछले चार या पांच दशक से कर रहा है तो यह उसकी लोकप्रियता तथा राजनैतिक कौशल का उदाहरण तो अवश्य है, लेकिन क्या उस क्षेत्र के लाखों लोगों, विशेषकर प्रतिभाशाली युवाओं के साथ नाइंसाफी नहीं? अपने चुनाव क्षेत्र में जो लोग पांच-पांच दशक तक किसी दूसरे शख्स को उभरने ही नहीं देते वे आखिर किस आधार पर युवा शक्ति के बल पर देश का चेहरा बदलने की बात करते हैं।

यूं राजनीति तो एक उदाहरण मात्र है। युवाओं को उनकी सही जगह न मिलने की वजहें और भी हैं। हमारी शिक्षा प्रणाली, जिसका केंद्रीय उद्देश्य छात्रों को कर्मचारी बना देने तक सीमित है, इस राष्ट्र की आधुनिक महत्वाकांक्षाओं तथा शक्तियों के साथ न्याय नहीं कर पा रही। इसमें आमूलचूल परिवर्तन किए जाने चाहिए जिससे न सिर्फ हर छात्र को उसकी दिलचस्पी तथा प्रतिभा के अनुरूप अध्ययन करने का अवसर मिले, बल्कि रट्टे वाली पढ़ाई की बजाए व्यवसाय तथा कौशल आधारित प्रायोगिक शिक्षा ग्रहण करने का मौका भी मिले। अन्यथा हमारे पास डिग्रीधारी तो बहुत होंगे लेकिन कुशल पेशेवर नहीं। हाल ही में एक युवक से मुलाकात हुई जो हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर चुका था, लेकिन अपने शहर का नाम भी सही ढंग से नहीं लिख पाता था, वह भी हिंदी में। ऐसी शिक्षा इस देश को क्या देगी? जिन देशों ने औद्योगिक तथा वैज्ञानिक तरक्की की है, वहां डिग्री पर नहीं ज्ञान और विशेषज्ञता पर ध्यान दिया जाता है। हमें भी जल्दी से जल्दी अपना रुख बदलने की जरूरत है।

आजादी के साढ़े 65 साल बाद भी भारत में साक्षरता का स्तर सिर्फ 63 फीसदी है। जिस चीन को हम अपना प्रतिद्वंद्वी मानते हैं, वहां यही आंकड़ा 93 प्रतिशत है। शोध छात्रों की संख्या में तुलनात्मक वृद्धि के आंकड़े देखिए-राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की रपट के अनुसार चीन में शोध छात्र 85 प्रतिशत बढ़े हैं तो भारत में सिर्फ 20 प्रतिशत। चीन में हर साल छह लाख से ज्यादा छात्र इंजीनियरिंग में स्नातक डिग्री लेते हैं जबकि भारत में 4.65 लाख के करीब। ऊपर से हमारे यहां शिक्षा की गुणवत्ता वांछित स्तर की नहीं है। अनेक देश भारत से उच्च अध्ययन के लिए आए छात्रों को अपने यहां दोबारा परीक्षा पास करने के लिए कहते हैं। प्राथमिक विद्यालयों से लेकर स्नातकोत्तर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से लेकर व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों तक में पढ़ाई की गुणवत्ता के साथ-साथ बुनियादी सुविधाओं और स्थितियों में भी तो सुधार होना चाहिए। शिक्षा में होने वाले कोई भी बदलाव नए जमाने की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किए जाने चाहिए। अच्छे शिक्षण संस्थानों की संख्या कम से कम इतनी जरूर हो कि कोई भी प्रतिभाशाली और काबिल छात्र इंजीनियरिंग, प्रबंधन, चिकित्सा, लेखा और पेशेवराना विशेषज्ञताओं से जुड़े दूसरे पाठ्यक्रमों में प्रवेश से वंचित न हो। अपने छात्रों को सक्षम तो बनाइए, आगे की राह वे खुद निकाल लेंगे। और फिर नौकरी की बजाए उन्हें नवाचार (इनोवेशन) और अपना काम खड़ा करने के लिए प्रेरित कीजिए। आज उच्च शिक्षा और रोजगार में भ्रष्टाचार का नासूर खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। अपना काम खोलने के लिए बैंकों से ऋण मिलना लगभग असंभव है।

ढांचागत विकास

देश में ढांचागत विकास ने धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ी है। लेकिन सरकारी अनिश्चितता और ठहराव हमारी अर्थव्यवस्था की रफ्तार में बड़ी बाधा बन रहे हैं। ढांचागत विकास और अर्थव्यवस्था एक-दूसरे के साथ सीधे जुड़े हुए हैं। इनमें से एक बढ़ेगा तो दूसरा भी खुद-ब-खुद बढ़ेगा। लेकिन नीतिगत स्तर पर संदेह और स्थिरता आ गई तो पहले का किया धरा भी व्यर्थ हो जाएगा। आवश्यकता है कि आर्थिक विकास की प्रक्रिया को फिर से गति दी जाए और सड़कों, परिवहन व्यवस्था, बिजली, शिक्षण संस्थानों, बंदरगाहों, हवाई अड्डों, बाजारों, व्यावसायिक केंद्रों, कारखानों आदि के विकास की अलख जगे। इन पर खर्च होने वाला धन व्यर्थ नहीं जाएगा। इस देश के सत्ताधारियों को चाहिए कि भविष्य की खातिर अब तो निर्णायक कदम उठाएं। बदल दीजिए आज की सुस्त, यथास्थितिवादी तथा भ्रष्ट कार्य-संस्कृति को, और खोल दीजिए अवसरों के दरवाजे। खड़ी होने दीजिए गांव-गांव, कस्बे-कस्बे और शहर-शहर से उद्यमियों, विशेषज्ञों और कारोबारियों की कतारें और फिर देखिए कि हमारी अर्थव्यवस्था किस तरह छलांग लगाती है।

और अंत में, आधुनिकता, पाश्चात्य सभ्यता, विदेशी भाषाओं और जीवन मूल्यों से अच्छे तत्वों को ग्रहण करना तो ठीक है किंतु उनके आगे नतमस्तक हो जाना ठीक नहीं है। अपनी सभ्यता, संस्कृति, राष्ट्र, धर्म और भाषा हमारी पहचान हैं। उन्हें हमारे रक्त में बहते रहना चाहिए, हमारे हृदय में धड़कते रहना चाहिए। हमारे युवक अपनी जड़ों से न कट जाएं, अपने संस्कारों से कटी पतंग की तरह विमुक्त न हो जाएं, यह सुनिश्चित करना सरकार, समाज और व्यक्ति के स्तर पर हमारा साझा सरोकार होना चाहिए। उधार के संस्कारों में विश्वास रखने वाले लोग न यहां के रहते हैं और न ही वहां के।

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