भारत की अखंडता और सुरक्षा को मिल रहीं अनेक चुनौतियों में सबसे ज्यादा भीषण चुनौती कश्मीर घाटी में पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी और जिहादी आतंकवादी दे रहे हैं। हमारी अपनी ही भूलों और कमजोरियों की वजह से भारत राष्ट्र कश्मीर घाटी में अपनी पहचान खो देने के कगार पर आ गया है। विदेश प्रेरित तत्व भारत सरकार, संसद, सेना और संविधान को चुनौती दे रहे हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि समस्त देश को दी जा रही इसी गंभीर चुनौती पर सरकारी वार्ताकारों ने मोहर लगाकर देशद्रोहियों की विजय सुनिश्चित करने का दुस्साहस किया है।
अलगाववादीमनोवृत्तिपरमोहर
राष्ट्रीय स्वाभिमान की अनदेखी करके इन वार्ताकारों ने भारत के राष्ट्रपति और राष्ट्र ध्वज के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। देश के संवैधानिक ढांचे अर्थात् एक विधान, एक निशान और एक प्रधान की मूल भावना को ही चुनौती दे दी गई है। वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर के भारत में अंतिम विलय को नकार कर इस प्रदेश को एक स्वतंत्र इकाई मान लिया है। इनकी नजर में यह प्रांत विवादित क्षेत्र है।
वोट बैंक की घटिया राजनीति, मजहबी तुष्टीकरण, सत्तालोलुप समझौतावाद, घुटने टेक राजनीतिक इच्छाशक्ति और समस्या की जड़ को न समझने की देशघातक मनोवृत्ति इत्यादि कारणों से जम्मू-कश्मीर की अनेकविध समस्याएं पिछले 64 वर्षों से लटकती चली आ रही हैं। इस कालखंड में अनेक वार्ताओं, समझौतों और प्रतिनिधिमंडलों द्वारा समाधान खोजने के सभी प्रयास विफल हो गए।
वास्तविकता तो यह है कि जम्मू-कश्मीर के असली मर्ज को आज तक किसी ने राष्ट्रीय एकात्मता और सुरक्षा के संदर्भ में समझने का प्रयास ही नहीं किया और अगर किसी को इस मर्ज की समझ आ भी गई तो उसने राष्ट्रहित को नजरअंदाज करके आंखें मूंद लीं। यही कारण है कि मर्ज की हर दवा बेअसर होती चली गई।
कश्मीर समस्या की जड़ों में एक ऐसा मजहबी जुनून, कट्टरवादी मानसिकता और कुंठित आस्था है जो दूसरे लोगों को सामाजिक अधिकारों और धार्मिक विश्वासों, यहां तक कि अपनी परंपराओं के अंतर्गत खुले माहौल में जीने का हक भी नहीं देते। यही वजह है कि भारत की सभी सरकारें कश्मीर समस्या के समाधान के लिए हवा में लाठियां भांजती रहीं और उधर इस सीमावर्ती प्रदेश में क्षेत्रीय पक्षपात, जातिगत भेदभाव, आर्थिक विषमता, अलगाववाद और जिहादी आतंकवाद का आकार बढ़ता चला गया।
यह कैसी विडम्बना है कि कश्मीर घाटी में भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद, संविधान, सेना और जनता सभी को विदेशी माना जाता है। धारा 370 के अंतर्गत धोखाधड़ी से बनी इन अलगाववादी परिस्थितियों को बदलने के स्थान पर भारत सरकार और उसके द्वारा मनोनीत वार्ताकार अलगाववादियों और कट्टरवादी राजनीतिक दलों के प्रभाव/दबाव में आकर जम्मू-कश्मीर को 1953 की पहले की राजनीतिक व्यवस्था में लाकर स्वायत्तता प्रदान करने की सिफारिशें कर रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत, विदेशी हमलावरों की तहजीब की लकीरों पर चल रहे वर्तमान पृथकतावादी तत्वों की कट्टरवादी मानसिकता और अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल की जा रही स्वार्थी राजनीति को समझे बिना जम्मू-कश्मीर की जटिल समस्याओं का समाधान निकल ही नहीं सकता। सरकारी वार्ताकारों ने भी समस्या का वही रास्ता खोजने का प्रयास किया है जिस पर चलने से यह समस्या सुलझने की बजाय गहराती चली जा रही है। ऐसे ही कुछ खतरनाक सुझावों पर ध्यान देना आवश्यक है।
खतरनाकसुझावोंकापुलिंदा
सन् 1952 के दिल्ली समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद जम्मू-कश्मीर में लागू हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेदों और सभी केन्द्रीय अधिनियमों की समीक्षा के लिए एक संवैधानिक समिति का गठन किया जाए। इस संवैधानिक समिति को प्रदेश के दोहरे चरित्र अर्थात् 'भारत संघ की घटक इकाई तथा विशेष दर्जा' और 'जम्मू-कश्मीर के नागरिक प्रदेश और भारत दोनों के नागरिक हैं,' को ध्यान में रखना चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद 370 के शीर्षक और भाग 21 के शीर्षक से अस्थाई शब्द हटाकर उसके स्थान पर विशेष शब्द रखा जाए। भारत का राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर की सरकार द्वारा सुझाए गए व्यक्ति को ही राज्यपाल नियुक्त करेगा।
अखिल भारतीय सेवाओं के लिए जा रहे अधिकारियों का अनुपात धीरे-धीरे कम किया जाएगा और राज्य की सिविल सेवा से लिए जाने वाले अधिकारियों की संख्या बढ़ाई जाएगी।
अंग्रेजी में 'गवर्नर' और 'चीफ मिनिस्टर' के नाम जैसे आज हैं वैसे ही रहेंगे परंतु उर्दू प्रयोग के दौरान उर्दू के पर्यायवाची शब्द इस्तेमाल किए जाएंगे (सदरे रियासत और वजीरे आजम)। हिन्दी नामों (राज्यपाल और मुख्यमंत्री) का कोई जिक्र नहीं किया गया है।
भविष्य में भारत की संसद जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए कोई कानून तब तक नहीं बनाएगी जब तक इसका संबंध देश की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा से और इसके महत्वपूर्ण आर्थिक हित, विशेषत: ऊर्जा और जल संसाधनों की उपलब्धता के साथ न हो।
पी.एस.ए (लोक सुरक्षा अधिनियम) का संशोधन और डी.ए.(डिस्टर्ब्ड एरिया एक्ट) की वापसी और एएफएसपीए (सशक्त सेना विशेषाधिकार अधिनियम) की तुरंत समीक्षा होनी चाहिए।
नियंत्रण रेखा के आर-पार फंसे हुए उन कश्मीरियों की वापसी सुनिश्चित करनी चाहिए जो शस्त्रों के प्रशिक्षण के लिए बाहर चले गए थे परंतु अब शांतिपूर्वक वापस आना चाहते हैं।
जितना शीघ्र हो सके भारत सरकार और हुर्रियत कांफ्रेंस (पाक समर्थक) के बीच संवाद प्रारंभ किया जाए। इस संवाद को अबाध बनाया जाए।
संवैधानिक समिति द्वारा तैयार की गई सिफारिशों और भारत सरकार-हुर्रियत के मध्य संवाद से उभरे बिन्दुओं पर चर्चा के लिए पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित (अधिकृत) जम्मू-कश्मीर को भी शामिल किया जाए। (उल्लेखनीय है कि वार्ताकारों ने पाक अधिकृत कश्मीर को अपनी रपट में पाक प्रशासित जम्मू कश्मीर कहा है।)
इस्लामीकट्टरताकीअनदेखी
इस रपट में पाकिस्तान की ओर से हो रही सशस्त्र घुसपैठ, प्राय: सभी मुस्लिम देशों की सहायता से जम्मू-कश्मीर में सक्रिय हिंसक जिहादी आतंकवाद और भारतभक्त कश्मीरी हिन्दुओं के बलात् विस्थापन से प्राय:आंखें मूंद ली गई हैं। वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर की वर्तमान विस्फोटक हिंसक गतिविधियों के लिए भारत सरकार, संविधान और सेना को ही दोषी मानकर पाकिस्तान, अलगाववादियों, आतंकवादियों और स्वायत्तता/स्वशासन के झंडाबरदारों को दोषमुक्त कर दिया है।
वास्तविकता यह है कि सरकारी वार्ताकारों ने उन भारत विरोधी अलगाववादी संगठनों, आतंकवादी गुटों और उन कट्टरवादी मजहबी संगठनों के एजेंडों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है जिनके नेताओं ने उनसे बात करना भी उचित नहीं समझा। वैसे भी ये सभी जम्मू-कश्मीर के मात्र 5 जिलों के दस प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्होंने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा।
यह सारी रपट पाकिस्तान की कश्मीर नीति, पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के कश्मीर फार्मूले, मनमोहन-मुशर्रफ वार्ता, सत्ताधारी नेशनल कांफ्रेंस का घोषित एजेण्डा स्वायत्तता, पीडीपी के दलीय दस्तावेज 'सेल्फ रूल' और हुर्रियत कांफ्रेंस के तथाकथित उदारवादी नेता मीर वाइज उमर फारुख के दिमाग की उपज 'यूनाइटेड स्टेट्स आफ कश्मीर' पर आधारित है। वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर में व्याप्त जिहादी आतंकवाद, क्षेत्रीय भेदभाव, पाक अधिकृत कश्मीर से आए हिन्दुओं के अधिकारों के हनन और कश्मीर घाटी से हिन्दुओं के जाति आधारित विस्थापन की वास्तविक पृष्ठभूमि (इस्लामिक फंडामेंटलिज्म) की जानकारी लेने की रत्ती भर भी कोशिश नहीं की।
'दोषमुक्त' पाकिस्तान
कश्मीर समस्या से संबंधित सभी मामलों में पाकिस्तान को शामिल करने का सुझाव देकर वार्ताकारों ने भारत और पाकिस्तान को बराबरी का दर्जा दे दिया है। जबकि यह एक तथ्यात्मक सच्चाई है कि पाकिस्तान हमलावर है और भारत पीड़ित है। इसी तरह पाक अधिकृत कश्मीर को 'पाक प्रशासित जम्मू- कश्मीर' कहकर वार्ताकारों ने दो तिहाई भारतीय कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा मान लिया है। यही वास्तव में कश्मीर में सक्रिय अलगाववादियों की भाषा है। यहां वार्ताकारों ने भारत की संसद और यूएनओ के प्रस्तावों की भी धज्जियां उड़ा दी हैं।
संवैधानिक समिति द्वारा की जाने वाली 1952 के बाद के सभी अधिनियमों की समीक्षा पर पहले पाकिस्तान समर्थक हुर्रियत कांफ्रेंस से चर्चा और बाद में पाकिस्तान तथा पाकिस्तान प्रशासित(अधिकृत) जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श करने की सिफारिश करके वार्ताकारों ने देशद्रोहियों और आक्रांता पाकिस्तान को सम्मानित किया है। जब 1980 के दशक में सरकार द्वारा गठित डीडी ठाकुर आयोग ने अपनी रपट में 1952 के बाद जम्मू-कश्मीर में लागू भारतीय संविधान की धाराओं एवं अधिनियमों को जायज ठहरा दिया था तो फिर इस प्रकार की संवैधानिक समिति को पुन: गठित करने का और क्या औचित्य हो सकता है?
वार्ताकार यह क्यों भूल गए कि पाकिस्तान ने कश्मीर को हड़पने के लिए भारत पर चार बार सीधे युद्ध थोपे हैं (1947, 65, 71, 99) और कश्मीर में पिछले 22 वर्षों से चल रहा हिंसक आतंकवाद भी पाकिस्तान की रणनीति 'आपरेशन टोपक' की ही उपज है। इसी आपरेशन का परिणाम है सीमाओं पर सशस्त्र घुसपैठ, हिंसक जिहाद और कश्मीरी हिन्दुओं का विस्थापन। जब तक पाकिस्तान का भारत में इस तरह का हिंसक हस्तक्षेप समाप्त नहीं होता तब तक उसके साथ कैसा समझौता, कैसी वार्ता?
पृथकतावादकेशिकारवार्ताकार
जम्मू-कश्मीर में व्याप्त विदेश प्रेरित अलगाववाद की जन्मदाता, पोषक और संरक्षक भारतीय संविधान की धारा 370 को विशेष शब्द से नवाजने की सिफारिश करके वार्ताकारों ने एक राष्ट्रविरोधी मजहबी जुनून को संवैधानिक मान्यता देने का अत्यंत निंदनीय प्रयास किया है। वार्ताकारों ने सुरक्षा बलों के विशेषाधिकारों तथा अशांत क्षेत्रों से संबंधित कानून को वापस लेने, नागरिक सुरक्षा कानून में संशोधन करने और सुरक्षा बलों को हटाने की सिफारिश करके भारतीय सेना को कटघरे में खड़ा करने का जघन्य अपराध किया है। इस तरह भारतीय सेना की वीरता और सफलता को चुनौती दी गई है।
मजहबी, क्षेत्रीय एवं जातिगत कुंठा से ग्रस्त वार्ताकारों ने कश्मीर घाटी में बनी बेनाम कब्रों की जांच के लिए न्यायिक आयोग गठित करने की बात की है परंतु आतंकियों के हाथों मारे गए लाखों बेगुनाह लोगों के मुद्दे को छुआ तक नहीं। ये कब्रें उन हत्यारे आतंकियों की हैं जहां पर अलगाववादी नेता और पाकिस्तान के मंत्री जाकर फातिहा पढ़ते हैं।
जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा के संबंध में वार्ताकार कहते हैं कि यह क्षेत्र मध्य एशिया और दक्षिण एशिया को जोड़कर रखने वाला एक पुल है। यहां वार्ताकारों ने भारत को खारिज कर दिया है, जबकि भारत की सुरक्षा के लिए यह क्षेत्र (जम्मू-कश्मीर) अति महत्वपूर्ण है। करोड़ों भारतीयों की भांति वार्ताकारों की मानसिकता में यदि कश्मीर भारत माता का मुकुटमणि रहा होता तो वह इस क्षेत्र को भारत से अलग एक स्वतंत्र इकाई न मानते।
वार्ताकारों ने 1952 के बाद जम्मू-कश्मीर पर लागू हुए सभी भारतीय कानूनों, संवैधानिक संशोधनों और विकास की अनेक योजनाओं की समीक्षा करने के लिए जिस संवैधानिक समिति का गठन करने का सुझाव दिया है, वह भारत के संविधान, संसद और सरकार को चुनौती देने वाली एक ऐसी टोली होगी जो इन वार्ताकारों की ही अलगाववादी मानसिता की लकीरों पर चलेगी।
कमजोरकश्मीरनीति
वार्ताकारों ने और भी कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपना मुंह नहीं खोला। पाकिस्तान द्वारा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर के मसले पर भारत को दोषी ठहराने की मुहिम, ओआईसी (आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कंट्रीज) में हुर्रियत नेता मीर वाइज उमर फारुख को कश्मीर के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने की इजाजत देना, ओआईसी द्वारा एक अरबी नागरिक को कश्मीर का राजदूत बना देने पर प्रतिक्रिया व्यक्त न करना, पाकिस्तान के साथ संभावित वार्तालाप के समय कश्मीर में पाक प्रेरित आतंकवाद का भारत सरकार द्वारा विषय न लेना इत्यादि मुद्दों के परिणामों पर वार्ताकारों ने तनिक भी चिंतन नहीं किया। यह वार्ताकारों की कुंठित और अलगाववादी मानसिकता का प्रतीक है।
बलूचिस्तान में हो रही बगावत में भारत की कथित भागीदारी के पाकिस्तानी आरोप पर चर्चा स्वीकार करने जैसी देशघातक और कश्मीर को एक तरह से 'स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र' मान लेने की विदेश नीति पर वार्ताकारों ने कोई चर्चा नहीं की। क्या इन सब तथ्यों और घटनाओं का जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा और भारत की अखंडता के साथ कोई संबंध नहीं? या फिर वार्ताकारों की मानसिकता में भी 'स्वतंत्र कश्मीर' का हुर्रियत निर्मित 'रोडमैप' घर कर गया है।
इस रपट में वार्ताकारों ने भारत सरकार को कहीं भी यह सलाह नहीं दी कि वह पाकिस्तान के साथ व्यापार, नदी, पानी और सांस्कृतिक गतिविधियों से संबंधित समझौते करते समय भारत की सुरक्षा, सीमा पर पाकिस्तानी घुसपैठ, आईएसआई की भारत में हिंसा फैलाने की साजिशों पर भी चर्चा करे। क्या वार्ताकारों को नहीं लगता कि इस तरह की सीधी और स्पष्ट चर्चा का अभाव जम्मू-कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी तत्वों की शक्ति बढ़ाता है?
वास्तव में वार्ताकारों ने इस रपट में भारत सरकार की ढुलमुल राजनीतिक इच्छाशक्ति पर कहीं चर्चा न करके जम्मू-कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी तत्वों को शक्ति प्रदान की है।
राष्ट्रहितमेंपुनर्विचारहो
दरअसल जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा और जनता की भलाई को लक्ष्य बनाते हुए वार्ताकारों की रपट का आधार, जम्मू-कश्मीर का भारत में असंदिग्ध पूर्ण विलय, जम्मू-कश्मीर भारत का असंदिग्ध अभिन्न संवैधानिक अंग, और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की पूर्ण समाप्ति इत्यादि मुद्दे होने चाहिए थे। परंतु वार्ताकारों ने उल्टे हमलावर पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर विषय पर एक पक्ष मानकर और पाक अधिकृत कश्मीर को 'पाकिस्तान प्रशासित' कहकर भारत के अब तक के सभी दावों को खारिज कर दिया है।
यह भारत सहित जम्मू-कश्मीर की 95 प्रतिशत देशभक्त जनता के उन जज्बातों का हनन है जिनका समाधान करने की वार्ताकारों ने डींगें हांकी हैं। उपरोक्त ऐतिहासिक सच्चाइयों से समझौता करके हम कभी भी जम्मू-कश्मीर की समस्याओं के समाधान की उम्मीद नहीं कर सकते।
अगर सरकारी वार्ताकारों ने यह रपट जम्मू-कश्मीर के सभी नागरिकों की सुख-सुविधा, शांति और सुरक्षा तथा भारत के राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए तैयार की है तो उन्हें इस रपट पर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि जम्मू-कश्मीर का मुद्दा पूरे देश की एकात्मता, अखंडता और सुरक्षा के साथ जुड़ा हुआ है। अत: भारत सरकार और संसद सहित सभी राजनीतिक दलों को इस रपट की गहराई से समीक्षा करनी चाहिए।
समस्याकीगहराईकोसमझें
वास्तव में कश्मीर समस्या के समाधान का रास्ता खोजने से पूर्व इस समस्या के कारण और स्वरूप का गहराई से चिंतन-मनन कर लेना चाहिए था। यह समस्या मात्र राजनीतिक न होकर एक विशेष समुदाय के कट्टरवादी वैचारिक जुनून का परिणाम है। इस समस्या का सीधा संबंध भारत राष्ट्र की सुरक्षा के साथ जुड़ा हुआ है। अत: केवल एक समुदाय विशेष के कट्टरवादी प्रतिनिधियों के जज्बातों के आधार पर खोजा गया समाधान देश की अखंडता के लिए खतरनाक साबित होगा। भारत के संविधान, संसद, राष्ट्र ध्वज और भूगोल को अमान्य करने वाले तत्व कभी भी ऐसे समाधान को सामने नहीं आने देना चाहेंगे जिससे उनके अलगाववादी उद्देश्य को नुकसान पहुंचे।
भारत की सुरक्षा, लद्दाख और जम्मू-क्षेत्र के साथ हो रहे भेदभाव, विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं की सुरक्षित और सम्मानजनक घर वापसी, पाक अधिकृत कश्मीर एवं पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) से आए लाखों हिन्दू शरणार्थियों की समस्याओं, जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले भारतीय संविधान की धारा 370 के खतरनाक परिणामों, इस सीमावर्ती प्रांत में हो रही पाकिस्तानी सशस्त्र घुसपैठ, आतंकवाद से लोहा ले रही भारतीय सेना की आवश्यकता और पूरे जम्मू-कश्मीर (जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख) में रहने वाले सभी मतावलंबियों में परस्पर सौहार्द के मद्देनजर ही जम्मू-कश्मीर की जटिल समस्याओं का हल निकाला जा सकता है।
राष्ट्रीयसहमतिकीजरूरत
जम्मू और लद्दाख का क्षेत्रफल कश्मीर घाटी से 6 गुणा ज्यादा है और जनसंख्या कश्मीर घाटी से तीन गुणा ज्यादा है, परंतु वार्ताकारों ने जिस समाधान की खोज की है वह इन तीनों क्षेत्रों के सभी लोगों को स्वीकार नहीं है। पहाड़ी, गुज्जर, डोगरे, बक्करवाल, भद्रवाही, लद्दाखी, गद्दी, पाक व पाक अधिकृत कश्मीर से आए हिन्दू शरणार्थी और कश्मीरी पंडितों के प्रतिनिधियों की इच्छाओं, जरूरतों और अधिकारों को तिलांजलि देकर केवल कश्मीर घाटी के एक ही वर्ग से गुप्त एवं खामोश वार्तालाप चलाकर निकाला गया कोई भी समाधान पूरे जम्मू-कश्मीर की एकता और सौहार्द को बिगाड़ देगा। इससे भारत की एकात्मता और सुरक्षा पर भी खतरा गहराएगा।
दुर्भाग्य से आज जम्मू-कश्मीर की सत्ता पर वे लोग काबिज हैं जो कश्मीर घाटी के एक ही विशेष वर्ग के प्रतिनिधि हैं और केन्द्र में उन लोगों की सरकार है जो अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर जम्मू-कश्मीर की सत्ता पर काबिज लोगों का समर्थन करती है।
जम्मू-कश्मीर की समस्या को सुलझाने के लिए सभी राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दलों को अपने दलगत, जातिगत एवं चुनावी स्वार्थों से ऊपर उठकर एक राष्ट्रीय सहमति बनानी होगी। जम्मू-कश्मीर और देश के दुर्भाग्य से इन तीनों सरकारी वार्ताकारों द्वारा तैयार रपट में इस राष्ट्रीय सहमति पर सोचा तक नहीं गया। उलटा इस रपट की सिफारिशों को जबरदस्ती सरकार और जनता पर थोपने की तथ्यहीन कोशिश की गई। वार्ताकारों ने केन्द्र सरकार को कहीं भी यह सलाह देने की हिम्मत नहीं जुटाई कि वह ढुलमुल और अधकचरी कश्मीर नीति को छोड़कर देशहित में सख्त और व्यावहारिक नीति अपनाए।
समाधानकाठोसरास्ता
भारतीय संविधान की अस्थाई धारा 370 को हटाकर स्थाई रूप से जम्मू-कश्मीर को भारत के शेष प्रांतों की श्रेणी में लाया जाए। पाकिस्तान के गैर कानूनी, असंवैधानिक, अनैतिक और जबरन कब्जे वाले कश्मीर को भी भारतीय कश्मीर में मिलाकर भारत के संविधान के अंतर्गत एक ऐसे संयुक्त कश्मीर का गठन किया जाए जिसमें सभी मजहबों, जातियों और क्षेत्रों के लोग अपनी संयुक्त प्राचीन सांस्कृतिक विरासत (हिन्दू कश्मीरियत) की छत्रछाया में सुखपूर्वक रह सकें।
भारतीय संविधान की धारा 370 के समाप्त होते ही जम्मू-कश्मीर का अलग संविधान अपना वजूद खो देगा। इससे जम्मू-कश्मीर की अलग पहचान चांद सितारे वाले लाल झंडे को हटाकर वर्तमान अलगाववाद का आधार समाप्त करना आसान हो जाएगा। भारत की मुख्य राष्ट्रीय धारा की पकड़ मजबूत होगी। इस प्रकार अब तक नकारे, दबाए और खामोश किए जा रहे जम्मू-कश्मीर के 95 प्रतिशत देशभक्त लोग सतह पर आकर इस सीमावर्ती प्रांत को भारत विरोधी तत्वों से बचा सकेंगे।
क्षेत्रफल और जनसंख्या के हिसाब से जम्मू और लद्दाख के लोगों को विधानसभा, विधान परिष्द्, संसद और अन्य संवैधानिक संस्थानों/आयोगों में प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था तुरंत की जाए। इससे क्षेत्रीय और जातिगत भेदभाव की राजनीति समाप्त होगी। दुख की बात है कि वार्ताकारों ने इस विषय को छुआ तक नहीं।
26 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर का भारत में स्थाई विलय हो चुका है। जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा चुनी गई संविधान सभा ने इसको स्वीकार किया है। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने इस विलय को संवैधानिक मान्यता प्रदान की है। पाकिस्तान ने धोखे और गैर कानूनी ढंग से जम्मू-कश्मीर का जो दो तिहाई भाग अपने कब्जे में कर रखा है, उसको अंतरराष्ट्रीय नियमों और संधियों के अंतर्गत बातचीत अथवा सैन्य कार्रवाई से भारत में शामिल करना भारत का हक है।
भारत की संसद द्वारा 22 फरवरी, 1994 को पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव पर अमल करते हुए कश्मीर में सक्रिय भारत विरोधी तत्वों और उनके आका पाकिस्तान को कश्मीर की सच्चाई समझाने के लिए हर संभव राजनीतिक प्रयास और शक्ति का इस्तेमाल करने में कोई कंजूसी व परहेज न किया जाए।
अंतरराष्ट्रीय कानूनों, परंपराओं और आवश्यकताओं के अंतर्गत पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकवाद के प्रशिक्षण शिविरों को समाप्त करने के लिए विश्व स्तरीय सहमति के साथ शक्ति का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करना चाहिए।
कश्मीर से विस्थापित होकर आए सभी हिन्दुओं की सम्मानजनक और सुरक्षित घर वापसी की व्यवस्था सरकारी और स्थानीय स्तर पर की जानी चाहिए। इसके लिए कश्मीर के मुस्लिम समाज को पहल करके अपने हिन्दू भाइयों की सुरक्षा की न केवल गारंटी देनी चाहिए अपितु अपने व्यवहार से उनका दिल भी जीतना चाहिए। इसी तरह पीओके से विस्थापित होकर आए लोगों की घरवापसी का मुद्दा भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जोर-शोर से उठाना चाहिए और पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) से आए लोगों को नागरिकता के सभी अधिकार मिलने चाहिए।
जिस दिन भारत की सरकार, सभी राजनीतिक दल, सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं और अन्य सांस्कृतिक संगठन एक स्वर से कश्मीर समस्या के समाधान के लिए राष्ट्रीय सहमति बना लेंगे, उसी दिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, कांग्रेस और इस तरह के अनेक वार्ताकारों द्वारा कश्मीर के संबंध में की गई भयंकर भूलें सुधार ली जाएंगी और भारत की अखंडता की बलिवेदी पर शहीद होने वाले डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान सार्थक होगा।
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