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भारत में लाल आतंक के दुर्ग में दरार पड़ने लगी है। निर्दोष नागरिकों तथा अल्प वेतनभोगी सुरक्षाकर्मियों की नृशंस हत्याओं से अनेक नक्सली नेता भी व्यथित होने लगे हैं। ताजा उदाहरण उड़ीसा के शीर्ष माओवादी नेता सब्यसाची पांडा का है, जिन्होंने निर्दोष नागरिकों की हत्याओं को 'विचारधारा से विचलन' बताते हुए उनकी निंदा की है। राजनीतिक स्वार्थों के लिए नक्सलियों का उपयोग करती आ रही पार्टियों को भी लगने लगा है कि ऐसा करना न केवल राष्ट्रविरोधी अपितु आत्मघाती भी होगा। राष्ट्रीय संपदा की लूट के बंटवारे को लेकर स्वयं नक्सलियों के भीतर भी टकराव उभरने लगे हैं। भारतीय लोकतंत्र को ध्वस्त करने की नक्सली रणनीति को विफल करने की आवश्यकता पर राष्ट्रीय सहमति का वातावरण बन रहा है। प्रभावित राज्यों की पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की संयुक्त कार्रवाई के पक्ष में राजनीतिक समन्वय उभरने लगा है।
दुष्प्रचार तंत्र?
यह वातावरण तब बना है जब नक्सलियों द्वारा जन अदालत लगाकर मुखबिरी के आरोप में किसी को भी पीट-पीट कर मार डालना सामान्य बात हो गयी है। गत दिवस बस्तर में एक वनवासी युवक को मुखबिरी की आशंका में सरेआम जिंदा जला दिया गया। अकेले बस्तर में ही गत दो वर्षों में सौ से ज्यादा छोटे-बड़े जनप्रतिनिधियों तथा अन्य नागरिकों की हत्या की गई है। सार्वजनिक तौर पर की जाने वाली इन हत्याओं का उद्देश्य नक्सल प्रभाव वाले इलाकों में आतंक फैलाकर पुलिस और प्रशासन के सूचना तंत्र को पंगु बनाना है।
शासन-प्रशासन के समान नक्सलियों ने भी अपना व्यापक गुप्तचर तंत्र खड़ा कर लिया है। उनका प्रचार तंत्र भी सरकार के सभी संचार माध्यमों पर अक्सर भारी पड़ता है। सुरक्षाकर्मियों की प्रत्येक कार्रवाई पर इतना बवाल खड़ा कर दिया जाता है कि सरकारें सब कुछ छोड़कर स्पष्टीकरण देने को बाध्य हो जाती हैं। इससे सुरक्षाकर्मियों का मनोबल गिरता है। नक्सलियों के समर्थक विविध मंचों से मानवाधिकारों के हनन की दुहाई देते हुए देशी-विदेशी मीडिया के गले अपनी बात उतारने में बहुधा सफल होते हैं। नक्सल प्रभावित राज्यों में कांग्रेस पार्टी के पास नक्सली हिंसा के अलावा कोई मुद्दा नहीं है। उसकी राजनीति संबंधित सरकार पर हल्ला बोलने की रहती है। ताजा उदाहरण है पिछले कुछ हफ्तों से केन्द्र के अर्धसैनिक बलों और एक राज्य की पुलिस की संयुक्त कार्रवाई में 18 नक्सलियों और उनके समर्थकों के मारे जाने का। उसमें कुछ अल्प वयस्क बालक और महिलाएं भी सुरक्षाबलों की गोलियों का शिकार हुई थीं। सामान्यत: ऐसी घटनाओं को लेकर यह धारणा बनती है कि सुरक्षाकर्मी अपना संतुलन खोकर जनजातियों पर जुल्म ढा रहे हैं।
निर्दोष नहीं हैं वे बच्चे
यह आशंका बनी रहती है कि कभी-कभी आतंकवादियों, नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई में कुछ निर्दोष नागरिक भी मारे जाते हैं। परंतु यह मान लेना भी उचित नहीं है कि सुरक्षाकर्मियों की गोली से मरने वाली सभी स्त्रियां और बालक निर्दोष ही होते हैं। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में बताया कि नक्सलियों द्वारा किये जाने वाले अपहरणों और हिंसक वारदातों में लगातार महिलाओं और बच्चों की सक्रियता के प्रमाण मिल रहे हैं। उड़ीसा के मलकानगिरी जिले से फरवरी, 2011 में किये गये अपहरण में अल्प वयस्क बालकों के शामिल होने की बात भी जयराम रमेश ने निजी सचिव आर. विनीत कृष्ण के हवाले से बताई गई है। विनीत कृष्ण उस समय मलकानगिरी के जिलाधिकारी थे। उनके अपहरण के एक महीने के दौरान उन पर कड़ी निगरानी रखने और बार-बार उनका स्थान बदलने में भी महिलाएं तथा बच्चे शामिल रहते थे। बस्तर के एक प्रमुख जनप्रतिनिधि तानसेन कश्यप की हत्या 13-14 वर्ष के बालकों ने ही की थी। तानसेन कश्यप बस्तर से मंत्री केदार कश्यप के भाई हैं। यह स्थापित तथ्य है कि नक्सली छापामारों में महिलाएं और बच्चे भी बड़ी संख्या में शामिल हैं। वे पुलिस के विरुद्ध उन्हें अपनी ढाल बनाकर भी चलते हैं।
जुलाई के पहले सप्ताह में धुर नक्सली क्षेत्रों के लगभग सवा सौ बालकों से लम्बी बातचीत हुई। ये बालक आई.आई.टी. और अखिल भारतीय इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने में सफल रहे हैं। इनमें दर्जनों वे अभागे बालक भी थे जो अपने पालकों की नक्सलियों द्वारा की गई क्रूर हत्याओं के प्रत्यक्ष साक्षी थे। उनकी हत्याओं में उनकी उम्र के बालक भी शामिल थे। उन्होंने बताया कि नक्सलियों ने बाकायदा नाबालिग बच्चों की एक बड़ी शाखा गुरिल्ला युद्ध के लिए तैयार कर ली है। उनका यह भी कहना था कि यदि वे निकल भागने में सफल नहीं हुए होते तो उनके सामने नक्सलियों के साथ जा मिलने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता। इन बच्चों के मन में नक्सलियों के प्रति घृणा और सीने में प्रतिशोध की ज्वाला है।
बढ़ता असंतोष
विविध स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का जमीनी यथार्थ यह है कि इन दिनों वाम उग्रवादी सुरक्षाबलों के दबाव में हैं। उनके नेता और सहयोगी मारे जा रहे हैं। नक्सलियों द्वारा आत्मसमर्पण की संख्या में भी वृद्धि हो रही है। कुछ राज्यों में नक्सली नेतृत्व को लेकर भी द्वंद्व उभर रहा है। उड़ीसा के प्रमुख नक्सली नेता सब्यसांची पांडा ने नक्सली नेतृत्व में आंध्र प्रदेश के वर्चस्व को खुली चुनौती दे दी है। नक्सली नेतृत्व के विरुद्ध असंतोष केवल उड़ीसा तक सीमित नहीं है। छत्तीसगढ़ में समस्त नक्सली गतिविधियों का संचालन आंध्र प्रदेश के नक्सली नेताओं के निर्देशों पर होता है। आंध्र के नक्सली नेता स्वयं तो कड़ी सुरक्षा के घेरे में रहते हैं और मैदान में मरने-मारने के लिए स्थानीय 'कैडर' को झोंकते रहते हैं। नक्सल प्रभाव क्षेत्रों में वनोपज और मूल्यवान इमारती लकड़ी के विक्रय से जो भारी धनराशि प्राप्त होती है, उसका काफी बड़ा भाग आंध्र प्रदेश के नक्सली नेतृत्व के पास पहुंचता है। ठेकेदारों, व्यापारियों, उद्योगपतियों तथा शासकीय कर्मचारियों से जो नियमित वसूली होती है, उसका बड़ा हिस्सा भी उन्हीं की जेब में जाता है। यही कारण है
जहां-जहां पर वनोपज और प्राकृतिक संसाधनों की विपुलता है, वहां नक्सली सक्रिय हैं। उड़ीसा की तरह ही छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी तेलुगु नेतृत्व के विरुद्ध उभरते असंतोष के प्रमाण हाल के दिनों में मिले हैं। यह असंतोष नक्सली नेतृत्व की नृशंसता के कारण अक्सर मुखर नहीं हो पाता। नक्सली जितनी क्रूरता से सुरक्षाकर्मियों और जनप्रतिनिधियों की हत्या करते हैं, उतनी ही निर्ममता असंतोष व्यक्त करने वाले सहयोगियों से भी बरतते हैं।
मानवाधिकारवादियों का 'सच'
जो राजनेता नक्सलियों के खिलाफ कठोर रुख अपनाते हैं, वे उनकी 'हिटलिस्ट' में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह वर्तमान में नक्सलियों की 'हिटलिस्ट' में सबसे ऊपर बताये जाते हैं। यह तथ्य आत्मसमर्पण करने अथवा मुठभेड़ों में बंदी बनाये गये नक्सलियों ने पूछताछ के दौरान बताया। कारण यह कि डा.रमन सिंह ने नक्सलियों से प्रत्येक मोर्चे पर निबटने की तत्परता दिखाई। हिंसा की समाप्ति के लिए नक्सलियों से बातचीत का विकल्प खुला रखते हुए डा. रमन सिंह ने बड़ी स्पष्टता से कहा कि नक्सली जब और जहां शांति वार्ता करना चाहें, वे तैयार हैं। इसके साथ ही डा. रमन ने हिंसा पर उतारू नक्सलवादियों पर पुलिस तथा अर्धसैनिक बलों द्वारा दबाव बनाने की रणनीति भी अपनाई है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर को नक्सलियों ने अपने शक्ति केंद्र के रूप में गत तीन दशकों में विकसित किया है। ऐसा करने में वे सफल इसलिए रहे कि वहां आजादी के बाद भी शासन-प्रशासन की उपस्थिति ही नहीं थी। बस्तर के स्वाभिमानी और स्वातंत्र्य प्रिय वनवासियों पर जितनी बार गोलीबारी कांग्रेस के शासनकाल में हुई, उतनी तो दो शताब्दियों से अधिक के ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान भी नहीं हुई थी। कैसे वनवासियों के नेतृत्व को छला गया तथा बलपूर्वक कांग्रेसी शासकों ने समाप्त किया, यह एक विस्तृत विवेचन का विषय है।
नक्सली हथियारों तथा गोला-बारूद के अलावा अपने प्रचार तंत्र पर भी काफी राशि खर्च करते हैं। उन्हें राज्यों के नगरों और राजधानियों से लेकर दिल्ली तक में विभिन्न मंचों पर सक्रिय अपने समर्थकों पर भी पर्याप्त धन व्यय करना पड़ता है। रांची, रायपुर और भुवनेश्वर के विमानतलों पर झोला छाप उन तिलिस्मी लोगों की आवाजाही उस समय एकाएक बढ़ जाती है जब इन राज्यों में कहीं पर भी सुरक्षा बलों और नक्सलियों में कोई मुठभेड़ हो जाती है। ये मीडियाकर्मी, मानवाधिकारवादी अथवा समाजसेवी के रूप में हवाई उड़ानों से वहां पहुंचते ही 'मानवाधिकारों के हनन और निर्दोष आदिवासियों के पुलिसिया नरसंहार' का शोर मचाना शुरू कर देते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वे सुरक्षाकर्मियों और नक्सल प्रभावित राज्यों की सरकारों को 'बेगुनाहों की हत्यारी' करार देते हैं। परंतु नक्सलियों द्वारा प्राय: प्रतिदिन की जा रही सुरक्षाकर्मियों, निर्दोष नागरिकों और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की हत्याओं पर रहस्यपूर्ण मौन धारण किये रहते हैं। अपने इसी दोगले आचरण के कारण वे नक्सली हिंसा से प्रभावित परिवारों की घृणा के पात्र बन गये हैं। जनसामान्य भी उन्हें संशय की दृष्टि से देखता है।
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