इतिहास-साधक का प्रयाण
|
राजेन्द्र सिंह कुशवाहा
19 अगस्त, 1929-28 जुलाई, 2012
एक समर्पित
देवेन्द्र स्वरूप
शनिवार 28 जुलाई की रात्रि 8.30बजे प्रिय मित्र राजेन्द्र चड्ढा का फोन आया कि डा. कुशवाहा नहीं रहे। उसी दिन प्रात:काल राजेन्द्र जी कुशवाहा जी से मिलते हुए हमारे घर आये थे। उन्होंने कुशवाहा जी की स्थिति का जो वर्णन किया उससे स्पष्ट हो गया कि उनकी प्राणशक्ति तेजी से क्षीण हो रही है और अब वे अधिक लम्बा नहीं खींच पाएंगे। लगभग तीन वर्ष से वे अनेक व्याधियों से जूझ रहे थे। बार-बार अस्पताल में भर्ती होते, बार-बार बाहर आते। अस्पताल का न्योता आते ही वे राजेन्द्र जी को पुकारते और राजेन्द्र जी दौड़े-दौड़े उनकी सेवा में पहुंच जाते। राजेन्द्र जी से उनका यह रिश्ता गहरा होता गया और राजेन्द्र जी हम दो बूढ़ों के बीच सूचना पुल बन गए। कुशवाहा जी ने भी अपनी संपादित और 2009 में प्रकाशित विशालकाय पुस्तक की भूमिका में राजेन्द्र चढ्ढा के इस योगदान का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया है।
प्रवासी भारतीयों की अन्तर्वेदना
19 अगस्त, 1929 को जन्मे राजेन्द्र सिंह कुशवाहा मुझसे आयु में मात्र तीन वर्ष छोटे थे और विद्वता में मुझसे बहुत आगे थे, पर उनकी कुलीन संस्कार-धर्मिता और शालीनता ने मुझे प्रत्येक भेंट में यह अहसास कराकर ही छोड़ा कि मैं उम्र में उनसे बड़ा हूं और वे मेरे छोटे भाई हैं। वस्तुत: हमें उम्र ने नहीं इतिहास ने जोड़ा था। सन् 1990 में जब वे मॉरीशस द्वीप में भारत सरकार के शिक्षा एवं संस्कृति विभाग के द्वितीय सचिव पद से सेवानिवृत्त होकर स्वदेश वापस लौटे तभी से उनका मन सक्रिय राष्ट्रसेवा का कोई क्षेत्र ढूंढने में लगा था। मॉरिशस के पहले वे 1978 से 1982 तक (चार वर्ष) फिजी द्वीप में भारतीय उच्चायोग के 'भारतीय संस्कृति केन्द्र' के प्रभारी निदेशक का दायित्व निभा चुके थे। तीन वर्ष मारिशस और चार वर्ष फिजी में रहकर प्रवासी भारतीयों की धर्मनिष्ठा एवं भारतभक्ति को निकट से देखने का उन्हें अवसर मिला। डा.कुशवाहा ने पाया कि अपने धर्म के प्रति उनमें गहरा अनुराग और अभिमान था। तुलसीदास की रामचरित मानस और प्रसिद्ध श्रीमद्भागवत महापुराण उनके लिए पाथेय बन चुका था। किन्तु भारत का जो इतिहास उन्हें सुनने-पढ़ने को मिलता था, वह उनके मन में विदेशी आक्रमण के सामने सतत् पराजय और परानुकरण का ग्लानि-भाव भर देता था। वे बार-बार पूछते कि क्या यही हमारे उद्गम देश का वास्तविक इतिहास है? क्या यही इतिहास हमारे देशवासियों ने खोजा और लिखा है? प्रवासी भारतीयों की यह अन्तर्वेदना कुशवाहा जी के मन में गहरी बैठ गयी थी और स्वदेश लौटने के बाद इतिहास शोधन के लिए उनका मन व्याकुल हो उठा था।
ऐसे चुना वानप्रस्थ
कुशवाहा जी मूलत: साहित्य के व्यक्ति थे। आगरा विश्वविद्यालय से उन्होंने हिन्दी में एम.ए.और पी.एच.डी की उपाधियां अर्जित की थीं और दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी भाषा में एम.ए. की डिग्री ली। उनका प्रारंभिक लेखन हिन्दी में कथा- कहानी, कविता और निबंध लेखन तक सीमित था। किन्तु 1990 में सेवानिवृत्ति के बाद उनकी आंखें इतिहास के क्षेत्र में अपने लिए सार्थक भूमिका खोज रही थी। संयोग से उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो.राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) से पारिवारिक परिचय निकल आया। रज्जू भैया के कारण कुशवाहा जी का सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्थानीय कार्यकर्त्ताओं से आया। रज्जू भैया ने इतिहास शोधन में उनकी गहरी रुचि को देखा और उनका सम्पर्क इतिहास संकलन योजना के सूत्रधार (स्व.) मोरोपंत पिंगले से जोड़ दिया। मोरोपंत जी की पारखी आंखें उन्हें इतिहास संकलन योजना में खींच लायीं। पहले वे योजना की छमाही शोध पत्रिका 'इतिहास दर्पण' के सम्पादक मंडल का अंग बने। और फिर ऐसे रमे कि निर्माण विहार में 1978 में निर्मित भव्य कोठी व अपने तीन पुत्रों के परिवार-सुख को छोड़कर, अपने विशाल पुस्तक संग्रह व बौद्धिक पूंजी को समेटकर संघ कार्यालय (केशवकुंज) के पिछवाड़े निर्मित बाबा साहब आप्टे स्मारक भवन में आ बसे। संघ कार्यालय के रूखे- सूख, सादे भोजन पर जीवनयापन करने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने इतिहास संकलन योजना के अखिल भारतीय महासचिव का दायित्व अपने कंधों पर संभाल लिया और ग्यारह वर्षों तक उसे यशस्वी ढंग से निभाया। यहीं उनके साथ मेरा भी घनिष्ठ संबंध आया।
मोरोपंत की जिज्ञासा
हुआ यूं कि स्व.मोरोपंत पिंगले के मन में एक प्रश्न घूमता रहता था कि भारत पर मुस्लिम आक्रमणों एवं शासन का काल बहुत लम्बा रहा। सन् 700 से लेकर 1803 में दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के प्रवेश तक, लगभग 1100 वर्ष तक भारत मुस्लिम आक्रमणों एवं शासन से आक्रांत रहा। मुस्लिम आक्रमणकारी जहां कहीं गए, वहां का लगभग पूरा समाज अपनी परम्परागत उपासना पद्धति को छोड़कर इस्लाम में दीक्षित हो गया, अपने पुराने इतिहास व संस्कृति से संबंध विच्छेद कर बैठा। पर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो पाया? जियाउद्दीन बर्नी जैसे मध्यकालीन उलेमा लेखक हमेशा यही चिंता प्रगट करते रहे कि हिन्दुस्थान में मुसलमानों की स्थिति विशाल हिन्दू समुद्र में नमक की एक छोटी-सी डली से अधिक नहीं है। मोरोपंत जी का सवाल था कि यह चमत्कार कैसे घटित हुआ? सैनिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में भारतीय समाज के प्रतिरोध का स्वरूप क्या था? उनकी शक्ति कहां थी? हिन्दू समाज के प्रतिरोध का स्वरूप क्या था? इसे समग्रता में सामने लाया जाना चाहिए।
मोरोपंत जी की इच्छा को कार्यान्वित करने के लिए छह-सात विश्वविद्यालयी प्रवक्ताओं-अध्यापकों की एक मंडली जुटी। आप्टे भवन में छह-सात महीने तक मैं, डा.कुशवाहा और वह मंडली रोज बैठती, मध्यकालीन मूल स्रोतों को खोजती, पुराने विद्वानों के शोध-निबंधों को ढूंढ-ढूंढकर संकलित करती, उनका अध्ययन और विश्लेषण करती। छह-छह घंटे लगातार बहस होती। यह क्रम संभवत: एक वर्ष तक चला। किन्तु मेरे जैसे दीर्घसूत्री के कारण वह आकार नहीं ले पाया। उस सामग्री का ढेर पड़ा रह गया। पर उस ज्ञान-यज्ञ में सहभागिता के कारण डा.कुशवाहा के साथ जो आत्मीयता स्थापित हुई, वह अंत तक बनी रही। डा.कुशवाहा का राजपूत इतिहास का गहरा अध्ययन उस ज्ञान -चर्चा में प्रगट हुआ। उन्होंने उसे रूप देने का जिम्मा लिया और शायद अंत तक वे उसमें लगे रहे।
अनवरत इतिहास साधना
अपने बड़े पुत्र संजय की अकाल मृत्यु के कारण उन्हें आप्टे भवन से पुन: निर्माण विहार स्थित अपने निजी भवन में वापस आना पड़ा। कुछ अन्य कारणों ने भी उनकी घर वापसी में योगदान किया, जिनका यहां उल्लेख प्रासंगिक नहीं है। किन्तु डा. कुशवाहा की इतिहास साधना चलती रही। इतिहास लेखन में उनका दूरगामी और मौलिक योगदान है। उनका विशालकाय अंग्रेजी ग्रंथ 'ग्लिम्पसेज आफ भारतीय हिस्ट्री' (भारतीय इतिहास की झलकियां) इस ग्रंथ में उन्होंने प्राचीन से लेकर वर्तमान काल तक भारतीय इतिहास की एक वैकल्पिक रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया। उन्होंने दावा किया कि यह 'इंडिया' का नहीं, भारत का इतिहास है। ग्रंथ के आरंभ में ही उन्होंने ईस्वी पूर्व और ईस्वी पश्चात की पाश्चात्य कालगणना को चुनौती दी और कलियुगाब्द को वैज्ञानिक आधार पर प्रतिदिन की और महाभारत से शालिवाहन तक भारतीय इतिहास के लिए तिथिक्रमों का एक वैकल्पिक ढांचा विकसित करके बहस को नयी दिशा दी। उन्होंने दाशरथि को एक ऐतिहासिक पुरुष मानकर पुस्तक का पहला अध्याय श्रीराम के काल के वर्णन को ही समर्पित किया। दूसरा अध्याय महाभारत के नायक श्रीकृष्ण पर केन्द्रित किया और तीसरा अध्याय बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध पर। इस प्रकार पुराणों में वर्णित दशावतार कथा में सातवें, आठवें और नवें अवतार के वर्णन से उन्होंने भारतीय इतिहास का आरंभ करने का साहस किया। यह आवश्यक नहीं है कि प्राचीन इतिहास का जो ढांचा उन्होंने खड़ा किया वही अंतिम माना जाए, पर आज आवश्यकता इस बात की है कि पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा निर्मित भारतीय इतिहास के ढांचे को झकझोरने के लिए इस प्रकार के साहसी प्रयोग किए जाएं। इन नयी प्रस्थापनाओं से इतिहास लेखक को नयी दिशा और ऊर्जा मिलती है। इस पुस्तक को भारतीय इतिहास संकलन योजना एवं बाबा साहेब आप्टे स्मारक समिति के प्रेरणा पुरुष श्री उमाकांत केशव आप्टे उपाख्य श्री बाबा साहब आप्टे को समर्पित करके उन्होंने इतिहास संकलन योजना की सार्थकता को प्रमाणित करने का विनम्र प्रयास किया। इस पुस्तक पर जो बहस होनी चाहिए थी, 2003 से अभी तक वह होना शेष है।
प्रेरणा लें, आगे बढ़ें
'इतिहास दर्पण' के अनेक अंकों में उनके छिटपुट शोध-निबंध बिखरे हुए हैं। वे यदि पुस्तक रूप में संकलित होकर सामने आ सकें तो उनकी इतिहास दृष्टि, अध्ययन की व्यापकता और विश्लेषण क्षमता सामने आएगी। पुस्तक रूप में उनकी अंतिम कृति '1857 का महासमर' नाम से सन् 2009 में प्रकाशित हुई। लगभग 600 पृष्ठों के इस विशाल ग्रंथ का डा.कुशवाहा ने संपादन किया। 1857 के महासमर के साथ उनका अपना भावनात्मक पारिवारिक लगाव भी इस ग्रंथ में प्रगट हो गया। अपनी संपादकीय टिप्पणी में उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि 'संपादक के प्रपितामह कुंवर रघुनाथ सिंह जी ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में हरचंद पुरी की गढ़ी पर आक्रमण का नेतृत्व किया था। क्रांति के लिए धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उन्होंने इटावा के खजाने को लूटा और वह धन क्रांतिकारियों में बांट दिया।' वे लिखते हैं कि 'उस समय इटावा का कलेक्टर कांग्रेस का संस्थापक ए.ओ.ह्यूम था। ह्यूम ने बमुश्किल भागकर अपनी जान बचाई थी। कहा जाता है कि वह स्त्री वेष में वहां से भागा था, डा.कुशवाहा का दावा है कि उनके पूर्वजों ने झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर युद्ध किया था। उनका कहना है कि मैंने इस संबंध में एक शोध पत्र कुरूक्षेत्र के सेमिनार में प्रस्तुत किया, जिसे स्थानाभाव के कारण इस ग्रंथ में सम्मिलित नहीं किया जा सका। वे जानकारी देते हैं कि संपादक के पास 1857 के संबंध में विपुल सामग्री है, उसके एक अंश मात्र का ही इस ग्रंथ में उपयोग किया जा सका है।
डा.कुशवाहा के ग्रंथागार में केवल 1857 पर ही नहीं, भारतीय इतिहास के अनेक अज्ञात प्रसंगों पर दुर्लभ सामग्री छिपी होगी, जिसको युवा शोधकर्त्ताओं को प्रकाश में लाना चाहिए। एक राष्ट्र समर्पित भारतभक्त इतिहास साधक के प्रति सच्ची श्रद्धाञ्जलि यही हो सकती है कि युवा पीढ़ी उनके द्वारा जीवन भर में संकलित बौद्धिक पूंजी के संरक्षण, अध्ययन और प्रकाशन का संकल्प ले। उनकी इतिहास साधना को आगे बढ़ाये।
टिप्पणियाँ