एक समय करुणानिधि की दबाव की राजनीति ने भी कांग्रेस की नाक में खूब दम किए रखा। लेकिन राष्ट्रहित को दरकिनार कर घटक दलों को साधने और सत्ता में बने रहने की लिप्सा से ही कांग्रेस घिरी है। इसी कारण देश में सुरसा के मुंह की तरह फैलते गए भ्रष्टाचार की अनदेखी भी संप्रग सरकार ने की और प्रधानमंत्री 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मुख्य सूत्रधार तत्कालीन संचार मंत्री ए.राजा को दूध का धुला बताते रहे। संप्रग में बिखराव की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने खुलकर आरोप लगाया कि घटक दलों में तालमेल न होने के लिए कांग्रेस दोषी है। राकांपा नेताओं के गुस्से का आलम यह था कि पार्टी के तीनों मंत्रियों ने अपने मंत्रालयों के कामकाज तक का बहिष्कार कर दिया, सरकारी गाड़ियां लौटा दीं और नवनिर्वाचित राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी को बधाई देने अपनी निजी कारों से गए। प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित भोज का भी पवार व उनकी टीम ने बहिष्कार कर दिया। इतना गुस्सा यकायक कैसे शांत हो गया? जाहिर है सौदेबाजी ही इसके पीछे है। सारा झगड़ा सत्ता की मलाई का है, उसमें बराबर की भागीदारी सभी चाहते हैं। कांग्रेस भी दबाव बनाए रखने के लिए सीबीआई और केन्द्रीय मदद का राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से इस्तेमाल करती है। लेकिन घटक दल भी जानते हैं कि कांग्रेस की साख लगातार गिर रही है और उसे आगामी लोकसभा चुनाव में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं दिख रहा, इसलिए वे भी यदा-कदा दबाव की राजनीति अपनाकर अपने लिए सत्ता समीकरणों में बढ़ा रुतबा चाहते हैं। संप्रग से बाहर के दल व नेता भी इसी मानसिकता से कांग्रेस के साथ रिश्तों में नरमी-तल्खी बरतते हैं, विशेषकर मुलायम सिंह व मायावती, लेकिन सीबीआई का कोड़ा सबको रास्ते पर ले आता है। राष्ट्रपति चुनाव में तो यह साफ-साफ दिखा। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ऐसी अवसरवादी और सत्तालोलुप राजनीति देश का क्या भला करेगी?
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