कुछदिन पहले ही कम्पनी कार्य मंत्रालय ने एक सर्वेक्षण की रपट जारी की है। इस रपट में कहा गया है कि भारतीय दवा कम्पनियां अपनी दवाइयां लागत मूल्य से 200 से लेकर 500 प्रतिशत मुनाफे पर बेच रही हैं। यानी 10 रु. की लागत से बनी कोई दवा 30-50 रु. तक में बेची जा रही है। जबकि राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एन.पी.पी.ए.) के नियमानुसार किसी भी दवा पर 100 प्रतिशत से अधिक लाभ नहीं कमाया जा सकता है। अर्थात् 10 रु. की लागत से बनी कोई दवा अधिकतम 20 रु. में बेची जा सकती है। वहीं विदेशी कम्पनियां अपनी दवाइयां भारत में 1122 प्रतिशत अधिक मुनाफे पर बेच रही हैं। ग्लैक्सो जैसी कम्पनियां भारतीय ग्राहकों को जमकर लूट रही हैं। उसी रपट में यह भी कहा गया है कि 21 भारतीय कम्पनियों की दवाइयां निर्धारित मानक से कई गुनी महंगी हैं।
इस समय पूरा देश महंगाई से जूझ रहा है। एक आम आदमी जो कुछ भी कमा रहा है वह खाने-पीने में ही खर्च हो जा रहा है। इस हालत में महंगी दवाइयां कोढ़ में खुजली का काम कर रही हैं। निम्न आय वाला एक साधारण आदमी दुर्भाग्यवश किसी बड़ी बीमारी की चपेट में आ जाता है तो वह अपना इलाज भी नहीं करा पाता है। उसे अपना जीवन भार लगने लगता है। आजकल आदमी को न तो शुद्ध अन्न मिल रहा है, न ही शुद्ध सब्जी। न ही शुद्ध पानी मिलता है, न ही शुद्ध दूध। न ताजी हवा मिल रही है, न ही स्वच्छ वातावरण। न शुद्ध विचार मिल रहा है, न ढंग का व्यवहार। इस स्थिति में किसी भी आयु का व्यक्ति कभी भी अवसाद में चला जा रहा है, तनाव में जी रहा है और फिर बीमार हो रहा है। एक साधारण आदमी बीमार होने पर वहीं सरकारी अस्पताल मैं जाता है, जहां सुबह से ही सैकड़ों लोगों की कतारें लगी रहती हैं। इलाज के लिए लोगों को कई-कई दिन तक अस्पताल के चक्कर काटने पड़ते हैं। सरकारी अस्पतालों में चिकित्सक से लेकर छोटे-छोटे उपकरणों की भी भारी कमी है। दवाई तो कभी उपलब्ध ही नहीं रहती है। इस कारण लोग बाजार से ही दवाइयां खरीदते हैं, जहां जमकर उनकी जेबें काटी जाती हैं।
सवाल उठता है कि क्या महंगी दवाइयां सस्ती नहीं हो सकती हैं? शायद नहीं, क्योंकि दवाई कम्पनियां चलाने वाले उद्योगपतियों और कानून बनाने वाले नेताओं के बीच बड़े गहरे रिश्ते होते हैं। उद्योगपति चुनाव लड़ने के लिए नेताओं को पैसे देते हैं और बदले में अपने उत्पादों का मनमाना दाम रखते हैं। ऐसे में भला उन पर लगाम कौन लगाएगा? जिन पर सरकारी अस्पतालों को ठीक करने की जिम्मेदारी है, जिनके पास दवा कम्पनियों को नियंत्रित करने का अधिकार है, वैसे लोग न तो कभी सरकारी अस्पताल जाते हैं, और न ही अपनी गांठ से दवा खरीदते हैं। उनके लिए तो पांचसितारा होटल जैसे अस्पताल हैं। कुछ होने पर वहीं भर्ती हो जाते हैं और सारा खर्च सरकार उठाती है। और यदि इनमें से किसी को थोड़ी बड़ी बीमारी हो जाए तो सीधे विदेश के लिए उड़ान भरते हैं। ऐसे लोग महंगी दवाइयों और सुविधाहीन होते सरकारी अस्पतालों की चिन्ता क्यों करें?
सब्जियों और अन्य खाद्य पदार्थों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी से भी आम आदमी परेशान है। छोटी आमदनी वाले लोग दिल्ली जैसे महानगर में बहुत ही कठिनाई से रह पा रहे हैं। एक कूरियर कम्पनी में 8500 रु. प्रतिमाह की तनख्वाह पर 'बाबू' का काम करने वाले सुभाष महंगाई से बड़े दुखी हैं। वे अपने तीन बच्चों और पत्नी के साथ दिल्ली के शाहदरा इलाके में किराए के मकान में रहते हैं। कहते हैं, 'अब दिल्ली में रहना मुश्किल होता जा रहा है। 4000 रु. घर के किराए में खर्च हो जाता है। 2000 रु. दफ्तर आने-जाने में और बाकी पैसे से पूरा राशन भी नहीं आ पाता है। पत्नी घर में थोड़ी सिलाई का काम करती है इसलिए गुजारा हो जाता है। किन्तु अब महंगाई की वजह से दिल्ली में रहना कठिन हो रहा है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल उठता है कि गांव में क्या करूं? वहां खेतों में काम करने के अलावा और कुछ काम है नहीं और 15 साल दिल्ली में रहने के बाद अब मुझसे खेती का काम होता भी नहीं है।'
सुभाष जैसे करोड़ों लोग हैं, जिन पर रोजाना महंगाई की मार पड़ रही है। आदमी बाजार जाता है, पर कीमत सुनकर ठिठक जाता है। पर सरकार सिर्फ झूठा आश्वासन देती रहती है कि कुछ समय बाद महंगाई रुक जाएगी।
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