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भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए अनेक कानूनी प्रावधान किए गए हैं। फिर भी आए दिन महिलाओं के साथ छेड़छाड़, भेदभाव होता रहता है। प्रताड़ना, शोषण, बलात्कार, यौन उत्पीड़न व यौन हिंसा जैसी घटनाएं निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। दूसरी ओर बाल विवाह, दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा व पर्दा प्रथा जैसी प्रवृत्तियां महिला उन्नयन के मार्ग में रोड़े अटका रही हैं।
देश में महिला-पुरुष अनुपात तेजी से घट रहा है। केरल को छोड़कर शेष सभी राज्यों में महिला-पुरुष की स्थिति चिंतनीय व विचारणीय है। इसके लिए कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती प्रवृत्ति ही जिम्मेदार है। महिला-पुरुष अनुपात हरियाणा में सबसे कम है। यह अच्छी बात है कि इस अनुपात को ठीक करने के लिए खाप पंचायतों ने आवाज उठानी शुरू कर दी है। कैसी विडम्बना है कि एक तरफ सम्पूर्ण विश्व में महिला विकास, महिला शिक्षा व महिला सशक्तिकरण की गूंज सुनाई पड़ रही है, दूसरी तरफ महिला अस्तित्व पर ही खतरे के बादल मंडरा रहे हैं।
इन दिनों देश में महिलाओं के प्रति अत्याचार, दुष्कर्म व यौन उत्पीड़न की घटनाओं की चर्चा खूब हो रही है। केवल चर्चा ही न हो इन घटनाओं को रोकने के सार्थक उपाय भी हों, क्योंकि ऐसी घटनाओं को कोई महिला या लड़की जीवनभर भूल नहीं पाती है। बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य की शिकार महिलाओं व बालिकाओं का जीवन उनके लिए अभिशाप बन जाता है। कुछ महिलाएं तो इन घटनाओं के बाद इतनी विक्षिप्त हो जाती हैं कि वे आत्महत्या तक कर लेती हैं। बालिकाओं व महिलाओं के साथ छेड़छाड़, उन पर ताने, व्यंग्य व फब्तियां कसना तो एक आम बात हो गई है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश में प्रति मिनट 106 महिलाएं छेड़छाड़ की शिकार होती हैं। एक अन्य अनुमान में भी देश में महिलाओं के प्रति बढ़ते उत्पीड़न व अत्याचारों की ओर संकेत करते हुए स्पष्ट किया गया है कि देश में प्रत्येक 29 मिनट में एक दुष्कर्म, 19 मिनट में एक हत्या, 77 मिनट में एक दहेज मृत्यु, 23 मिनट में एक अपहरण, 3 मिनट में हिंसा व 10 मिनट में एक धोखाधड़ी होती है।
इसी क्रम में समाज में दहेज रूपी दानव के कारण कई महिलाएं जिन्दा जला दी जाती हैं। सैकड़ों बहुएं मार दी जाती हैं। कई नारियां तलाक का दंश झेल रही हैं, तो कई महिलाएं ससुराल में अनेक यातनाओं को झेलते हुए जीवन काटने को विवश हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रपट में संकेत दिया गया है कि देश में करीब 7600 महिलाओं का जीवन वर्ष 2006 में दहेज के कारण नरकतुल्य हो गया। अकेले दिल्ली में प्रतिमाह लगभग 9 महिलाएं दहेज के कारण अपना जीवन दांव पर लगा देती हैं। देश की लगभग 70,000 महिलाएं वर्ष 2006 में पति व संबंधियों की क्रूरता झेल रही थीं, तो 10,000 महिलाएं यौन प्रताड़ना से ग्रसित थीं। तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद देश में प्रत्येक वर्ष अक्षय तीज पर कितनी ही नाबालिग बच्चियां विवाह की डोर में बंध जाती हैं। देश की लगभग 27 प्रतिशत बालिकाएं 15 वर्ष की आयु के पूर्व ही विवाह बंधन में बांध दी जाती हैं। कम आयु में ही अनेक उत्तरदायित्वों का बोझ उठाने से इन बालवधुओं का शारीरिक व मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
देश में महिलाओं के स्वास्थ्य की भी उपेक्षा की जाती है। देश की लगभग 32 करोड़ महिलाएं प्रजनन संबंधी रोगों से ग्रस्त हैं। गांवों की लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं ल्यूकोरिया, अल्सर तथा गर्भाशय कैंसर जैसे रोगों से जूझ रही हैं। ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि देश की लगभग 56 प्रतिशत महिलाएं 'खून की कमी' की शिकार हैं। इस कारण गर्भकाल में 20 प्रतिशत से अधिक मृत्यु, समय पूर्व शिशुओं के जन्म में तीन गुना वृद्धि तथा नौ गुना अधिक प्रसव पूर्व मृत्यु जैसे भयावह परिणाम दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
एक ओर महिलाएं शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी आदि की समस्याओं से जूझ रही हैं, तो दूसरी ओर समाज में उन्हें वह महत्व और स्थान नहीं दिया जा रहा है, जो उन्हें मिलना चाहिए। जब तक महिलाओं को महत्व नहीं दिया जाएगा, उनके प्रति पुरुष वर्ग का दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, तब तक महिलाओं के साथ वह सब कुछ होता रहेगा, जिसका सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है।
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