कांग्रेस राष्ट्र के उन्नयन का राजनीतिक उपकरण बनने की बजाय अब सत्ता केन्द्रित दल मात्र रह गई है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता लिप्सा पूरी होती रहे, चाहे इसके लिए राष्ट्रहित और जनहित तक को दांव पर लगाना पड़े, इसकी भी उसे परवाह नहीं। जिन गांधी की वारिस बनकर कांग्रेस सत्ता की राजनीति करती है, वह भूल गई है कि गांधी जी राजनीति को सत्ता की चेरी नहीं, जनसेवा का एक श्रेष्ठ साधन मानते थे, इसीलिए उन्होंने 'न्यासी का सिद्धांत' प्रतिपादित किया। लेकिन यह कांग्रेस के गले नहीं उतरता क्योंकि इसमें सत्ता की मलाई नहीं है। उसकी नजरों में बिना सत्ता की मलाई के राजनीति व्यर्थ है। यही कारण है कि कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के लगभग 8 वर्षों के कार्यकाल में सत्ता में बने रहने के लिए अपवित्र गठबंधन बनाए रखकर लोगों को खुलेआम देश का खजाना लूटने की छूट दे दी गई और देश में भ्रष्टाचार के अब तक के सारे 'रिकार्ड ध्वस्त' कर दिए गए। मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते सरकार ने उन्मादी और कट्टरवादी मजहबी ताकतों के आगे मानो घुटने टेक दिए। इसके लिए देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को अपराधी व आतंकवादी तक ठहराने में भी वह पीछे नहीं रही। देश के मुकुटमणि कश्मीर को वह पाकिस्तानपरस्त अलगाववादियों व आतंकवादियों के सुपुर्द करने की तैयारी में है, वार्ताकारों की रपट पर कांग्रेस का रवैया यही दर्शाता है। वर्तमान परिस्थितियों से कांग्रेस को उबारने की जिम्मेदारी का अर्थ केवल यही नहीं है कि वह चुनाव जीते, बल्कि यह भी है कि वह गांधी जी और अन्य राष्ट्रवादी कांग्रेसी नेताओं की विरासत के रूप में एक प्रामाणिक व राष्ट्र का हित चिंतन करने वाला दल बने। क्या राहुल गांधी यह कर पाएंगे? क्योंकि पद और दायित्व लेने से कोई बड़ी भूमिका में नहीं आ जाता, उसकी गरिमा के अनुरूप स्वयं को खड़ा करना और उस जवाबदारी को ईमानदारी से पूरा करना ही बड़ी भूमिका का परिचायक है। क्या राहुल गांधी यह समझते हैं?
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