दिलदारा दारा की याद में
|
देश–विदेश में भारतीय कुश्ती का सिक्का जमाकर रुस्तमे-हिंद और रुस्तमे-जहां (विश्व चैम्पियन) जैसे खिताब पाने वाले रुपहले पर्दे के पहले 'महाबली' दारा सिंह का 12 जुलाई को निधन हो गया।
सुदर्शन व्यक्तित्व और चेहरे पर सदा खिलती मंद मुस्कान वाले दारा पहलवानी, फिल्म, राजनीति, सामाजिक कार्य… जिस क्षेत्र में भी गए, वहां उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। उम्र 84 की थी, पर फिर भी चेहरे पर थकान का भाव नहीं उभरने दिया। मस्तमौला और यारों के यार, ऐसे थे दारा दिलदार।
1928 में अमृतसर के पास धरमचुक गांव में जन्मे राज्यसभा में भाजपा के पूर्व सांसद दारा सिंह ने '80 के दशक में रामानंद सागर के रामायण धारावाहिक में पवनपुत्र हनुमान का चरित्र ऐसा जीवंत किया था कि लगता था रामायणकाल के अंजनिपुत्र ऐसे ही रहे होंगे। दिल के धनी, दिलदारा दारा की याद में पंजाब के मल्टीप्लैक्स वालों ने सप्ताहांत में उनकी यादगार फिल्में दिखाना तय किया है। महाबली दारा सिंह की स्मृति को शत्-शत् नमन!
पड़ोसी से दूरी
…यह अच्छी बात नहीं है
अभी पिछले दिनों रियो डि जेनेरो में मौसमी बदलाव पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के मौके पर वहां चीनी प्रधानमंत्री वेन जिया बाओ और भूटान के प्रधानमंत्री जिग्मे योसर थिनले के बीच चर्चा-वार्ता हुई। दोनों की इस मुलाकात ने भारत के नीतिकारों के कान खड़े कर दिए। भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से भूटान भारत के बेहद करीब रहा है। कुछेक साल पहले उल्फा विद्रोहियों की छानबीन में भूटान भारत का मददगार रहा था। अलावा इसके, परम्परा से भारत-भूटान मैत्री महकती रही है। लेकिन इधर कुछ समय से सोनिया पार्टी की सरकार अपने ही घोटालों-झमेलों में इतनी उलझी रही कि देश से जुड़े मुद्दे पीछे हो गए। विदेश नीति का कोई ध्यानलेवा न रहा। पड़ोसी देशों से सदा भीने सम्बंधों का पक्षधर रहा और इसी डगर पर चला साउथ ब्लाक लापरवाह सरकार के तहत बेसुध होता गया। इसी का नतीजा निकला कि भारत के ज्यादातर पड़ोसी देश दूर छिटकते गए, क्या नेपाल और क्या श्रीलंका।
भारत के अलावा छोटा सा हिमालयी देश भूटान ही है जिसकी जमीनी सरहद चीन से सटी है और जिसका चीन से सरहद का विवाद चल रहा है। नेपाल के बारे में सब जानते ही हैं कि वह कम्युनिस्टों के शासनतले किस कदर धीरे-धीरे चीन के शिकंजे में जा रहा है। कारण वही, मनमोहन सरकार की सोनियापरस्त नीतियां। अब भूटान की तरफ चीन पींगें न बढ़ाए तो क्या करे। भारत के पड़ोसियों में भारत विरोधी भावनाएं भरकर चीन अपना दबदबा बढ़ाते जाने को आतुर है ही, सो भूटान के प्रधानमंत्री से दो-चार काम की बातें कर लेने में वेन देर क्यों लगाते? थिनले ने भी लगे हाथ चीन के साथ कूटनीतिक संबंध बनाने की इच्छा जता दी। हालांकि मामले के तूल पकड़ने पर भूटानी अधिकारियों ने ऐसी किसी बात से इनकार कर दिया, पर भारत की बेसुधी और पड़ोसी देशों के प्रति उसका बेपरवाह रुख देखकर छोटे पड़ोसी देश इलाके के 'दमदार' का दामन थामने को मजबूर होंगे ही। चीन भी मौके ताड़ने में माहिर है। दक्षिण एशिया के ज्यादातर देशों में वह किसी न किसी रूप में अपनी हाजिरी बढ़ा रहा है। भारत की विदेश नीति के महारथी मौजूदा भू राजनीति और देश के हित को ध्यान में रखें, ऐसी मांग ज्यादातर विशेषज्ञों की तरफ से उठ रही है।
पर कतरेंगे आई.एस.आई. के?
पाकिस्तान में सरकार और सियासी गलियारों को अपने साए से भयभीत रखने वाली वहां की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. को लेकर राष्ट्रपति जरदारी लंबे समय से ऊहापोह की स्थिति में हैं। इसे काबू करने की कई कोशिशों की समय-समय पर उनके बयानों से झलक भी मिली। उसी की कड़ी में, पिछले दिनों पाकिस्तानी संसद के ऊपरी सदन यानी सीनेट में एक दिलचस्प विधेयक बहस के लिए दाखिल किया गया है। आई.एस.आई. की सरकार और संसद के प्रति जवाबदेही की बात करने वाले इस 19 पन्नों के विधेयक पर अगले हफ्ते शुरू होने जा रहे सत्र में चर्चा होने की उम्मीद है। बताते हैं, राष्ट्रपति जरदारी के प्रवक्ता फरहतुल्ला बाबर द्वारा संसद में दाखिल किए गए इस विधेयक की बाबत सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने अपने गठबंधन के सहयोगियों से मशविरा कर लिया था। इस विधेयक, 'इंटर सर्विसिस इंटेलिजेंस एजेंसी (कार्य, अधिकार और नियमन) कानून-2012' का मजमून है कि यह खुफिया एजेंसी संसद और प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह हो। आई.एस.आई. को कायदे से चलाने की इससे पहले कभी कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई है। यह देखना दिलचस्प होगा कि पाकिस्तानी संसद में इस पर क्या चर्चा होती है और यह कानून सिरे चढ़ता है या नहीं। l
राजशाही की आस!
नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल, राजनीतिक दलों में टकराव, नेताओं की महत्वाकांक्षाओं, चीनी दखलंदाजी और कम्युनिस्टों के उभार-उतार के दौर में आम आदमी के सरोकारों की अनदेखी होना स्वाभाविक ही था। राजशाही खत्म होने के बाद लोकतांत्रिक शासन की डगर पर बढ़ते देश में एक आस बंधी थी। लेकिन सालों साल की ऊहापोह और आतीं-जातीं सरकारों से वह आस कहीं टूटती नजर आ रही है। ऐसे में, महल से गए आखिरी राजा ज्ञानेन्द्र को राजशाही के लौटने के आसार नजर आएं तो आश्चर्य कैसा। 8 जुलाई को एक टेलीविजन इंटरव्यू में पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र ने अपने मन की बात सामने रख दी कि देश को एकजुट रखने के लिए राजशाही वापस लाना ठीक रहेगा।
दरअसल पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र पश्चिम नेपाल के दौरे पर गए थे जहां उनके इंतजार में बड़ी संख्या में लोग सड़क किनारे खड़े मिले। उनमें से कइयों ने पूर्व राजा के सामने शिकायतें रखीं। एक ने कहा, आज तो इंसान के खून की कीमत पानी की एक बोतल की कीमत से भी कम हो गई है। दूसरे ने कहा, खुलकर मतान्तरण किया जा रहा है, हिन्दू अल्पसंख्यक हो चले हैं। लोगों ने कहा, 'कुछ तो करो, इससे पहले कि देर हो जाए।'
तालिबानी कमांडर का 'सच'
ग्वाटेनामो जेल में सजा काट चुके तालिबान के बड़े वाले कमांडरों में से एक पूर्व कमांडर ने खुलासा किया है कि अफगानिस्तान में जिहादी जंग नहीं जीत सकते और काबुल को गिरफ्त में करना दूर का ख्वाब है। उसने अफगानिस्तान की सियासी ताकतों के साथ सुलह-सफाई कर लेने पर भी जोर दिया है। इस पूर्व कमांडर का यह खुलासा न्यू स्टेट्समैन में छपे उसके इंटरव्यू से हुआ है। इंटरव्यू में इस पूर्व कमांडर का नाम नहीं छापा गया है, पर जिसने यह इंटरव्यू लिया है वह हैं माइकल सेम्पल, तालिबानी राज के दौरान काबुल में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व राजदूत। उस पूर्व तालिबानी कमांडर की मानें तो, 70 फीसदी तालिबानी अल-कायदा से नाराज हैं, जो उसे अपने गुट पर लदे रोग की तरह मानते हैं। उसके अनुसार, 'लादेन वध से उन्हें राहत का अहसास हुआ था, क्योंकि उसने अपनी नीतियों से अफगानिस्तान को बर्बाद कर दिया था। अगर वह सच में जिहाद पर यकीन करता था तो उसे सऊदी अरब जाकर जिहाद छेड़ना था, हमारे देश को तबाह करने के बजाय।' उस कमांडर को अखबार ने सब जगह 'मौलवी' ही लिखा, कहीं नाम नहीं छापा। आलोक गोस्वामी
टिप्पणियाँ