मंथन
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मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
भारत कैसे बना रहे भारत-5
संत या शकुनि?
6 फरवरी, 1931 को पं.मोतीलाल नेहरू के देहावसान में शोकग्रस्त जवाहर लाल, गांधी जी और कार्यसमिति के सदस्यगण जब इलाहाबाद में उनके अंतिम संस्कार में व्यस्त थे, उसी दिन गोलमेज सम्मेलन से लौटे 26 प्रतिनिधियों ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी करके ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडॉनल्ड के 19 जनवरी के वक्तव्य को भारत की स्वतंत्रता का घोषणा पत्र बना दिया। श्रीनिवास शास्त्री तुरंत दिल्ली में वायसराय लार्ड इर्विन से भेंट करने के लिए रवाना हो गए और तेज बहादुर सप्रू व जयकर इलाहाबाद के लिए चल पड़े। शास्त्री ने वायसराय से लम्बी बात की। बताया कि यदि गोलमेज सम्मेलन की सफलता के लिए गांधी जी को वहां ले जाना आवश्यक है तो वायसराय को गांधी जी को मनाने का भगीरथ प्रयास करना ही होगा। शास्त्री ने इर्विन को गुरुमंत्र दिया कि गांधी जी का व्यक्तित्व महान होते हुए भी उनके अचेतन मानस में अहं का तत्व मौजूद है, जिसका लाभ उठाते हुए वायसराय को उन्हें एक घमण्डी स्त्री की तरह रिझाना होगा। गांधी जी से एक वायसराय की तरह नहीं बल्कि एक गैरराजनीतिक श्रद्धावान धार्मिक पुरुष के धरातल पर विनम्रता के साथ संवाद करना होगा।
संत बनाने का षड्यंत्र
अप्रैल, 1926 में वायसराय के रूप में बम्बई बंदरगाह पर पहुंचने के क्षण से ही इर्विन के चारों ओर “एक श्रद्धालु धार्मिक व्यक्ति” का आवरण खड़ा करना शुरू कर दिया गया था। 1957 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा “फुलनेस ऑफ डेज” में इर्विन स्वयं लिखते हैं कि मेरे भारत आगमन के बारे में एक कथा प्रचलित हो गयी कि उस दिन गुड फ्राइडे होने के कारण मैं जहाज से उतरते ही चर्च में दौड़ गया, जबकि मैं एक दिन पहले बृहस्पतिवार को बम्बई पहुंचा था। इधर शास्त्री ने वायसराय को गांधी जी को रिझाने का गुर बताया, उधर इलाहाबाद पहुंचकर गांधी जी के सामने इर्विन की पंथ-निष्ठा, गैरराजनीतिक प्रकृति और भारत का हितचिंतक होने का वर्णन किया। कहा कि वे इर्विन को वायसराय के रूप में नहीं बल्कि अपने जैसा धर्मनिष्ठ पुरुष मानकर वार्तालाप करें। उन्होंने गांधी जी के मन में यह भी धारणा बैठा दी कि ब्रिटिश सरकार अब भारत को अविलम्ब औपनिवेशिक स्वराज्य देने का मन बना चुकी है। गांधी जी को अगले गोलमेज सम्मेलन में जाकर केवल सत्ता हस्तांतरण पर औपचारिक हस्ताक्षर करने हैं। शास्त्री ने गांधी जी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि आपके निकट सहयोगियों में से आधा दर्जन व्यक्तियों की भी अहिंसा पर पूरी आस्था नहीं है, आपके बाद कांग्रेस में अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। अत: अपने सामने ही आप भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य दिलाने की औपचारिकता पूरी कर जाइये। श्रीनिवास शास्त्री के इस मार्मिक संवाद से उत्साहित होकर गांधी जी ने 14 फरवरी, 1931 को इर्विन को पत्र में लिखा कि मैं आपसे वायसराय के नाते नहीं बल्कि एक व्यक्ति के धरातल पर भेंट करना चाहता हूं। और वायसराय ने तुरंत उन्हें बुलावा भेजकर 17 फरवरी से वार्ता आरंभ कर दी।
17 फरवरी को ही शास्त्री जी ने अपने मित्र टी.आर.वेंकटराम शास्त्री को दिल्ली स्थित पुराने वायसराय निवास से पत्र लिखा कि, “आज दोपहर से “जीवित ईसा मसीहों” में भेंट आरंभ हो गयी। सप्रू, जयकर और मैंने उन्हें एक-दूसरे से मिलने के लिए तैयार किया है। परिणाम जानने के लिए हम लोग महात्मा से मिल रहे हैं। यदि उनका निशाना ठीक बैठ गया तो गंभीर वार्ता आरंभ होगी। तब बीकानेर और भोपाल (नरेश), शफी और छतारी (मुस्लिम नेता), मालवीय और अंसारी और हम लोग उस वार्ता में सम्मिलित होंगे।”
इर्विन की योजना
गांधी-इर्विन वार्ता की स्थिति पैदा करने में अपने योगदान को शास्त्री एवं अन्य नरमदलीय नेता आवश्यकता से अधिक आंक रहे थे। वस्तुत: वायसराय इर्विन के दो भारत सचिवों- बर्केनहैड और वेजवुड बेन के साथ पत्राचार और उनकी आत्मकथा के प्रकाशन के बाद अब इस समझौते की अन्तर्कथा पर से रहस्य का पर्दा पूरी तरह हट चुका है। इस पत्राचार से पहली बात तो यह उभर कर सामने आती है कि अप्रैल, 1926 में भारत आगमन के क्षण से ही इर्विन की पहली चिंता यही थी कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के स्थायित्व के लिए क्या नीति अपनायी जाए। भारत सचिव बर्केनहैड को कई पत्रों में उन्होंने सूचित किया था कि राष्ट्रवाद के उभार के विरुद्ध मुसलमानों, देशी नरेशों और नरमदलीय नेताओं के समर्थन पर ही वे निर्भर कर सकते हैं। तुरंत सत्ता हस्तांतरण की वह कल्पना भी नहीं करते थे। केवल गोरी चमड़ी का “साईमन कमीशन” बनाने की सलाह भी इर्विन ने ही भारत सचिव को दी थी, उसी ने विश्वास दिलाया था कि उसका भारत में विरोध नहीं, स्वागत होगा। “साईमन कमीशन” के सर्वदलीय बहिष्कार और कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1928) में “पूर्ण स्वतंत्रता बनाम औपनिवेशिक स्वराज्य” की बहस गर्म होने से घबराकर इर्विन जून, 1929 में भागे-भागे लंदन गये और वहां उन्होंने ही लेबर पार्टी की नई सरकार में भारत सचिव वेजवुड बेन को सलाह दी कि जल्दी से जल्दी गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाए और बिना समय सीमा निर्धारित किए यह घोषणा की जाए कि भारत की राजनीतिक यात्रा का गंतव्य औपनिवेशिक राज्य का दर्जा ही होगा। भारत सचिव की सहमति लेकर ही उन्होंने भारत लौटकर 31 अक्तूबर, 1929 को इस आशय की ऐतिहासिक घोषणा कर डाली और मोती लाल नेहरू ने भी तुरंत दिल्ली में शीर्ष नेताओं की सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस घोषणा का स्वागत कर डाला। इससे आशंकित होकर ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों में सभी दलों के नेताओं ने भारत को औपनिवेशिक राज्य का दर्जा देने की घोषणा का प्रबल विरोध किया। ब्रिटिश संसद की इस बहस से चिंतित होकर गांधी जी, मोती लाल नेहरू, सप्रू एवं जिन्ना ने 23 दिसम्बर, 1929 को वायसराय इर्विन से सामूहिक भेंट की। इर्विन की आत्मकथा के अनुसार इस भेंट में अधिक समय गांधी जी बोले। उन्होंने वायसराय से अपनी घोषणा को पूरा करने की निश्चित समय सीमा निर्धारित करने का अनुरोध किया। इसे मानने से इर्विन ने स्पष्ट शब्दों में इनकार कर दिया। जिसका परिणाम एक सप्ताह बाद लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की मांग व गोलमेज सम्मेलन और विधान परिषदों के बहिष्कार तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ करने की घोषणा में हुआ।
इर्विन की दुविधा
इर्विन को पूर्ण विश्वास था कि 12 मार्च, 1930 से आरंभ होने वाला सविनय अवज्ञा आंदोलन पूरी तरह विफल होगा और उपहास का विषय बनेगा। अगले दिन (13 मार्च को) उसने भारत सचिव बेन को लिखा कि “मैं गांधी से मुकाबले का रास्ता सोच रहा हूं।” 7 अप्रैल के पत्र में इर्विन ने लिखा कि “अच्छा हो कि ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के अनुसार इस साल वह मर ही जायें।” 24 अप्रैल को लिखा कि “एक समुदाय के रूप में मुसलमान इस आंदोलन से पूरी तरह अलग खड़े हैं। पर 22 मई तक उसका आत्मविश्वास डिगने लगा था। भारत सचिव को उस दिन के पत्र में इर्विन ने लिखा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि गांधी हिन्दुओं में बहुत व्यापक राष्ट्रवादी आंदोलन पैदा करने में सफल हो गये हैं, जो मेरी जानकारी में किसी भी भारतीय या ब्रिटिश पर्यवेक्षक के लिए कल्पनातीत है। साथ ही इस आंदोलन को परास्त करने के लिए बड़े नेताओं को रंगमंच से हटाने की हमारी नीति सफल नही हुई है।” इससे वह इतना अधिक चिंतित हो गया था कि उसे दो ही विकल्प दिखाई देने लगे- आंदोलन का दमन या गांधी के सामने आत्मसमर्पण।
प्रारंभ में उसने दमन का रास्ता अपनाया। इसके लिए उसने अनेक दमनकारी अध्यादेश जारी किए। 1910 के प्रेस एक्ट को पुनरुज्जीवित किया। 67 अखबारों और 35 छापेखानों की तालाबंदी कर दी। 4 मई की रात के 12.30 बजे गांधी जी को बंदी बनाया। 21 मई को सूरत जिले में 2500 सत्याग्रहियों पर निर्मम लाठीचार्ज किया। लगान वसूलने के लिए हजारों किसानों की जमीन-जायदाद को कुर्क कर दिया, उनकी जमीनें जब्त कर लीं। देश भर में पुलिस का अत्याचार छा गया। परंतु आंदोलन की आग बुझने की बजाय फैलती ही गयी। तब घबराकर 24 मई को उसने बेन को लिखा, “इस तथ्य को छिपाने की कोशिश करके हम भारी भूल करेंगे कि इस समय हम एक भारी संकट से घिर गए हैं।” 2 जून, 1930 को लिखा कि यह आंदोलन बहुत गहरा है और भारत-समाज के सब स्तरों तक फैल गया है। यह उनके दिलोदिमाग पर छा गया है और उन्हें मैदान में उतार लाया है। स्पष्ट है कि इसमें बहुत खतरनाक संभावनाएं छिपी हैं। अब मुझे विश्वास हो गया है कि केवल दमनकारी उपायों से हम समस्या का सही हल नहीं खोज पाएंगे। उनकी जगह हमें रचनात्मक नीति की संभावनाओं को खोजना होगा। 13 और 24 जून, 1930 को “साईमन कमीशन” रपट के प्रकाशन के बाद तो उसकी घबराहट और भी बढ़ गयी। क्योंकि उस रपट में औपनिवेशिक दर्जे का उल्लेख तक नहीं था। इस घबराहट में इर्विन ने बेन को सलाह दी कि साईमन रपट को ठंडे बस्ते में डालकर गोलमेज सम्मेलन को जल्दी से जल्दी बुलाया जाए। उसमें गांधी जी व कांग्रेस को लाने का पूरा प्रयास किया जाए ताकि भारतीयों का ध्यान आंदोलन से हटकर रचनात्मक सोच में लगे। उस सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों की चयन प्रक्रिया आरंभ हो और सम्मेलन का एजेंडा व बहस के बिन्दु तैयार किए जाएं।
इर्विन का सम्मोहन?
इसी के बाद उसने अपने मित्रों, नरमदलीय नेताओं, सप्रू व जयकर को जेल में गांधी जी एवं अन्य कांग्रेस नेताओं को गोलमेज सम्मेलन में जाने को मनाने के लिए वार्ता हेतु भेजा। वी.एन.श्रीनिवास शास्त्री उन दिनों इंग्लैण्ड में होने के कारण उपलब्ध नहीं थे। यह प्रयास विफल गया, क्योंकि कांग्रेस नेताओं ने वहां जाने से इनकार कर दिया था और गांधी जी सहित सात नेताओं के हस्ताक्षरों से वायसराय को अपनी शर्तें सूचित कर दी थीं। 26 जनवरी, 1931 की सायंकाल जेल से रिहा होने के बाद भी गांधी जी ने अपनी ग्यारह मांगें वायसराय को लिखित रूप में भेजीं। परंतु लार्ड इर्विन ने उनमें से एक भी मांग स्वीकार नहीं की। उसकी एकमात्र चिंता थी कि गांधी जी अपने आंदोलन को समाप्त कर दें और गोलमेज सम्मेलन में जाने की सहमति दे दें। ये दोनों लक्ष्य उसने प्राप्त कर लिए। गांधी जी ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा 19 जनवरी को निर्धारित सीमाओं के भीतर ही गोलमेज सम्मेलन में चर्चा करने की शर्त भी स्वीकार कर ली।
इर्विन का सम्मोहन उन पर किस सीमा तक सवार था, इसके कुछ उदाहरण इर्विन की आत्मकथा में उपलब्ध हैं। इर्विन लिखते हैं कि दूसरे दिन की वार्ता के अंत में उन्होंने गांधी जी के सामने अगले दिन से भारत सरकार के गृह सचिव इमर्सन को भी वार्ता के समय मौजूद रहने का सुझाव दिया तो उन्होंने तुरंत मान लिया, जबकि वे जानते थे कि वह बहुत जालिम है। इसी प्रकार जब गांधी जी ने कहा कि वे चाहते हैं कि आंदोलन को “समाप्त करने” की भाषा की जगह “स्थगित करने” की भाषा लिखी जाए तो इर्विन अड़ गए और गांधी जी को “समाप्त करने” शब्द ही स्वीकार करने पड़े। जब गांधी जी पुलिस अत्याचारों की जांच की मांग पर दो-तीन दिन तक अड़े रहे तो इर्विन ने उन्हें दो टूक शब्दों में कहा कि पूरी संभावना है कि आप सविनय अवज्ञा आंदोलन पुन: आरंभ करें और तब मैं नहीं चाहूंगा कि हमारी पुलिस दुम दबाकर हतबल खड़ी रहे। इर्विन की इस बेबाकी से प्रभावित होकर गांधी जी ने इतनी आवश्यक मांग को भी छोड़ दिया। यदि तथ्यों की कसौटी पर देखा जाए तो गांधी- इर्विन समझौता, जिसके लिए इर्विन ने अपनी आत्मकथा में “तथाकथित” शब्द का प्रयोग किया है, एकपक्षीय समझौता था, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने वह सब पा लिया जो वे चाहते थे और गांधी जी ने वह सब गंवा दिया जिसके लिए उन्होंने विशाल आंदोलन छेड़ा था, और जिसके पीछे राष्ट्रभक्त हिन्दू समाज पूरी तरह खड़ा हो गया था। यह देखकर 1915 में शरशैय्या पर पड़े गोपाल कृष्ण गोखले की एम.आर.जयकर को गांधी जी के बारे में यह चेतावनी स्मरण आ जाती है कि, “इस व्यक्ति में ऐसा कुछ है कि वह समाज के अंतिम व्यक्ति से तुरंत तादात्म्य स्थापित कर लेता है, पर कूटनीतिक वार्ता की मेज पर उसकी सफलता में संदेह है।” द
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