आवरण कथा 1
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चैत्र शुक्ल प्रतिपदा सं. 2069 विक्रमी (23 मार्च 2012) पर विशेष
अपने पर गर्व करें
साकेन्द्र प्रताप वर्मा
भारत में एक बड़ा अजीब सा चलन है। एक जनवरी आते ही (अंग्रेजी) नववर्ष की शुभकामनाओं का तांता लग जाता है, किन्तु अपने नव संवत्सर पर गर्व करने में हमें संकोच लगता है। जबकि भारतीय कालगणना का विश्व में मुकाबला नहीं हैं, क्योंकि यह कालगणना ग्रह-नक्षत्रों की गति पर आधारित है। प्रत्येक मास में पूर्णिमा को जो नक्षत्र होता है, उसी नाम पर भारतीय महीनों का नाम रखा गया है। चित्रा नक्षत्र के आधार पर चैत्र, विशाखा नक्षत्र के आधार पर वैशाख, ज्येष्ठा नक्षत्र के आधार पर ज्येष्ठ, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के आधार पर आषाढ़, श्रवण नक्षत्र के आधार पर श्रावण, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र के आधार पर भाद्रपद, अश्विनी नक्षत्र के आधार पर आश्विन, कृतिका नक्षत्र के आधार पर कार्तिक, मृगशिरा नक्षत्र के आधार पर मार्गशीर्ष, पुष्य नक्षत्र के आधार पर पौष, माघ नक्षत्र के आधार पर माघ, उत्तर-फाल्गुनी नक्षत्र के आधार पर फाल्गुन मास निर्धारित हैं। चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण की वर्षों पूर्व की कालगणना भारतीय पंचांग में है। फिर भी विक्रमी संवत् पर गर्व करने में संकोच क्यों?
भारतीय ज्योतिष कहीं आगे
कुछ दिन पूर्व शताब्दी का सबसे बड़ा सूर्यग्रहण हुआ। भारतीय ज्योतिष के विद्वानों ने बहुत पहले से बताना प्रारंभ कर दिया था कि अमुक दिन, अमुक समय सूर्यग्रहण होगा। किन्तु यूरोपीय विद्वानों ने अविश्वास का वातावरण बनाना प्रारंभ कर दिया। नासा ने 120 करोड़ रुपए खर्च करके पता किया कि भारतीय ज्योतिष में जो कहा गया है, वही ठीक है। किन्तु आगे की गणनाएं ठीक होंगी, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, यानी फिर से एक अविश्वास की रेखा।
अपनी कालगणना का हम सतत् स्मरण करते हैं, किन्तु हमें ध्यान नहीं रहता है। जब हम किसी नये व्यक्ति से मिलते हैं तो उसे अपना परिचय देते हैं कि अमुक देश, प्रदेश या गांव के निवासी हैं, अमुक पिता की संतान हैं। इसी प्रकार जब हम किसी शुभकार्य को संपन्न करने के लिए किसी देवशक्ति का आवाहन करते हैं तो संकल्प करते समय उसे अपना परिचय बताते हैं। संकल्प के समय मंत्र में जो कहा गया है उसमें हमारी कालगणना भी होती है।
इस समय श्वेत वाराह कल्प चल रहा है। कल्प को ब्रह्मा की आयु का एक दिन माना गया है, किन्तु यह कालगणना की इकाई भी है। एक कल्प में 14 मनवन्तर, 1 मनवन्तर में 71 चतुर्युग तथा एक चतुर्युग में 43 लाख 20 हजार वर्ष होते हैं जिसका 1/10 भाग कलियुग, 2/10 भाग द्वापर, 3/10 भाग त्रेता तथा 4/10 भाग सतयुग होता है। इस समय सातवें वैवस्वत नामक मनवन्तर का अट्ठाईसवां कलियुग है। हमें स्मरण होगा कि महाभारत का युद्ध समाप्त होने के 36 वर्ष बाद भगवान श्रीकृष्ण ने महाप्रयाण किया। यह घटना ईसवी सन् प्रारंभ होने से 3102 वर्ष पहले की है। मान्यता है कि श्रीकृष्ण भगवान के महाप्रयाण के साथ ही कलियुग प्रारंभ हो गया अर्थात ईसवी सन् 2012 में कलियुग को प्रारंभ हुए 5114 वर्ष हो गये, जिसे युगाब्द या कलि संवत् कहते हैं। ब्रह्मपुराण में भी लिखा गया है कि यही वह दिन है जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की।
“इण्डिया” आगे रखा
सारी श्रेष्ठताओं के बाद भी विक्रमी संवत् भारत का राष्ट्रीय पंचांग क्यों नहीं बन सका, यह स्वाभाविक कौतुहल का विषय है। हमें पता है कि अपना देश सन् 1947 में अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त हुआ। स्वाधीनता के बाद हमने देश से अंग्रेजियत के सारे प्रतीक मिटाने का संकल्प लिया। कुछ भवनों और सड़कों के नाम भी बदले। किन्तु स्वाधीन भारत में भारतीयता तब और पीछे चली गयी जब देश के संविधान की शुरुआती पंक्तियों में ही हमने “इण्डिया दैट इज भारत” लिख दिया। वैसे अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से हमसे यह काम करवा लिया। क्योंकि इसके पीछे वही भावना काम कर रही थी, जिसका उल्लेख मैकाले ने 12 अक्तूबर 1836 को अपने पिता को लिखे पत्र में किया था, कि “आगामी सौ साल बाद भारत के लोग रूप और रंग में तो भारतीय दिखेंगे, किन्तु वाणी, विचार और व्यवहार में अंग्रेज हो जायेंगे।” सचमुच ही आज के समाज जीवन में वेशभूषा और भाषा ही नहीं, जन्मदिन, पर्व-त्योहार, शादी-विवाह आदि समारोह मनाने के तौर-तरीकों में भारतीयता पीछे चली गयी। अपने वित्तीय वर्ष के प्रथम दिन एक अप्रैल को हम “मूर्ख दिवस” मनाने लगे, ईसा के जन्म दिन को बड़ा दिन मान लिया, वेलेन्टाइन डे और शादी की वर्षगांठ हमारे जीवन में उतर आये, किन्तु श्राद्ध-पर्व भूल गये। अंग्रेजी नववर्ष याद रहा, किन्तु अपना नववर्ष भूल गये।
अंग्रेजियत हावी रही
सन् 1996 तक तो हम संसद में आम बजट भी अंग्रेजों के समयानुसार शाम को 5 बजे प्रस्तुत करते थे। जबकि 5 बजे संसद व अन्य सरकारी कार्यालय बन्द होने का समय निर्धारित किया गया है। लेकिन ऐसा हमने अंग्रेजों को खुश करने के लिए किसी जमाने में किया था। क्योंकि जब भारत में शाम के 5 बजते हैं तो इंग्लैण्ड में दिन के साढ़े ग्यारह बजते हैं। हम इंग्लैण्ड की घड़ी के हिसाब से बजट पेश करते थे। इतना ही नहीं ऐतिहासिक शब्दावली में ईसा से पूर्व (बीसी) तथा ईसा के बाद (एडी) शब्दों का प्रयोग करने लगे। आजाद हिन्दुस्थान का पहला गर्वनर जनरल माउन्टबेटन को बनाया गया। उसने हमारी ओर से भारत के प्रथम राष्ट्राध्यक्ष के रूप में “किंग जार्ज” के प्रति वफादारी की शपथ ली, इसी कारण 14/15 अगस्त की मध्यरात्रि को असंख्य शहीदों के बलिदानों को धूल धूसरित कर ब्रिटिश झण्डा सलामी देकर सम्मानपूर्वक उतारा गया। अंग्रेजियत में रचे बसे नेहरू के हाथ में देश की बागडोर तो आ गयी किन्तु इण्डियावादी दृष्टि से भारत को मुक्ति नहीं मिल सकी। उसी का परिणाम था कि जब 1952 में प्रो. मेघनाद साहा की अध्यक्षता में पंचांग सुधार समिति बनी तो उसने भी भारतीयता को आगे बढ़ने से रोक दिया। समिति की रपट सामने आयी तो पता चला कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उपयुक्त मानकर शक संवत् को राष्ट्रीय पंचांग तथा ग्रगेरियन कैलेण्डर को अन्तरराष्ट्रीय कैलेण्डर के रूप में मान्यता दे दी गयी। वस्तुत: समिति का यह कुकृत्य भी इण्डियावादी दृष्टिकोण को ही प्रकट करता है। शक संवत् ग्रगेरियन कैलेण्डर से 79 वर्ष छोटा है तथा विक्रम संवत् 57 वर्ष बड़ा है। ऐसी स्थिति में यदि विक्रम संवत् को समिति राष्ट्रीय पंचांग मानती तो अंग्रेजों के नाराज होने का खतरा था।
अंग्रेजी कैलेण्डर भ्रामक है
ग्रगेरियन कैलेण्डर का वैज्ञानिकता से दूर तक का रिश्ता नहीं है। इन दोनों पंचांगों में 365 दिन 6 घंटे का हिसाब तो है, किन्तु 9 मिनट 11 सेकेण्ड का कोई हिसाब नहीं, जबकि पृथ्वी अपनी धुरी पर इतने ही समय में सूर्य का एक चक्कर लगाती है। वैसे भी ग्रगेरियन कैलेण्डर का मुख्य आधार रोमन का कैलेण्डर है जो ईसा से 753 साल पहले चला था उसमें 10 माह तथा 304 दिन थे। उसी के आधार पर सितम्बर 7वां, अक्तूबर 8वां, नवम्बर 9वां तथा दिसम्बर 10वां महीना था। 53 साल बाद वहां के शासक नूमा पाम्पीसिपस ने जनवरी और फरवरी जोड़कर 12 महीने तथा 355 दिनों का रोमन वर्ष बना दिया तथा अत्यन्त हास्यास्पद तरीके से सितम्बर 9वां, अक्तूबर 10 वां, नवम्बर 11वां तथा दिसम्बर 12वां महीना हो गया, जो आज तक चल रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन्हीं पंचांगों को हमने सर्वश्रेष्ठ मानकर स्वीकार कर लिया। जरूरत इस बात की है कि भारत अपने आत्मगौरव को पहचाने, अपने नववर्ष पर गर्व करे।द
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