मंथन
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भारत कैसे बना रहे भारत-4
स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की यह एक अनसुलझी गुत्थी है कि 1930 के नमक सत्याग्रह में जब भारतीय राष्ट्रवाद ने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य को पाने के लिए अपने विराट रूप का प्रदर्शन कर ब्रिटिश साम्राज्य को हतप्रभ कर दिया था, जब वह आंदोलन शहरी मध्यम वर्ग से आगे बढ़कर गुजरात, उत्तर प्रदेश और बिहार के गांव-गांव में फैल गया था, नारी शक्ति विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और शराब की दुकानों की बंदी की अग्रिम पंक्ति में खड़ी होकर पुलिस के बर्बर दमन का शिकार बन रही थी, जेलों को भर रही थी, जब गांधी जी अपनी लोकप्रियता के चरम शिखर पर खड़े थे, तब उन्होंने अचानक 14 फरवरी, 1931 को ब्रिटिश वायसराय लार्ड इर्विन को पत्र लिखकर भेंट का समय देने की प्रार्थना क्यों की? वायसराय भी आतुरता से उनके पत्र की प्रतीक्षा कर रहे थे। वस्तुत: श्रीनिवास शास्त्री, तेजबहादुर सप्रू और एम.आर.जयकर नामक लिबरल (नरमदलीय) तिगड़ी के माध्यम से वायसराय ने स्वयं गांधी जी की ओर से यह पत्र पाने का जाल बिछाया था। 17 फरवरी को गांधी-इर्विन वार्तालाप आरंभ हुआ और 5 मार्च को एक समझौते के रूप में ब्रिटिश सरकार के असाधारण गजट में प्रकाशित होकर देश के सामने आया। बताया गया कि इस दौरान गांधी जी वायसराय निवास आठ बार गये, कुल 24 घंटे इर्विन के अध्ययन कक्ष में उन दोनों के बीच बिल्कुल अकेले में अनौपचारिक वार्ता हुई। कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य दिल्ली में मौजूद अवश्य थे। गांधी जी वायसराय निवास से कभी रात के एक बजे, कभी प्रात: 4 बजे पैदल लौटकर जितना कुछ बताते थे, उतना ही वे जानते थे। वार्ता को अंतिम रूप देने के पहले, 4 मार्च की रात्रि में तो गांधी जी ने कार्यसमिति को समझौते को आंख मूंदकर स्वीकार करने के लिए वचनबद्ध कर लिया था।
गांधी-इर्विन वार्ता और नेहरू-सुभाष
उस समय तो वायसराय और गांधी जी के वार्तालाप पर गोपनीयता का मोटा पर्दा पड़ा हुआ था। उस काल के दस्तावेजों के प्रकाश में आने के बाद ज्ञात होता है कि वायसराय इर्विन की प्रारंभिक योजना थी कि 17 फरवरी को गांधी जी से पहली भेंट के बाद समझौता विषयक वार्तालाप के समय शास्त्री, सप्रू, जयकर के अतिरिक्त कांग्रेस कार्यसमिति के कुछ चुने हुए सदस्य, महाराजा बीकानेर, मुहम्मद शफी आदि प्रथम गोलमेज सम्मेलन से लौटे सदस्य भी उपस्थित रहें। एक प्रकार से दिल्ली में “मिनी गोलमेज सम्मेलन” आयोजित करने का उनका विचार था। किन्तु बाद में स्वयं या किसी अन्य के सुझाव पर उन्हें लगा कि अधिक लोगों की उपस्थिति में वार्तालाप बिखर जाने का खतरा है, इसलिए गांधी जी से अकेले में बात करना ही परिणामकारी हो सकेगा। इस योजना परिवर्तन की पुष्टि श्रीनिवास शास्त्री द्वारा 17 फरवरी को ही लिखे गए एक पत्र से होती है। फिर भी वायसराय की सहायता के लिए गृह सचिव एमर्सन, एडवर्ड केराट और बी.एल.मित्तर तो उनके पास वाले कमरे में बैठते ही थे। तीनों नरम दलीय नेता भी पूरे समय दिल्ली में डटे रहे और वायसराय भवन तथा डा. अंसारी के दरियागंज स्थित निवास के बीच लगातार दौड़ते रहकर मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे। इनके अतिरिक्त लंदन में भारत सचिव वेजवुड बेन और वायसराय के बीच लगातार तारों का आदान-प्रदान होता रहता था। 17 फरवरी की पहली बैठक में गांधी जी को टटोल लेने के बाद तो इर्विन ने वार्तालाप को कई दिन के लिए स्थगित कर दिया और इस अंतराल का उपयोग भारत सचिव के साथ समझौते के बारीक बिन्दुओं पर मार्गदर्शन और सहमति पाने के लिए किया। संभवत: समझौता वार्ता के हित में ब्रिटिश सरकार ने सुभाष चन्द्र बोस को उन दिनों कारावास में बंद रखा। समझौता 5 मार्च को हुआ और 15 मार्च को सुभाष बोस को रिहा किया गया। रिहा होते ही वे गांधी जी के पास अपना विरोध दर्ज कराने के लिए भागे-भागे बम्बई पहुंच गए। समझौते के विरुद्ध अपने सब तर्क सुभाष ने “इंडियन स्ट्रगल” नामक अपनी रचना में प्रस्तुत किए हैं। नेहरू जी भी इस समझौते से पूरी तरह असहमत थे, पर दिल्ली में मौजूद होते हुए भी वे बहुत कुछ नहीं कर सके। एक तो वे उस समय कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष थे, दूसरे अंग्रेजों को विश्वास था कि पूरी तरह असहमत होने पर भी जवाहर लाल में गांधी के विरुद्ध जाने का साहस नहीं है। और नेहरू जी की अपनी आत्मकथा उनके इस विश्वास को सही सिद्ध करती है। ब्रिटिश शासकों ने प्रत्येक राष्ट्रीय नेता का सूक्ष्म आकलन किया था। नेहरू और सुभाष- दोनों लगभग एक जैसा सोचते थे, अनेक विषयों पर गांधी जी से मत-भिन्नता रखते थे, पर नेहरू जी गांधी जी की छत्रछाया से बाहर निकलने का साहस नहीं बटोर पाते थे जबकि सुभाष अपनी बात पर दृढ़ता से खड़े रहकर गांधी जी को चुनौती देने का साहस रखते थे। इसका एक उदाहरण-इर्विन के अक्तूबर, 1929 के वक्तव्य का स्वागत करने के लिए 2 दिसम्बर, 1930 के दिल्ली घोषणा पत्र पर गांधी जी सहित सब नेताओं के हस्ताक्षरों को लेकर सामने आया। जवाहर लाल और सुभाष दोनों इस स्वागत वक्तव्य से असहमत थे। गांधी जी के समझाने-बुझाने पर जवाहर लाल ने हस्ताक्षर कर दिये पर सुभाष बोस बिना हस्ताक्षर किए कलकत्ता वापस लौट गये। सुभाष की इस दृढ़ता ने गांधी जी को भीतर से इतना आहत कर दिया था कि महादेव देसाई की डायरी के अनुसार-गांधी जी ने विदेशी वायसराय इर्विन को यह बताने में संकोच नहीं किया कि सुभाष मेरा विरोधी है।
घोषणा से उलट समझौता
लगभग सत्रह दिन लम्बे वार्तालाप के अंत में जो समझौता हुआ वह कांगेस की तब तक की घोषित प्रतिज्ञाओं से बिल्कुल उलटा था। लाहौर अधिवेशन के कुछ दिन पूर्व 23 दिसम्बर, 1929 को गांधी जी ने वायसराय इर्विन को पत्र लिखा कि यदि ब्रिटिश सरकार उन्हें निकट भविष्य में औपनिवेशिक स्वराज्य देने का लिखित आश्वासन दे तो वे कांग्रेस को गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने की सलाह दे सकते हैं। पर इर्विन ने उनकी इस मांग को ठुकरा दिया, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप गांधी जी ने लाहौर अधिवेशन के लिए स्वयं ही पूर्ण स्वतंत्रता के संकल्प का प्रारूप तैयार किया। उस अधिवेशन में संकल्प लिया गया कि कांग्रेस ब्रिटिश सरकार द्वारा आयोजित किसी भी गोलमेज सम्मेलन में शामिल नहीं होगी। विधान परिषदों के लिए होने वाले चुनाव में भाग नहीं लेगी। इतना ही नहीं तो पहले चुनकर आये विधायकों को विधान परिषदों से त्यागपत्र देने का भी निर्देश दिया गया। लाहौर अधिवेशन के इन सभी संकल्पों की पूर्ति के लिए गांधी जी के नेतृत्व में 12 मार्च, 1930 को देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन, जो नमक सत्याग्रह नाम से प्रसिद्ध है, प्रारंभ हुआ। इस सत्याग्रह के दौरान ही जब पूरा कांग्रेस नेतृत्व जेलों में बंद था, 12 नवम्बर, 1930 को लंदन में पहला गोलमेज सम्मेलन आरंभ हो गया। सुभाष बोस ने अपनी “इंडियन स्ट्रगल” में लिखा है कि इस सम्मेलन में भाग लेने वाले जनाधारशून्य ऐसे भारतीय प्रतिनिधि थे जिनका चयन ब्रिटिश सरकार ने किया था। वे भारत की जनता के नहीं, ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि थे। भारत में राष्ट्रवाद के देशव्यापी उभार की खबरों से गोलमेज सम्मेलन में सहभागी भारतीय प्रतिनिधियों और ब्रिटिश सरकार का यह विश्वास पक्का हो गया कि इस उभार का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस का सहभाग हुए बिना अंग्रेजों का गोलमेज सम्मेलन नामक चक्रव्यूह बिना अभिमन्यु के निरर्थक रह जाएगा। अत: वायसराय और भारत सचिव के बीच पत्राचार के बाद कांग्रेस को पहले सम्मेलन में ले जाने का भी जोरदार प्रयास किया गया। नरम दलीय नेता जयकर और सप्रू को गांधी जी को मनाने के लिए यरवदा जेल भेजा गया। मोती लाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस के कार्यवाहक सचिव सैयद महमूद को वहां ले जाया गया। वार्तालाप में सरदार पटेल और सरोजिनी नायडू को भी सम्मिलित किया गया। 15-16 अगस्त, 1930 को दो दिन लम्बी बहस के बाद गांधी जी आदि सात नेताओं के हस्ताक्षरों के साथ जो शर्तें वायसराय को भेजी गयीं, उन्हें वायसराय ने ठुकरा दिया। इसलिए पहला गोलमेज सम्मेलन कांग्रेस के सहभाग के बिना ही सम्पन्न हुआ। लेकिन सबने यह अनुभव किया कि भारत के विशाल जनमत का प्रतिनिधित्व इस समय केवल कांग्रेस करती है, गांधी उसके सर्वमान्य नेता हैं। गांधी के नेतृत्व में उभर रहे भारतीय राष्ट्रवाद को घेरकर मारने के लिए ही तो यह चक्रव्यूह बिछाया गया है।
गोलमेज का चक्रव्यूह
अगर वह (कांग्रेस) नहीं है तो चक्रव्यूह का अर्थ ही क्या? इसलिए अगले गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस को लाना आवश्यक है, पर वह हो कैसे? इसके लिए भारत सचिव की दृष्टि सम्मेलन में उपस्थित तीन नरम दलीय नेताओं शास्त्री, सप्रू और जयकर पर गयी। तीनों को उन्होंने एक विशेष भोज पर बुलाया और उनके मन पर यह बैठा दिया कि ब्रिटिश सरकार जल्दी से जल्दी भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य देने का इरादा बना चुकी है। अगले सम्मेलन में केवल सत्तान्तरण की बारीकियां तय करनी हैं, जो कांग्रेस के आये बिना पूरी नहीं हो सकतीं। इन नेताओं पर “ब्रिटिश एजेंट” होने का आरोप तो सपने में भी नहीं लगाया जा सकता। उनकी राष्ट्रभक्ति निर्विवाद है। पर पता नहीं क्यों उन्हें ब्रिटिश न्यायप्रियता और लोकतंत्रनिष्ठा पर अंधविश्वास था और वे मान बैठे थे कि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए जनांदोलन नहीं, केवल वाक-चातुर्य पर्याप्त है। दूसरे, वे प्रधानमंत्री से लेकर वायसराय तक ब्रिटिश शासकों के द्वारा मिलने वाले सम्मान और महत्व से अभिभूत थे। शायद वे नहीं समझ पा रहे थे कि अनजाने में ही क्यों न हो, वे राष्ट्रवाद के विरुद्ध इस्तेमाल हो रहे हैं। अत: भारत सचिव के भोजन और लुभावनी बातों से गद्गद् होकर उन्होंने कांग्रेस को अगले गोलमेज सम्मेलन में लाने का बीड़ा उठा लिया और इस दिशा में अपने प्रयास आरंभ कर दिये। इस बीच भारत सचिव वेजवुड बेन और वायसराय इर्विन के बीच पत्र व्यवहार चालू था। 15 जनवरी को भारत सचिव ने इर्विन को सूचित किया कि कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को एकत्र आने का अवसर दें। मोती लाल नेहरू उन दिनों इलाहाबाद में रोग शैय्या पर पड़े मृत्यु से जूझ रहे थे। 20 जनवरी को इर्विन ने संयुक्त प्रांत (उ.प्र.) के गवर्नर हेली से परामर्श करके कार्यसमिति पर से प्रतिबंध को उठा लिया और उन्हें मोती लाल नेहरू के पास इलाहाबाद पहुंचने और आपस में विचार-विमर्श करने का अवसर दे दिया। पहले गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति पर 19 जनवरी 1931 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडानल्ड ने एक वक्तव्य जारी कर भावी संवैधानिक रचना के तीन आधारभूत सूत्र घोषित कर दिये। उनमें पहला सूत्र था कि भारत को पूर्ण उत्तरदायी शासन प्राप्त होगा, किन्तु उसके साथ अल्पसंख्यकों, सेना, आर्थिक दायित्व आदि के बारे में आवश्यक संरक्षण, आरक्षण एवं विशेषाधिकार जुड़े होंगे। जिसका सीधा-सीधा अर्थ था कि “फूट डालो राज करो” की पुरानी नीति जारी रहेगी और सेना व अर्थ तंत्र पर ब्रिटिश नियंत्रण रहेगा। तीसरा सूत्र था- भारतीय नरेशों को भारतीय संविधान के अन्तर्गत लाने के लिए भावी ढांचा संघात्मक रहेगा। इस वक्तव्य में पूर्ण स्वराज्य तो क्या औपनिवेशिक स्वराज्य तक का नामोल्लेख नहीं था। कांग्रेस को दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आने का सार्वजनिक निमंत्रण दिया गया।
यह वक्तव्य प्रकाशित होते ही 21 जनवरी को इलाहाबाद में एकत्र कार्यसमिति के सदस्यों ने एक प्रस्ताव पारित करके प्रधानमंत्री के वक्तव्य को अस्वीकार कर दिया और गोलमेज सम्मेलन में न जाने के अपने संकल्प को दोहराया। इस प्रस्ताव के पारित होने पर उस समय के कार्यवाहक अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद ने प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों के नाम एक परिपत्र भी जारी कर दिया। किन्तु प्रतीत होता है कि इलाहाबाद में जो कुछ विचार- मंथन चल रहा था, उसकी क्षण-क्षण की जानकारी इंग्लैण्ड पहुंच रही थी। क्योंकि तुरंत ही लंदन से नरम दलीय तिगड़ी का तार आया कि हमारे भारत लौटने और हमारी बात को सुने बगैर इस प्रस्ताव को सार्वजनिक न किया जाए। फलत: रोगग्रस्त मोती लाल नेहरू के निर्देश पर उस प्रस्ताव को प्रकाशित नहीं किया गया। गांधी जी और जवाहर लाल के जेल से बाहर आने की प्रतीक्षा की जाने लगी।
गांधी जी एवं अन्य वरिष्ठ नेताओं को शायद जानबूझ कर 26 जनवरी की सायंकाल छोड़ा गया ताकि वे लोग “पूर्ण स्वतंत्रता दिवस” के कार्यक्रमों में सम्मिलित न हो सकें। जेल से रिहा होकर जब अगली प्रात: गांधी जी बम्बई पहुंचे तो उनका स्वागत करने के लिए इतना विशाल जनसमुदाय एकत्र हुआ कि पूरा विश्व उसे देखकर चमत्कृत रह गया। मोती लाल जी की गंभीर बीमारी से चिंतित गांधी जी इलाहाबाद पहुंचने के लिए दौड़ गए। 6 फरवरी को मोती लाल नेहरू का देहावसान हुआ और उसी दिन नरम दलीय तिगड़ी भारत वापस लौट आयी। यहां से गांधी-इर्विन वार्ता का अगला पर्व आरंभ हुआ। द
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