बात बेलाग
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बात बेलाग
समदर्शी
अजित सिंह राजनीति की वह अबूझ पहेली हैं, जिसे अभी तक बड़े-बड़े दिग्गज राजनेता भी नहीं बूझ पाये हैं। वर्ष 2007 तक उनका राष्ट्रीय लोकदल उ.प्र. में मुलायम सिंह यादव की सरकार में भागीदार था, लेकिन चुनाव से ऐन पहले साथ छोड़कर वह अकेले दम चुनाव लड़े। फिर वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े। इस बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ हैं। कह सकते हैं कि सत्ता का सुख भोगने के लिए कलाबाजी तो खानी ही पड़ती है। बिहार के रामविलास पासवान भी तो ऐसा ही करते हैं, पर कांग्रेस को खुश करने के लिए उन्होंने जिस तरह एक चुनाव सभा में कह दिया कि गैर कांग्रेसी सरकारों ने उत्तर प्रदेश को तबाह कर दिया, उससे तो बड़े-बड़े कलाबाज भी शरमा गये। अजित सिंह अमरीका में कम्प्यूटर इंजीनियर थे, पर जब उनके पिता चौधरी चरण सिंह बीमार पड़े तो उनकी राजनीतिक विरासत संभालने स्वदेश लौट आये। वह राजनीति में तो आ गये, पर शायद राजनीतिक इतिहास पढ़ने की जहमत नहीं उठायी। अगर उन्होंने अपने पिता की राजनीति को ही जानने-समझने की जहमत उठायी होती तो उन्हें पता होता इस देश में कांग्रेस के एकछत्र शासन के विरुद्ध गैर कांग्रेसी राजनीति की अलख जगाने वालों में वह भी एक थे। उत्तर भारत के सबसे बड़े जनाधार वाले नेताओं में शुमार चरण सिंह कांग्रेस के उसी स्वर्णिमकाल में उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेसी संविद सरकार के मुख्यमंत्री भी रहे। उत्तर भारत से भी बाहर उड़ीसा तक फैली अपने पिता की राजनीतिक विरासत को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चंद जिलों तक समेट देने वाले अजित अब शायद उनकी राजनीति को ही नकारने की राह पर चल पड़े हैं।
चुनाव आयोग की मासूमियत
चुनाव आयोग ने जब उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की प्रतिमाओं को ढंकने का आदेश दिया तो उसकी काफी चर्चा हुई थी। खफा बसपा के अलावा सभी दलों ने आयोग की पीठ थपथपायी थी कि उसने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए एक अहम कदम उठाया है। कांग्रेस सबसे आगे थी, लेकिन जैसे जैसे चुनाव प्रक्रिया आगे बढ़ती गयी, आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए चुनाव आयोग को ही चुनौती देने में कांग्रेस ही सबसे आगे निकल गयी। अल्पसंख्यक आरक्षण का विभाजनकारी कार्ड तो चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से दो दिन पहले ही चल दिया गया था, पर इसे साढ़े चार प्रतिशत से बढ़ाने के ऐलान के जरिये साम्प्रदायिक आधार पर मतों के ध्रुवीकरण की साजिश चुनाव के साथ साथ तेजी पकड़ती गयी। सबसे पहले केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने चुनाव आयोग को चुनौती दी कि चाहो तो 'फांसी पर चढ़ा दो, पर हम नहीं मानेंगे।' माहौल को गरमाने के बाद सरकार और कांग्रेस के इशारे पर खुर्शीद ने पत्र लिखकर आयोग से खेद जता दिया तो फिर बेनीप्रसाद वर्मा बोल पड़े, जो बयानबाजी में दिग्विजय सिंह से स्पर्धा करते नजर आते हैं। माहौल गरमाने के बाद बेनी ने भी पार्टी के इशारे पर सफाई दे दी कि वह तो चुनाव आयोग का बेहद सम्मान करते हैं। संवैधानिक संस्थाओं को अपमानित करने में माहिर कांग्रेसियों के इस आचरण में तो आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं। लेकिन चुनाव आयोग की मासूमियत ने लोगों को हैरत में डाल दिया है, जो आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर छुटभैये नेताओं के विरुद्ध तो मुकदमा दर्ज कराने में देर नहीं करता, लेकिन केन्द्रीय मंत्रियों को खेद जताने भर पर छोड़ देता है।
शीला के वायदे
चुनाव के दौरान 'स्वर्ग को धरती पर उतार लाने' सरीखे कभी न पूरे हो सकने वाले वायदों के लिए राजनेता पहले से ही बदनाम हैं। जो वायदे चुनाव घोषणापत्रों और चुनाव सभाओं में किये जाते हैं, उनमें से अगर 10 प्रतिशत भी पूरे कर दिये गये होते तो आज भारत गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई की मार से त्रस्त विकासशील देश के बजाय खुशहाल विकसित देश होता। जनता राजनेताओं और उनके चुनावी वायदों की सच्चाई को समझने लगी है, पर राजनेताओं की आदत है कि नहीं जाती। अपने बेटे अखिलेश को विदेश में पढ़ाते हुए भी देश में अंग्रेजी का विरोध करने वाले मुलायम सिंह यादव ने लेपटॉप बांटने का वायदा किया तो उत्तर प्रदेश की बदहाली के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कांग्रेस के 'युवराज' ही अब खुशहाली का सपना बेच रहे हैं। सबसे अनोखा और हास्यास्पद वायदा किया दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने। कांग्रेसी उम्मीदवार प्रदीप माथुर के समर्थन में चुनाव सभाओं को संबोधित करने मथुरा गयीं शीला दीक्षित ने मतदाताओं को भरमाते हुए कहा कि अगर प्रदीप जीत गये तो दिल्ली की मेट्रो सीधे मथुरा तक दौड़ने लगेगी। सच यह है कि न तो मेट्रो शीला सरकार के अधीन है और न ही अभी तक पूरी दिल्ली में ही चल पायी है, फिर मथुरा पहुंचने के लिए तो उसे कम से कम सौ किलोमीटर का सफर हरियाणा में ही तय करना पड़ेगा।Enter News Text.
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