साहित्यिकी
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साहित्यिकी
यह सही है कि अंग्रेजों से भारत देश को आजाद कराने में हजारों देशभक्त क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया और हजारों ने अपने प्राणों की भी आहुति दे दी, लेकिन आज जो इतिहास हम या हमारी नई पीढ़ी पढ़ रही है, उसमें देश के ऐसे सैकड़ों-हजारों सच्चे सपूतों की गौरवमयी गाथाओं की तो बात दूर, उनके नामों तक का उल्लेख नहीं मिलता। इसे बेहद कृतघ्नता कहा जाना चाहिए कि प्रायोजित ढंग से लिखे गए इतिहास में क्रांतिकारियों को नजरअंदाज किया गया। इस दिशा में सार्थक हस्तक्षेप करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार और भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के जाने-माने विद्वान सुधीर विद्यार्थी ने ऐसे अनेक गुमनाम क्रांतिकारियों को सामने लाने का सराहनीय प्रयास किया है। हाल ही में प्रकाशित होकर आई “क्रांति की इबारतें” पुस्तक में उन्होंने चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़ी गई क्रांति में उनके साथ रहे कुछ अचर्चित/गुमनाम क्रांतिकारियों की यशोगाथा को संकलित किया है। ऐतिहासिक शोध और साक्ष्यों के आलोक में इन वीर क्रांतिकारियों द्वारा अपने देश के लिए किए गए त्याग और बलिदान की गाथा पढ़कर मन बरबस श्रद्धावनत हो जाता है। साथ ही यह सोचकर मन कचोट उठता है कि स्वाधीनता के बाद भी इन देशप्रमियों को सम्मान देने की बजाय उपेक्षित क्यों रखा गया?
सुधीर विद्यार्थी अपने प्राक्कथन में लिखते हैं, “क्रांतिकारी आंदोलन में सिर्फ आजाद और भगत सिंह ही नहीं थे, वहां पूरी क्रांतिकारी पार्टी थी और इस अर्थ में वह मुक्ति संग्राम का एक संयुक्त अभियान था। पर हमने विस्मृत कर दिया क्रांतिकारी दल के सामूहिक निर्णयों और कार्रवाईयों को।” पुस्तक के पहले अध्याय “क्या आप इस मुल्क के भारत वीर को जानते हैं?” में काकोरी कांड में शामिल मुकन्दी लाल के क्रांतिकारी जीवन के संस्मरण संजोये गए हैं। काफी समय तक कई जेलों में रहकर यातनाएं सहने वाले मुकुन्दी लाल को स्वाधीनता के बाद भी बेहद कष्टपूर्ण व उपेक्षित जीवन गुजारना पड़ा था। पुस्तक के दूसरे अध्याय “एक दीया जरूर जलेगा” में बनारस के क्रांतिकारियों में प्रमुख रहे कुन्दन लाल की क्रांति आंदोलन में सहभागिता पर प्रकाश डाला गया है। अगले अध्याय में दिल्ली की केंन्द्रीय असेंबली में 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह के साथ विस्फोट करने वाले बटुकेश्वर दत्त की क्रांति गाथा दर्ज है। भगत सिंह से उनकी घनिष्ठता और क्रांतिकारी दल के प्रति उनकी निष्ठा के कई मार्मिक संस्मरण इस पुस्तक में संकलित हैं। ऐसे क्रांतिकारियों में केवल पुरुष ही नहीं बल्कि सुशीला मोहन जैसी वीर महिला क्रांतिकारी भी शामिल थीं, जिन्होंने काकोरी काण्ड में अभियुक्त बनाए गए क्रांतिकारियों की पैरवी के लिए खर्च होने वाले पैसे के लिए अपनी शादी के लिए रखे गए अपने जेवर तक दान दे दिए थे। ऐसे ही कई संस्मरण “सुशीला दीदी को प्रणाम” में संकलित हैं।
पुस्तक के अन्य अध्यायों “रोशनी का कोई घर नहीं होता” में मास्टर रुद्रनारायण सिंह, “चंदू होता तो क्या इससे ज्यादा सेवा करता” में सदाशिवराव मलकापुरकर, “कुछ तो लाल धरा होगी ही” में भगवान दास माहौर, “सिराज तुम निकल जाओ” में सुखदेव राज, “इस बयान पर तो हम हर्गिज दस्तखत नहीं कर सकते” में रमेशचंद्र गुप्त, “रैन बसेरा की यादें” में रामरख सहगल और अंतिम अध्याय में साहित्यकार “अज्ञेय” के क्रांतिकारी जीवन के अनेक मार्मिक संस्मरण संकलित किए गए हैं। कह सकते हैं कि यह पुस्तक भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के उपेक्षित और अनदेखे पत्रों को सम्मान के साथ सामने लाती है।द
बौद्ध मत के तेरह तीर्थ
भारतीय धार्मिक-आध्यात्मिक इतिहास में भगवान बुद्ध का व्यक्तित्व अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसका कारण यह है कि अब से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व अवतरित हुए इस महामानव का जीवन काल भारतीय इतिहास में एक सीमा रेखा की तरह है। इनके पहले का इतिहास प्रागैतिहासिक और इनके बाद का कालखंड ऐतिहासिक माना जाता है। साथ ही, सिर्फ भारत में ही नहीं, संपूर्ण विश्व में उन्होंने मानवता और प्राणी मात्र से प्रेम करने का संदेश फैलाया। यही कारण है कि उनके जीवनकाल से जुड़े वे सभी स्थान आज भी तीर्थस्थल के रूप में पूज्य माने जाते हैं जहां पर तथागत ने कोई विशेष कार्य किया या जहां उन्होंने लंबी अवधि बिताई। कुछ समय पूर्व प्रकाशित होकर आई पुस्तक “भारत के बौद्ध तीर्थ-स्थल” में ऐसे ही तेरह तीर्थ-स्थलों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय में बौद्ध अध्ययन विभाग के विभागाध्यक्ष रहे प्रोफेसर संघसेन सिंह और डा. प्रियसेन सिंह ने गहन अध्ययन व शोध और स्वयं इन तीर्थों की यात्रा से अर्जित अनुभवों के आधार पर इस पुस्तक की रचना की है।
महात्मा बुद्ध के जन्म -स्थल लुंबिनी से लेकर बोध गया, सारनाथ, कुशीनगर, सांकाश्य, वैशाली, श्रावस्ती, राजगीर, नालंदा, सांची, कौशांबी, अमरावती, नागार्जुन कोडा- कुल मिलाकर 13 स्थानों के बारे में लेखकद्वय ने बहुत विस्तार से चर्चा की है। इनकी लेखन शैली भी बहुत सरल, सहज और बोधगम्य है। इस पुस्तक की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें प्रत्येक स्थान के संबंध में पहले बुद्ध के जीवन की उन घटनाओं की चर्चा की गई है जिसके कारण यह स्थान महत्वपूर्ण व तीर्थ बना। इसके बाद सैकड़ों वर्ष की यात्रा के दौरान उन स्थलों पर कैसे-कैसे प्रहार हुए, इसकी चर्चा है, और फिर उनसे जुड़ी पुरातात्विक जानकारी और वर्तमान समय में उसकी दशा का वर्णन भी मौजूद है। इस तरह यह पुस्तक महात्मा बुद्ध के संपूर्ण जीवन के आलोक में इन स्थलों की महत्ता पर विहंगम दृष्टि डालती है। हालांकि बौद्ध मत में आस्था रखने वाले श्रद्धालुगण महात्मा बुद्ध के जीवन की चार प्रमुख घटनाओं-जन्मस्थल, बोध प्राप्ति, प्रथम धर्मोपदेश और महापरिनिर्वाण से संबंधित स्थानों-क्रमश: लुंबिनी, बोधगया, सारनाथ और कुशीनगर को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, लेकिन उनके जीवन से संबंधित कुछ अन्य घटनाओं से जुड़े स्थानों (श्रावस्ती, राजगीर, वैशाली और सांकाश्य) का महत्व भी कम नहीं है। ये स्थान किस तरह से कितने ऐतिहासिक व दार्शनिक महत्व के हैं, इसकी विस्तृत चर्चा भी समीक्ष्य पुस्तक में की गई है। इनके अतिरिक्त भी पांच अन्य स्थानों के महात्म्य को भी ऐतिहासिक शोध के आधार पर पुस्तक में उद्घाटित किया गया है। यह पुस्तक एक ओर जहां बौद्ध तीर्थस्थलों के लिए निर्देशिका की तरह है, वहीं पाठकों और वहां जाने की इच्छा रखने वाले श्रद्धालुओं के लिए शोधपरक दस्तावेज भी है। प्रत्येक स्थल पर कितने स्मारक स्तंभ या भग्नावशेष हैं, इसके बारे में पुस्तक में विस्तार से चर्चा की गई है। साथ ही उन स्थलों के रंगीन चित्र भी संकलित हैं।द
चोंचें लड़ा रहे हैं
द महेश शुक्ल
पंखों को काट करके, जिनको उड़ा रहे हैं।
देखो वही परिन्दे, फिर फड़फड़ा रहे हैं।।
आगोश में बिठाकर, आगाज दे रहे थे।
रहकर के हाशिये पर, चोंचें लड़ा रहे हैं।।
जो आजमा रहे हैं, सब दांव पेंच फिर-फिर।
मुख पृष्ठ पा रहे हैं, चिकना घड़ा रहे हैं।।
ऊंची रहीं उड़ानें, थे आसमां से ऊंचे।
दीवार पर टंगे हैं, शोभा बढ़ा रहे हैं।।
हम जिस जगह खड़े थे, अब भी वहीं पड़े हैं।
कुछ मौज ले रहे हैं, कुछ तड़फड़ा रहे हैं।।
है भ्रष्टता निरंकुश, कोई नहीं है अंकुश।
कुछ भी न कर सकोगे, वह बड़बड़ा रहे हैं।।
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