मंथन
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मंथन
द देवेन्द्र स्वरूप
भारत कैसे बना रहे भारत-2
का कूटनीतिक युद्ध
9 जनवरी, 1915 को भारत वापसी के पूर्व ही दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी की जीवन-साधना, आश्रम प्रणाली और अहिंसात्मक सत्याग्रह की यशोगाथा भारत में गूंजने लगी थी। 1909 में रचित “हिन्द स्वराज” नामक पुस्तिका में उन्होंने भारत के स्वराज का सभ्यतापरक और सांस्कृतिक चित्र प्रस्तुत कर दिया था, और “हिन्द स्वराज” की अंतिम पंक्ति में ऐसे स्वराज्य की प्राप्ति के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की घोषणा कर दी। भारत आने के बाद अपने मार्गदर्शक गोपाल कृष्ण गोखले के निर्देश पर गांधी जी ने दो वर्ष तक सार्वजनिक जीवन में सक्रिय न होकर पूरे भारत का भ्रमण कर स्वामी विवेकानंद की तरह भारतीय यथार्थ का साक्षात्कार किया और अपनी आध्यात्मिक जीवन शैली एवं शब्दावली के द्वारा पूरे भारत के संस्कृतिनिष्ठ राष्ट्रभक्त हिन्दू मानस में अपने लिए श्रद्धेय का स्थान अर्जित कर लिया। स्वामी दयानंद, बंकिम चन्द्र, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद और लाल-बाल-पाल द्वारा स्फूत्र्त सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के वे सहज उत्तराधिकारी बन गये। पूरे भारत का हिन्दू समाज उनके व्यक्तित्व में महात्मा की छवि देखने लगा। भारत के सार्वजनिक जीवन में उनकी यात्रा का आरंभ राजनेता से अधिक संत के रूप में हुआ। यही उनकी मुख्य पूंजी थी, जो मृत्यु के समय भी उनके पास बनी रही। हिन्दू मन में उनके प्रति कितनी गहरी श्रद्धा थी इसका परीक्षण 1 सितम्बर, 1947 को कलकत्ता और 13 जनवरी, 1948 को दिल्ली में उनके उपवासों की हिन्दू समाज पर अनुकूल प्रतिक्रिया से हो गया।
गांधी जी का बढ़ता प्रभाव
भारत आगमन के समय से ही गांधी जी ने स्वराज्य की सभ्यतापरक व्याख्या आरंभ कर दी। 1916 में मद्रास में एक मिशनरी के मंच से भाषण देते हुए उन्होंने स्वराज्य के चार खंभे बताये- स्वधर्म, स्वभाषा, स्वदेशी अर्थनीति एवं ग्राम पंचायत आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था। चम्पारण एवं खेड़ा जैसे स्थानीय संघर्षों के माध्यम से उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन की सफलता का विश्वास जनमानस में पैदा किया। इस प्रकार पूरे भारत में व्याप्त सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आधार भूमि पर खड़े होकर गांधी जी ने 1919 में ब्रिटिश सरकार के “रोलर एक्ट” जैसे दमनकारी कदमों के विरोध में पहली बार अखिल भारतीय सत्याग्रह का आह्वान देकर राष्ट्रभक्ति के प्रवाह को राजनीतिक धरातल पर संगठित अभिव्यक्ति प्रदान की। ब्रिटिश शासकों की “फूट डालो और राज करो” वाली साम्राज्यवादी नीति को विफल करने के लिए गांधी जी ने एक ओर सिखों के गुरुद्वारा आंदोलन तो दूसरी ओर खिलाफत जैसे मजहबी और विदेशी प्रश्न पर भारतीय मुसलमानों के ब्रिटेन-विरोधी गुस्से को भी स्वतंत्रता प्राप्ति के राष्ट्रीय आंदोलन का अंग बनाने की कोशिश की। यहीं से गांधी जी और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बीच कूटनीतिक युद्ध आरंभ हो गया।
इधर गांधी जी ने अन्तरात्मा की आवाज, लम्बे-लम्बे उपवास, आश्रम प्रणाली, रामराज्य की अवधारणा आदि के द्वारा हिन्दू मानस को झंकृत कर डाला। 1920 के नागपुर अधिवेशन में एक नया संविधान, सदस्यता के नये मानदंड, ग्राम स्तर तक का संगठनात्मक ढांचा प्रदान कर 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कायाकल्प कर डाला, उसे कुछ शहरी वकीलों के वार्षिक सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार से याचना करने वाले कागजी संगठन की जगह गांव-गांव तक फैले जन आंदोलन का रूप दे दिया। निरंतर चलने वाले रचनात्मक कार्यक्रम के माध्यम से उसका जनाधार व्यापक कर डाला। शिक्षा, अर्थ रचना, वेशभूषा, जीवन शैली, प्रशासन और न्याय व्यवस्था के क्षेत्र में ब्रिटिश शासन द्वारा आरोपित रचनाओं के बहिष्कार और वैकल्पिक रचनाओं की खोज की छटपटाहट पैदा करना शुरू किया। 1920 और 1930 के देशव्यापी सत्याग्रहों के माध्यम से समूचे देश में राजनीतिक नेतृत्व का संगठित ताना-बाना खड़ा हो गया। यह सब देखकर ब्रिटिश शासक हतप्रभ थे। अन्तरात्मा की आवाज और उपवास का नैतिक शस्त्र उनकी समझ के बाहर था। गांधी के अगले पग और आंदोलन के समय व स्वरूप का वे कोई पूर्वानुमान नहीं लगा पा रहे थे। 1930 के नमक सत्याग्रह या सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद गांधी जी का प्रभाव और लोकप्रियता अपने चरम पर पहुंच गई थी और ब्रिटिश सरकार के लिए भारी चिंता का कारण बन गई थी। ब्रिटिश शासकों और अंग्रेज बुद्धिजीवियों ने गांधी जी के जनाधार का सूक्ष्म अध्ययन आरंभ कर दिया। उन्होंने पाया कि गांधी जी का जनाधार हिन्दू समाज तक सीमित है। मुस्लिम समाज अपनी मजहबी विचारधारा और विस्तारवादी इतिहास के कारण हिन्दुओं की तरह भौगोलिक राष्ट्रवाद को स्वीकार नहीं करता है और राष्ट्रवाद के प्रवाह के साथ एकरूप होने को तैयार नहीं है। इस सत्य को पहचानकर उन्होंने 1909 के “काउंसिल एक्ट” में मुसलमानों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया था। उन्नीसवीं शताब्दी से ही उन्होंने सिख समाज को उसकी हिन्दू जड़ों से काटने के लिए पृथकतावाद के रास्ते पर धकेलना आरंभ कर दिया था, जिसको संवैधानिक रूप देने के लिए उन्होंने 1919 के एक्ट में सिखों को भी पृथक निर्वाचन का अधिकार दे दिया था। अगले कदम के रूप में उन्होंने अस्पृश्यता के आधार पर हिन्दू समाज को बीच से विभाजित करने का कुचक्र आरंभ किया। साथ ही पांच सौ से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों को एक मंच पर लाकर राष्ट्रवाद के विरुद्ध खड़ा करने की प्रक्रिया आरंभ कर दी।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीति
अपनी विभाजनकारी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने संवैधानिक सुधार प्रक्रिया को मुख्य माध्यम बनाया। प्रत्येक संवैधानिक किश्त के पीछे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की आयु को लम्बा करने का उद्देश्य तो स्थायी रूप से विद्यमान था, किन्तु प्रत्येक किश्त की रूपरेखा इंग्लैण्ड में एक “थिंक टैंक” के द्वारा लम्बे विचार मंथन के पश्चात तैयार की जाती थी। प्रत्येक नई किश्त का उपयोग राष्ट्रवाद के उभार को कुंठित करने के लिए किया जाता था। 1905-1908 के बंग- भंग विरोधी स्वदेशी आंदोलन को कुंठित करने के लिए 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना करायी गई। 1909 का “काउंसिल एक्ट” बनाया गया। प्रथम विश्व युद्ध में सिख सैनिकों के भारी योगदान को पाने के लिए किये गए वादों को पूरा करने के लिए 1919 के एक्ट में उन्हें पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया। अब तक गांधी जी की राजनीति में कोई प्रभावी भूमिका नहीं थी। वे प्रारंभ से ही ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से भारत को बाहर रखना चाहते थे। “हिन्द स्वराज” में ही उन्होंने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को “बांझ एवं वेश्या” जैसे विशेषण दे दिये थे। असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम में उन्होंने “काउंसिल” बहिष्कार भी सम्मिलित किया था, परंतु कांग्रेस के पुराने नेतृत्व का बड़ा हिस्सा विधान परिषदों में प्रवेश करने को लालायित था। मोती लाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, देशबंधु चित्तरंजनदास, वी.एस.श्रीनिवास शास्त्री, लाला लाजपतराय आदि पुरानी पीढ़ी के नेता नये संविधान के अन्तर्गत चुनाव लड़कर विधान परिषदों में जाने का आग्रह कर रहे थे। किन्तु गांधी जी से अनुप्राणित नयी पीढ़ी का कार्यकत्र्ता वर्ग काउंसिल में प्रवेश के विरोध में खम ठोंककर खड़ा हो गया था। 1922 में जब गांधी जी कारावास में थे, कांग्रेस के गया अधिवेशन के अध्यक्ष सी.आर.दास ने परिषद प्रवेश का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसे राजगोपालाचारी के नेतृत्व में गांधीवादी युवा कांग्रेसियों ने बहुमत से परास्त कर दिया। अंतत: लम्बी बहस के बाद गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस से अलग स्वराज पार्टी नामक मंच की ओर से चुनाव लड़ने की अनुमति दी, वह भी इस आश्वासन के बाद कि वे विधान परिषद में जाकर संविधान को क्रियान्वित करने की बजाय उसे ध्वस्त करने का प्रयास करेंगे।
1919 के “काउंसिल एक्ट” के बाद अंग्रेजों ने अगली किश्त की शतरंज बिछानी शुरू कर दी। मुस्लिम पृथकतावाद पर तो वे भरोसा कर ही सकते थे। 1917 से उन्होंने एक ओर भारतीय नरेशों को राष्ट्रवादी विरोधी मंच पर संगठित करना आरंभ कर दिया तो दूसरी ओर हिन्दू नाम से परिचित राष्ट्रीय समाज को अस्पृश्यता के आधार पर बीच से विभाजित करने की कोशिश भी शुरू कर दी। इन्हीं कोशिशों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने 1927 में सर जान सायमन के नेतृत्व में एक दल भारत भेजा, जिसे भारत के लिए संविधान की अगली किश्त की रूपरेखा तैयार करने का दायित्व दिया गया था, उसमें एक भी भारतीय को नहीं रखा गया। इस पूर्ण श्वेत दल का भारत में सब दलों ने मिलकर पूर्ण बहिष्कार किया और पं.मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक सर्वदलीय समिति का गठन किया कि वह भारत के लिए संविधान तैयार करे। उसने काफी विचार मंथन करके एक रूपरेखा तैयार की, जो “नेहरू रिपोर्ट” के नाम से प्रसिद्ध है। किन्तु मुस्लिम नेतृत्व ने इस रिपोर्ट को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और उसकी पृथकतावादी मांगों की चट्टान से टकराकर यह प्रयास विफल हो गया। यद्यपि गांधी जी के ग्राम स्वराज का उसमें भी कोई स्थान नहीं था और “नेहरू रिपोर्ट” ब्रिटिश संवैधानिक प्रणाली के चौखटे में ही कैद थी।
कांग्रेस के विरोधाभास
इसी बीच कांग्रेस में “पूर्ण स्वतंत्रता बनाम औपनिवेशिक स्वराज्य” की बहस भी तेज हो गयी थी। सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू आदि युवा नेता “पूर्ण स्वराज्य” का लक्ष्य घोषित करने के पक्ष में थे, जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 1929-30 के लाहौर अधिवेशन में “पूर्ण स्वराज्य” का लक्ष्य घोषित हुआ, इसके साथ ही “काउंसिल प्रवेश” के बहिष्कार, गोलमेज सम्मेलन में भाग न लेने और काउंसिलों के वर्तमान कांग्रेसी सदस्यों को त्यागपत्र देने के संकल्प भी घोषित किये गये। इस अधिवेशन में गांधी जी को “पूर्ण स्वराज्य” के लक्ष्य को पाने के लिए देशव्यापी आंदोलन की तिथि व कार्यक्रम की घोषणा करने का सर्वाधिकार भी दिया गया। लाहौर अधिवेशन के इसी निर्देश को क्रियान्वित करने के लिए गांधी जी ने 12 मार्च, 1920 को 78 सत्याग्रहियों के जत्थे के साथ साबरमती आश्रम से समुद्र तट पर स्थित दांडी में नमक कानून तोड़ने के लिए कूच कर दिया, जिससे अनुप्राणित होकर देशभर में हजारों सत्याग्रहियों ने स्थानीय कानूनों को भंग करके जेलों को भर दिया। यह सत्याग्रह कितना विशाल था, उसे कितना व्यापक जन समर्थन प्राप्त था और उससे ब्रिटिश सरकार कितना अधिक भयभीत हो गयी थी, इसकी कल्पना राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित उन अधिकृत व गोपनीय रपटों से मिल सकती है जो तत्कालीन वायसराय इर्विन ने इंग्लैण्ड स्थित भारत सचिव को भेजी थी।
व्यापक जनाधार वाले इस राष्ट्रवाद को घेरने के लिए ही गोलमेज सम्मेलनों का जाल बिछाया गया। गोलमेज सम्मेलन एक चक्रव्यूह था जिसमें जनांदोलनों में से उभरे राष्ट्रवाद को मुस्लिम, सिख, देश-विदेश, तथाकथित दलित वर्ग आदि अनेक संकीर्ण हितों के ब्रिटिश सरकार द्वारा चयनित जनाधार-शून्य प्रतिनिधियों द्वारा घेरने का शकुनि-षड्यंत्र काम कर रहा था। लाहौर अधिवेशन में गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार करने का कांग्रेस का निर्णय बिल्कुल सही था। प्रथम गोलमेज सम्मेलन जब आरंभ हुआ तब कांग्रेस का समूचा नेतृत्व नमक सत्याग्रह के कारण जेलों में बंद था। वायसराय इर्विन ने नरम दलीय नेताओं- तेज बहादुर गुप्त और एम.आर.जयकर को जेल भेजकर गांधी जी, मोती लाल नेहरू एवं सरदार पटेल आदि पर बहुत दबाव डाला कि कांग्रेस गोलमेज सम्मेलन में अपने प्रतिनिधि भेजे, पर कांग्रेस टस से मस नहीं हुई और उसके प्रतिनिधि प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित नहीं हुए। कांग्रेस के सहभाग के बिना गोलमेज सम्मेलन का कोई अर्थ नहीं रह जाता था, क्योंकि मुस्लिम समाज के अलावा शेष भारत तो कांग्रेस के पीछे खड़ा था। इसलिए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस को मेज पर लाने के लिए ब्रिटिश कूटनीति ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। इन्हीं कोशिशों का परिणाम था- 5 मार्च, 1931 का गांधी-इर्विन समझौता। यह समझौता राजनीति के मंच पर ब्रिटिश कूटनीति की विजय और गांधी जी की कूटनीतिक पराजय का आरंभ था। इस समझौते के बाद राजनीति की पहल गांधी जी के हाथों से खिसक कर पुन: ब्रिटिश सरकार के हाथों में चली गयी। गांधी-इर्विन पैक्ट, द्वितीय गोलमेज सम्मेलन, अगस्त 1832 का साम्प्रदायिक निर्णय, पूना पैक्ट और हरिजन आंदोलन- ये सब उस कूटनीतिक युद्ध के उत्तरोत्तर सोपान हैं जिनमें गांधी जी के चारों ओर ब्रिटिश कूटनीति का पाश उत्तरोत्तर कसता जा रहा है। इस कालखंड में भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक यथार्थ और गांधी जी की मनोदशा का गहरा अध्ययन भारत के वर्तमान संकट की जड़ तक पहुंचने के लिए आवश्यक है।द (क्रमश:)
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