व्यंग्य वाण
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व्यंग्य वाण
द विजय कुमार
हर व्यक्ति युवावस्था में कम से कम एक बार कविहृदय जरूर हो जाता है। डायरी में गुलाब का फूल रखने से लेकर रोमांटिक शेर लिखना तक उन दिनों आम बात होती है।
हर कवि यह भी मानता है कि उसके मां-बाप ने उसका नाम ठीक नहीं रखा। इस गलती को सुधारते हुए वह घायल, पागल, हुल्लड़, कुल्हड़, मनहूस, फंटूश जैसा कोई उपनाम रख लेता है।
शर्मा जी ने इस दौर में अपना नाम “निराधार” रखा था। वैसे वे अच्छे खाते-पीते घर के थे, पर माता-पिता की छत्रछाया सिर पर न होने के कारण वे खुद को “निराधार” ही समझते थे।
छात्र जीवन के बाद उनकी अस्थायी नौकरी लग गयी। उनकी निराधारता के लिए यह तर्क पर्याप्त था। नौकरी पक्की होने पर वे चौपाए हो गये और उन्हें ताजा भोजन मिलने लगा, पर मकान किराये का होने के कारण वे खुद को “निराधार” ही मानते रहे।
नौकरी में पदोन्नति के साथ-साथ उनके घर की जनसंख्या बढ़कर पांच हो गयी और उन्होंने मकान भी बना लिया। मित्रों को लगा कि अब वे अपना उपनाम बदल लेंगे, पर दो साल पहले अचानक शर्मानी मैडम उन्हें सदा के लिए छोड़ गयीं। इस दुर्घटना से वे फिर “निराधार” हो गये।
फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। अब तक बच्चे भी बड़े हो गये थे। उन्होंने पहले बेटी और फिर बड़े बेटे का विवाह कर दिया। बहू ने कुछ समय तो उनकी सेवा की, फिर अचानक एक दिन बेटा और बहू एक दूसरा मकान लेकर वहां रहने चले गये।
शर्मा जी का छोटा बेटा विदेश में पढ़ता था। उसने सलाह दी कि वे मकान बेचकर किसी वृद्धाश्रम में चले जाएं, क्योंकि उसका इरादा अब विदेश में ही घर बसाने का है। शर्मा जी गहरे असमंजस में फंस गये और इस बीच अवकाश प्राप्ति की तारीख भी आ गयी।
कहते हैं कि नाम के अनुरूप गुण-अवगुण जीवन में आ ही जाते हैं। शर्मा जी को लगा कि हो न हो, यह “निराधार” उपनाम उनके जी का जंजाल बना है, पर इससे पीछा छुड़ाना भी तो समस्या थी।
जब शासन ने देश के सभी वैध-अवैध नागरिकों की स्थायी पहचान के लिए “आधार” योजना प्रारम्भ की, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें लगा कि जीवन की सांझ में अब उन्हें एक पक्का आधार मिल जाएगा, जिसके सहारे वे शेष जीवन काट सकेंगे।
अवकाश प्राप्ति के बाद वे शरीर सज्जा के प्रति उदासीन हो गये थे, पर जिस दिन मोहल्ले में आधार कार्ड बनने थे, उस दिन उन्होंने शीशे में देखकर ठीक से दाढ़ी खुरची। सुगंधित साबुन से नहाये। बहुत दिन बाद शर्मानी मैडम की पसंद से सिलवाया हुआ सूट पहना और सबसे आगे जाकर खड़े हो गये।
पते और पहचान की पुष्टि के लिए उनके पास कई प्रमाण थे। 15 मिनट में सब कार्रवाई पूरी हो गयी। एक महीने बाद डाक से उन्हें एक कार्ड मिला, जिस पर उनकी “आधार” संख्या लिखी थी।
पर पिछले दिनों इस योजना के बारे में सत्ता पक्ष में ही घमासान हो गया। इसकी संसदीय समिति ने इसे निरस्त करने को कहा। गृहमंत्री चिदम्बरम भी इसे बेकार बता चुके थे। इससे इस योजना पर संकट के बादल छा गये। जैसे-तैसे प्रधानमंत्री जी ने हस्तक्षेप कर अपनी और सरकार की लाज बचाई।
शर्मा जी समझ नहीं पा रहे थे कि इस आधार कार्ड को ओढ़ें या बिछाएं ? अरबों रुपया खर्च होने के बाद भी यह योजना अपने लक्ष्य तक पहुंचेगी या नहीं, कहना कठिन है। जनता के खून-पसीने की कमाई को मिट्टी होते देख उनका पारा चढ़ गया।
काश, कोई शर्मा जी को बताए कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे जिस व्यक्ति का ही कोई निजी आधार नहीं है। जो किसी और की कृपा से, किसी और के लिए गद्दी घेर कर बैठा है। जो विदेशियों की खुशी के लिए घरेलू व्यापारियों के मुंह से रोटी छीनने को तैयार है, जो हिन्दुओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनाने के लिए कानून लाना चाहता है, वह कोई अच्छा काम कैसे कर सकता है ?
शर्मा जी ने गुस्से में आकर आधार कार्ड को आग लगा दी और एक बार फिर “निराधार” हो गये।
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