बात बेलाग
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समदर्शी
खयाली पुलाव
'युवराज' के मिशन के बावजूद कांग्रेस के रणनीतिकारों को भी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी की सीटों का आंकड़ा 50 के पार जाता नहीं दिख रहा, फिर भी सत्ता का शेखचिल्ली सपना देखने वालों की कतार है कि बढ़ती ही जा रही है। कांग्रेस के सहयोग से बनने वाली किसी गठबंधन सरकार में तो सत्ता में हिस्सेदारी स्वाभाविक ही है, लेकिन हवा में किले बनाने में माहिर कांग्रेसियों ने तो मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद के खयाली पुलाव भी पकाने शुरू कर दिए हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष महिला और बाह्मण होने के नाते खुद को पार्टी के लिए 'डबल बेनिफिट' मानती हैं तो एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष, जो अब केन्द्र में मंत्री हैं, अल्पसंख्यक मसीहा बनकर मोर्चा मारने की जुगत में हैं। एक कांग्रेसी राज्य मंत्री युवा होने के नाते उस मुख्यमंत्री पद की आस लगाये बैठे हैं। ऐसे ही एक आत्ममुग्ध दावेदार ने खुद को दौड़ में दिखाने के लिए मीडिया को दोपहर के भोज पर आमंत्रित कर लिया। वह केन्द्रीय मंत्री हैं और विवादास्पद बयानों के लिए मशहूर हैं, सो पत्रकार पहुंच भी गये। वहां देखा तो दंग, श्रीमान ने तो भोज से पहले बाकायदा पत्रकार सम्मेलन का प्रबंध कर रखा था। अभी तक जितने भी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण हुए हैं, किसी ने भी कांग्रेस को अकेले तो दूर, राष्ट्रीय लोकदल के साथ भी 100 सीटें नहीं दी हैं, लेकिन मंत्री जी ने भविष्यवाणी की कि पार्टी को 208 सीटें मिलेंगी। पत्रकारों को लगा कि टीवी कैमरों के जरिये पार्टी आलाकमान की नजरों में अपने नंबर बढ़ाने के लिए सीटों का आंकड़ा बढ़ाया जा रहा है, पर बाद में अनौपचारिक रूप से पूछे जाने पर भी मंत्री जी कांग्रेस की सीटें दो-चार से ज्यादा कम करने को तैयार नहीं हुए।
माले में चूक
अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शासनकाल में देश की अर्थनीति ही चौपट नहीं हो गयी है, दुनिया के लिए मिसाल रही विदेश नीति पर भी सवाल उठने लगे हैं। ऐतिहासिक संबंधों को नजरअंदाज कर इराक और ईरान के मामले में हम अमरीका के पीछे खड़े नजर आये तो माले (मालदीव) में तख्तापलट के मामले में भी हमारा दिग्भ्रम साफ दिखा। वर्ष 2008 में माले में पहली बार हुए बहुदलीय चुनाव में अब्दुल गयूम के दो दशक पुराने तानाशाही शासन को परास्त कर राष्ट्रपति बने नाशीद माले में लगातार मजबूत हो रहे कट्टरपंथी तत्वों को रास नहीं आये। सो, गयूम ने सेना और पुलिस से साठगांठ कर उनका तख्ता पलट दिया। अतीत में भारत ने हर संकट में बड़े भाई की तरह माले का साथ दिया, पर अब जब लोकतंत्र पर ही बन आयी तो बजाय अपेक्षित भूमिका निभाने के तख्तापलट के तुरंत बाद मनमोहन ने उप राष्ट्रपति से राष्ट्रपति बनाये गये वाहिद को फोन कर संबंध-सहयोग जारी रखने का आश्वासन दे दिया। नाशीद ने निराशा जतायी और कई दूसरे जानकारों ने भी अहसास कराया तो भूल सुधार करते हुए भारत सरकार ने माले की स्थिति का अध्ययन करने के लिए अपना विशेष दूत वहां भेजा और जल्दी ही नए चुनाव कराने की चारों तरफ से उठी मांग का समर्थन कर दिया। मालदीव में चीन की बढ़ती दिलचस्पी के मद्देनजर माले में यह राजनयिक व रणनीतिक चूक भारत को भारी पड़ सकती है।
कृष्णा के बोल
मनमोहन सिंह सरकार में बिना विचारे बोलने वाले मंत्रियों की फेहरिस्त तो बहुत लंबी है। उनके बोल वचनों से सरकार की फजीहत देश के अंदर होती ही होती है, लेकिन विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा तो मौका मिलते ही विदेश में भी देश की फजीहत कराने से नहीं चूकते। कभी अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने बजाय किसी दूसरे देश के विदेश मंत्री का भाषण पढ़ने लगते हैं, तो कभी कुछ का कुछ बोल देते हैं। अब तो उनके मुंह खोलने भर से ही डर लगने लगता है कि पता नहीं क्या गुल खिलाएंगे। चीन से भारत के रिश्तों की जटिलता जगजाहिर है। दशकों पुराना सीमा विवाद सुलझाने के लिए वार्ता के कई दौर हो चुके हैं, पर चीन द्वारा भारतीय सीमा के अतिक्रमण की हरकतें अब भी बदस्तूर जारी हैं। इसके बावजदू चीन में भारतीय दूतावास के नये भवन का उद्घाटन करने गये कृष्णा वहीं प्रमाण पत्र दे आये कि 'तिब्बत चीन का अंग है।' अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता के लिए तिब्बती निर्वासित जीवन व्यतीत करते हुए दशकों से संघर्ष कर रहे हैं। भारत के साथ उनके ऐतिहासिक और भावनात्मक संबंधों का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि निर्वासित तिब्बती सरकार भारत से ही काम कर रही है। फिर तिब्बत का स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र रहना भारत के लिए सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, पर कृष्णा हैं कि सब कुछ भुलाकर तश्तरी में रख कर ही तिब्बत सौंपने को उतावले नजर आये, जबकि चीन है कि हमारे अरुणाचल के कुछ हिस्सों पर दावा जताने की जुर्रत तो करता ही है, अन्य हिस्सों में भी जब तब अतिक्रमण से बाज नहीं आता।Enter News Text.
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