मंथन
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मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
भारत कैसे बना रहे भारत-1
चुनाव-दर्पण में भारतीय लोकतंत्र का जो विद्रूप चेहरा दिखायी दे रहा है, उससे प्रत्येक राष्ट्रभक्त अंत:करण में यह प्रश्न अवश्य उठता होगा कि क्या यही चेहरा बनाने के लिए स्वाधीन भारत ने 62 वर्ष पूर्व अपनी संवैधानिक यात्रा आरंभ की थी? इस भटकाव का कारण स्वयं संविधान है या उस संविधान का गलत क्रियान्वयन? यह संकट दल, नेतृत्व या विधारधारा का संकट है अथवा उस राजनीतिक प्रणाली का जिसमें से वे दल उपजे हैं, जिस पर वे आश्रित हैं और जिसके अखाड़े में वे अपनी हार-जीत का फैसला करने को बाध्य हैं? जिस तरह प्रत्येक दल अपने को पाक-साफ बताकर अपने प्रतिद्वंद्वी दलों पर भ्रष्टाचार, यौनाचार, अश्लीलता, अवसरवाद, जनता के साथ विश्वासघात, धनबल और बाहुबल के दुरुपयोग के आरोप लगा रहा है, उससे इस निष्कर्ष पर पहुंचना अपरिहार्य है कि एक ही राजनीतिक संस्कृति सब दलों में प्रतिबिम्बित हो रही है और यह राजनीतिक संस्कृति उस संवैधानिक रचना की उपज है जिसके द्वारा हम अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने का संकल्प लेकर आगे बढ़े थे।
भारतीय संविधान की रचना
हमें बार-बार स्मरण दिलाया जाता है कि संविधान सर्वोपरि है, संविधान उस पवित्र गाय के समान है जिसकी पवित्रता के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। बार-बार संविधान निर्माताओं की दुहाई दी जाती है, उनकी देशभक्ति और भविष्यदृष्टि का बखान किया जाता है। हमें बताया जाता है कि उस संविधान सभा में स्वाधीनता आंदोलन के सभी पुरोधा (केवल महात्मा गांधी को छोड़कर) सशरीर विद्यमान थे- पं. नेहरू, सरदार पटेल, डा.राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, मौलाना आजाद, आचार्य कृपलानी, पट्टाभिसीतारमैया, गोविंद वल्लभ पंत आदि। प्रथम पंक्ति का कोई भी ऐसा नाम नहीं है जो उस संविधान सभा में मौजूद न हो। सर्वपल्ली राधाकृष्णन, हृदयनाथ कुंजल, के.संथानम्, ठाकुरदास भार्गव, सरोजनी नायडु, कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी, एम.आर.जयकर, डा.भीमराव अम्बेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोपालास्वामी आयंगर, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे पैनी वकील बुद्धि के धनी, अर्थशास्त्री के.टी.शाह, एच.वी.कामथ और वी.टी.कृष्णमाचारी जैसे कुशल प्रशासक भी उस संविधान सभा में पूरे समय मौजूद थे। उनकी देशभक्ति और चिंतनशक्ति पर प्रश्न उठाने का हमें कोई अधिकार नहीं है। अत: यदि यह कहा जाए कि वह संविधान सभा भारत की विविधता और बौद्धिक प्रतिभा को पूरी तरह प्रतिबिम्बित करती थी तो कोई अत्युक्ति न होगी। उसमें पारसी थे, सिख थे, भारतीय ईसाई थे, एंग्लो इंडियन थे और मुस्लिम प्रतिनिधि भी। संविधान सभा के कुल 296 सदस्यों में से मुस्लिम लीग के 85 सदस्यों द्वारा बहिष्कार के बाद भी 211 सदस्यों ने 9 दिसम्बर, 1946 से 26 नवम्बर, 1949 तक ग्यारह लम्बे-लम्बे सत्रों में इकट्ठे बैठकर 2 वर्ष 11 महीने और 17 दिन तक विचार मंथन करके इस संविधान को गढ़ा। तब हम कैसे मान लें कि यह संविधान भारत की मिट्टी में से नहीं पैदा हुआ और वह भारत के लम्बे स्वाधीनता संघर्ष की प्रेरणाओं व आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। इसीलिए जब अण्णा हजारे के नेतृत्व में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ओर से कहा जाता है कि लोकतंत्र की संवैधानिक रचना का निर्णय जनता करेगी तो उसका उत्तर दिया जाता है कि संविधान स्वयं में सर्वोपरि है, और संविधान ने संसद को लोकतंत्र के शिखर स्थान पर बैठाया है, इसलिए संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी छेड़छाड़ करने का अधिकार केवल संसद को है, संसद के बाहर किसी भी संस्था या “सिविल सोसाइटी” (गैरराजनीतिक समाज) को नहीं है।
लोक का संविधान या संविधान के लिए लोक
यहां सवाल खड़ा होता है कि संविधान स्वयं में साध्य है या राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने वाला साधन मात्र। संविधान लोक के लिए है या लोक संविधान के लिए? लोक ने संविधान को अंगीकार किया या संविधान ने लोक को? तब 26 जनवरी, 1950 को अंगीकृत संविधान की उद्देशिका के इन शब्दों का क्या अर्थ लगाया जाए कि हम भारत के जन (लोक) निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इस संविधान को अंगीकार करते हैं? क्या उद्देशिका की इस भाषा का नि:संदिग्ध अर्थ यह नहीं है कि भारत के लोगों ने अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए इस संविधान को केवल साधन के रूप में अंगीकार किया था, न कि संविधान ने लोक का निर्माण किया था? यदि हम इस अर्थ को स्वीकार कर लें तो प्रश्न खड़ा होता है कि राष्ट्रीय लक्ष्यों की स्पष्ट व्याख्या करते हुए भारत के स्वाधीनता आंदोलन में से उभरे प्रखर राष्ट्रवादी नेतृत्व और सर्वोत्तम वकील बुद्धि ने तीन वर्ष लम्बा समय लगाकर जिस संविधान को गढ़ा, वह हमें उन लक्ष्यों की ओर बढ़ाने के बजाय उल्टी दिशा में क्यों ले जा रहा है? हम ऐसा तो नहीं कह सकते कि हमारी आंखों के सामने राजनीतिक पतन का जो परिदृश्य खड़ा है वह पिछले दो चार वर्षों का भटकाव मात्र है, जो किसी दल विशेष या नेतृत्व विशेष के सत्ता में आने पर दूर हो जाएगा। सच तो यह है कि अब कोई भी दल अपने को भिन्न या सात्विक कहने का दावा नहीं कर सकता। इस राजनीतिक प्रणाली में से उपजी राजनीतिक संस्कृति ने प्रत्येक दल को अपने रंग में रंग लिया है। पतन की यह प्रक्रिया आज शुरू नहीं हुई, संविधान के जन्मकाल से ही उसके लक्षण प्रगट होने लगे थे। इन 62 वर्षों में उसके पतन का क्षेत्र व्यापक हुआ है और उसकी गति उत्तरोत्तर होती जा रही है। अब तो यह प्रश्न उठने लगा है कि क्या इस राजनीतिक संस्कृति के भंवर में फंसा भारत भारत के रूप में जीवित भी रह सकेगा या नहीं? स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा-आकांक्षाओं को हम साकार भी कर पाएंगे या नहीं? एक सशक्त, स्वावलम्बी, राष्ट्रीय एकता के सूत्र में आबद्ध, नैतिक, आध्यात्मिक राष्ट्र जीवन का अनुकरणीय चित्र विश्व के सामने खड़ा कर पाएंगे या नहीं?
इन प्रश्नों का उत्तर कहां खोजें? क्या केवल वर्तमान का रोना रोते रहें? यह सच है कि मनुष्य वर्तमान में जीता है, उसमें ही अपने सुख-दु:ख बांटता रहता है। अतीत या तो उसकी स्मृति से ओझल हो जाता है, और यदि कभी आता है तो उसकी वर्तमान संवेदनाओं से पीछे जुड़ा न होने के कारण केवल मधुर और मोहक बनकर आता है। वही इस संवैधानिक रचना के साथ हो रहा है। दुनिया के सबसे भारी-भरकम संविधान में केवल 62 वर्षों में 109 संशोधन करने पड़े हैं, यह एक तथ्य ही हमारे मस्तिष्क को झकझोरने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। क्या किसी अन्य लोकतांत्रिक संविधान में सैकड़ों वर्षों की यात्रा में इतने अधिक संशोधन हुए हैं, यदि नहीं, तो केवल भारतीय संविधान में ही क्यों? क्या हमारे संविधान निर्माता आने वाले परिवर्तनों और स्थितियों की कल्पना नहीं कर पाये थे?
विखंडन का संविधान
इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हमें अपने संविधान निर्माताओं की सीमाओं और बाध्यताओं को समझना होगा और इन्हें समझने के लिए जुलाई, 1946 में गठित संविधान सभा के चरित्र और पृष्ठभूमि को जानना होगा। सामान्यतया यह माना जाता है कि संविधान सभा की मांग स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रवादी नेतृत्व की ओर से ही उठायी गयी थी। मई, 1934 से मार्च, 1946 में कैबिनेट मिशन के आगमन तक राष्ट्रवादी नेतृत्व ने प्रत्येक अवसर पर, प्रत्येक मंच से मांग उठायी थी कि हमें वयस्क मताधिकार से निर्वाचित संविधान सभा चाहिए, जहां बैठकर हम अपना संविधान स्वयं तैयार करेंगे। वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित संविधान सभा की मांग पर हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व ने इतना जोर क्यों लगाया और यह मांग मई, 1934 से ही क्यों उठना आरंभ हुई? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें भारतीय राष्ट्रवाद और ब्रिटिश कूटनीति के बीच द्वंद्व के लम्बे इतिहास का आलोड़न करना होगा। 1757 में प्लासी के युद्ध से 1857 की महाक्रांति तक कालखंड ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उदय और विस्तार का कालखंड था। इस कालखंड में प्रौद्योगिक एवं औद्योगिक क्रांति में से उपजी आर्थिक, प्रशासनिक एवं न्यायिक संस्थाओं का भारत में बीजारोपण हुआ। अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के सांचे में ढलकर पाश्चात्यीकृत मस्तिष्क गढ़ा गया।
1857 की क्रांति की विफलता के साथ भारत पर ब्रिटिश सैनिक और राजनीतिक विजय अपनी पूर्णता को पहुंची तो, पर उसकी देशव्यापी व्यापकता और त्वरित तीव्रता ने ब्रिटिश शासकों को भारतीय राष्ट्रवाद की प्राणशक्ति के बारे में सजग और भयभीत कर दिया। उन्होंने अपनी इस सैनिक- राजनीतिक विजय को स्थायी बौद्धिक-सांस्कृतिक विजय में परिणत करने की दूरगामी रणनीति का ताना-बाना बुना। इस रणनीति के क्रियान्वयन के लिए भारत की विविधता में प्रतिस्पर्धा और कटुता के विष बीज बोने के लिए “फूट डालो और राज करो” की बहुमुखी रणनीति तैयार की थी। एक ओर तो भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद के साथ गठबंधन तैयार किया, दूसरी ओर अखिल भारतीय चेतना को बाधित करने के लिए भारतीय नरेशों की सत्ता-कामना को उद्वीपित कर भारत को ब्रिटिश इंडिया और रियासती भारत जैसे दो भागों में विभाजित किया, तीसरे-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के वाहक समाज को विखंडित करने के लिए जाति, भाषा, जनजाति और जनपद के भेद खड़े किये। इन सब भेदों को गहरा करने के 1858 के रानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र से एक तथाकथित संविधान प्रक्रिया आरंभ की, जो 1861 के काउंसिल एक्ट, 1882 के स्थानीय निकाय निर्वाचन एक्ट, 1892 के काउंसिल एक्ट की किश्तों में एक-एक पग आगे बढ़ी। बंग-भंग विरोधी स्वदेशी आंदोलन के बाद 1909 के इंडियन काउंसिल एक्ट में मुसलमानों को पृथक मताधिकार देकर मुस्लिम पृथकतावाद को भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध खड़ा होने का संवैधानिक मार्ग खोल दिया गया।
1919 के भारत एक्ट में सिखों, एंग्लो इंडियनों और महाराष्ट्र के कुछ जिलों में मराठों को पृथक निर्वाचन का अधिकार देकर विखंडन के मार्ग पर धकेला गया। 1917 में भारतीय नरेशों को चेम्बर आफ पिं्रसेज नामक मंच पर एकत्र लाकर भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार के साथ खड़ा होने को प्रोत्साहित किया गया।
राष्ट्रवाद का उभार
इन साम्राज्यवादी कुचक्रों का शिकार बना भारतीय राष्ट्रवाद भी उदासीन और निष्क्रिय नहीं था। उन्नीसवीं शताब्दी में ही वह सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरातल पर सक्रिय हो गया था। स्वामी दयानंद के आर्य समाज, बंकिम चन्द्र चटर्जी के वंदेमातरम्, देवेन्द्र नाथ ठाकुर और केशव चन्द्र सेन के ब्राह्म समाज, राजनारायण बोस और नवगोपाल मिश्र के स्वदेशी मेला- जिसे राष्ट्रीय या हिन्दू मेला भी कहा गया, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की अध्यात्म साधना में से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का जो प्रवाह बहा, वह 1905-1909 के स्वदेशी आंदोलन के रूप में प्रस्फुटित हुआ और लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति के रूप में अखिल भारतीय राजनीतिक जागरण का अधिष्ठान बन गया। अरविंद घोष भारतीय राष्ट्रवाद के दार्शनिक के रूप में उभर कर सामने आ गये। बंगाल में भूदेव मुखोपाध्याय, केशव चन्द्र सेन और राजेन्द्र लाल मिश्र ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रस्तुत किया, केशव चन्द्र सेन के सुझाव पर स्वामी दयानंद ने हिन्दी को शास्त्रार्थ की भाषा के रूप में स्वीकार किया।
इस पृष्ठभूमि में जनवरी, 1915 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौट आये। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही उन्होंने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे धर्म के सनातन जीवन मूल्यों के आधार पर जीवन शैली और सत्याग्रह नामक,संघर्ष की प्रणाली विकसित की, 1909 में ही हिन्द स्वराज पुस्तिका में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को राजनीतिक धरातल के ऊपर उठाकर सांस्कृतिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया, पाश्चात्य और भारतीय सभ्यताओं के टकराव के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने राजनीतिक संघर्ष की पाश्चात्य संवैधानिक प्रणाली की बजाय अंतरात्मा की आवाज को अपने निर्णयों का आधार बनाया। आश्रम प्रणाली को पुनरुज्जीवित किया। संक्षेप में कहना हो तो एक ओर उन्होंने अपनी जीवन शैली, आत्मबल और पारंपरिक सांस्कृतिक शब्दावली के द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद के वाहक समाज के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित किया, दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार से पहल छीन ली। अपने आंदोलन के समय निर्धारण, स्वरूप और कार्यक्रमों की आकस्मिकता और अकल्पनीयता से ब्रिटिश रणनीतिकारों को हतप्रभ एवं किंकत्र्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में धकेल दिया। 1920 और 1930 के सत्याग्रहों में पहली बार भारतीय राष्ट्रवाद ने अखिल भारतीय राजनीतिक धरातल पर अपने विराट रूप को प्रगट किया। यहीं से ब्रिटिश सरकार और गांधी प्रणीत राष्ट्रवाद के बीच एक कूटयुद्ध आरंभ हो गया।द (क्रमश:)
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