मंथन
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मंथन
द देवेन्द्र स्वरूप
आजकल मीडिया और राजनेताओं पर पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का उन्माद सवार है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत का सार्वजनिक जीवन सत्ता राजनीति पर केन्द्रित हो गया है और यह राजनीति चुनावों की धुरी पर घूमती है। चुनाव में हार-जीत पर ही राजनेताओं और उनके दलों का भविष्य निर्भर करता है। वैसे प्रत्येक दल किसी न किसी विचारधारा के प्रति निष्ठा का दावा करता है। किन्तु प्रत्येक दल के प्रत्याशी चयन और चुनावी रणनीति पर ध्यान दें तो स्पष्ट दिखायी देता है कि चुनाव जीतना मात्र एक कला है, रणनीति है, जिसमें विचारधारा और आदर्शवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। चुनाव के निकट आते ही प्रत्येक दल में दल-बदल, बगावत और तोड़-फोड़ के समाचारों की बाढ़-सी आ जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि जिस राजनीतिक प्रणाली को हमने अपनाया है और जिसके माध्यम से स्वाधीन भारत ने अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपनी यात्रा आरंभ की थी, विगत 62 वर्षों में उस प्रणाली के भीतर से ऐसा राजनीतिक नेतृत्व उभरा है जो राष्ट्र व दल के प्रति निष्ठा न रखकर केवल अपनी व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा को ही सर्वोपरि मानता है।
वंश और व्यक्ति केन्द्रित राजनीति
सिद्धांतनिष्ठ लोकतंत्र में तो व्यक्ति दल के लिए और दल राष्ट्र के लिए अपने हितों की बलि देने को तैयार रहता है, किन्तु इन 62 वर्षों में भारतीय राजनेताओं का प्रेरणा वाक्य बन गया है “राष्ट्र से बड़ा दल और दल से बड़ा मैं।” इसीलिये वयस्क मताधिकार पर आधारित भारतीय लोकतंत्र तेजी से वंशवाद की ओर बढ़ा। यदि भारत के आज के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो भारतीय जनता पार्टी के अतिरिक्त अन्य सभी राजनीतिक दल, जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक, किसी एक व्यक्ति विशेष या वंश की महत्वाकांक्षा पूर्ति का माध्यम बने हुए हैं। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी दोनों बड़े दल वंशवादी हैं, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की राजनीति बादल परिवार के इर्द-गिर्द घूम रही है, हरियाणा में हुड्डा, चौटाला और भजनलाल परिवार राजनीति का केन्द्र बन गए हैं, उत्तर प्रदेश में चौ.चरण सिंह, मुलायम सिंह और सोनिया वंश राजनीति पर छाये हुए हैं, बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान अपने अपने वंश का पोषण कर रहे हैं, उड़ीसा में सत्तारूढ़ बीजू जनता स्व.बीजू पटनायक की वंशवादी विरासत को आगे बढ़ा रहा है, आंध्र प्रदेश में तेलुगूदेशम पार्टी और तेलंगाना राष्ट्र समिति का वंशवादी चरित्र बहुत स्पष्ट है, कर्नाटक में देवेगौड़ा परिवार ही राजनीति के केन्द्र में है। तमिलनाडु में द्रमुक की वंशवादी राजनीति बहुत चर्चित है। महाराष्ट्र में शरद पवार की राजनीति का वंशवादी चरित्र सबके सामने है, शिवसेना और राज ठाकरे की मनसे स्पष्ट ही वंशवादी दल हैं। इन वंशवादी दलों से अलग देखें तो तमिलनाडु में जयललिता की अन्नाद्रमुक, आंध्र में अभिनेता चिरंजीव की प्रजा पार्टी, बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, बिहार में नितीश का जनता दल (यू), उत्तर प्रदेश में मायावती की बसपा व्यक्ति केन्द्रित राजनीतिक दल हैं। अब रह जाती हैं कम्युनिस्ट पार्टियां एवं उनके सहयोगी दल। ऊपर से देखने पर वे अभी भी असफल और कालबाह्य माक्र्सवादी विचारधारा के प्रति निष्ठा का दावा करते हैं, किन्तु पिछले 33 वर्षों से एक ही कार्यक्रम को लेकर चुनाव लड़ने, सरकार चलाने और वाममोर्चा की बात करने के बाद भी वे अलग-अलग दलों में क्यों बंटे हैं? उसका उत्तर विचारधारा तो नहीं ही है, क्योंकि विचारधारा के प्रति सच्ची निष्ठा तो जोड़ने का काम करती है। इसका कारण नेतृत्व की स्पर्धा और सम्पत्ति पर नियंत्रण की लालसा ही हो सकती है, वैसे भी विचारधारा का अधिष्ठान खिसक जाने के कारण अब वाममोर्चे के घटकों का जनाधार लगातार खिसकता जा रहा है। वे अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए जूझ रहे हैं।
प्राचीन राष्ट्र या “नेशन इन दि मेकिंग”
स्पष्ट है कि व्यक्तिगत और वंशवादी महत्वाकांक्षा के कारण भारतीय राजनीति उत्तरोत्तर विघटन की दिशा में आगे बढ़ रही है और उसने अपने स्वार्थ के लिए भारतीय समाज को भी जाति व क्षेत्र के आधार पर विखंडित कर दिया है और यह विखंडन निरन्तर आगे बढ़ रहा है। अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के सामने यह समस्या हमेशा खड़ी रही है कि लम्बी इतिहास यात्रा में से उपजी जाति और जनपदीय चेतनाओं में अन्तर्भूत सांस्कृतिक एकता की भावना को राजनीतिक धरातल पर कैसे प्रतिबिम्बित किया जाए। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हमारे अचेतन मानस में सदैव सक्रिय रहा। अति प्राचीन काल में उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति का प्रयास भी प्रारंभ हो गया। भारत की भौगोलिक विशालता और आवागमन व संचार के साधनों की विरलता के कारण राजनीतिक एकता की अभिव्यक्ति के लिए चक्रवर्ती सम्राट की कल्पना विकसित हुई। छत्रपति शिवाजी ने पहली बार हिन्दवी स्वराज्य का लक्ष्य सामने रखकर भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए अखिल भारतीय अभियान आरंभ किया।
उन्नीसवीं शताब्दी में प्रौद्योगिक और औद्योगिक क्रांतियों के साथ-साथ भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का उदय और विस्तार की प्रक्रिया आरंभ हुई, जिसके कारण एक ओर ब्रिटिश शासकों ने संचार और आवागमन के टेलीग्राफ, स्टीमर, रेलवे जैसे त्वरित साधन भारत में आरोपित किये, दूसरी ओर अखिल भारतीय प्रशासन तंत्र विकसित किया और छापे खाने की सुविधा के कारण पूरे भारत में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों का एक नया वर्ग खड़ा कर दिया। यह वर्ग पाश्चात्य अवधारणाओं, विचारधाराओं और शब्दावली को आत्मसात करने लगा था। वह मान बैठा था कि राष्ट्रवाद एक राजनीतिक अवधारणा है, जिसका जन्म अठारहवीं सदी के अंत में यूरोप में हुआ है। एक व्याख्यायित भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों को राष्ट्रीयता के सूत्र में गूंथने के लिए राज्य जैसी राजनीतिक इकाई की आवश्यकता होती है और क्योंकि पूरे भारत पर किसी एक राजसत्ता का वर्चस्व कभी नहीं रहा, और अब पहली बार ब्रिटिश शासन ने ऐसी राजसत्ता स्थापित की है, इसलिए भारत के राष्ट्र बनने की प्रक्रिया अब प्रारंभ हुई। इसलिए भारत पहले से एक राष्ट्र नहीं है, राष्ट्र बनने की उसकी यात्रा अब आरंभ हुई है। इस ब्रिटिश प्रचार का ही प्रभाव था कि सुरेन्द्र नाथ बनर्जी जैसे राष्ट्रीय नेता ने अपनी आत्मकथा को “ए नेशन इन दि मेकिंग” जैसा शीर्षक दिया। किन्तु यदि 1876 में इंग्लैण्ड से आईसीएस की परीक्षा पास करके भारत लौटने के बाद सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के भाषणों को यदि पढ़ें तो उनके भारत के प्राचीन सांस्कृतिक गौरव के प्रति श्रद्धा भाव पदे पदे झलकता है।
ब्रिटिश सरकार की सोच और योजना
ब्रिटिश शासकों ने भारतीय समाज का सूक्ष्म अध्ययन कर इस सत्य का साक्षात्कार कर लिया था कि भारत की ऊपरी विविधता के नीचे सांस्कृतिक एकता और भारत भक्ति का एक प्रबल अन्तप्रर्वाह बह रहा है जो राष्ट्रवाद की आधारभूमि बन सकता है। उन्होंने यह भी पहचाना कि भारत में जो विशाल मुस्लिम समाज निवास करता है वह इस्लाम की मूलभूत विचारधारा एवं लम्बे समय तक भारत में शासन करने के कारण विजेता भाव से ग्रस्त है और अपने को भारत भूमि की संतान मानने को तैयार नहीं है। किन्हीं कारणों से वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के वाहक राष्ट्रीय समाज, जो हिन्दू नाम से पहचाना जाता है, को अपना प्रतिद्वंद्वी मान बैठा है। ऐतिहासिक कारणों से वह और हिन्दू समाज साथ-साथ रहकर भी एक दूसरे से अलग-अलग जी रहे हैं। भारतीय राष्ट्रवाद की सहज आकांक्षा विदेशी दासता से मुक्ति पाना है, इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का उभार हमारे साम्राज्यवादी हितों के विरुद्ध जाता है। जबकि ऐतिहासिक कारणों से भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम समर्थन पर हम विश्वास कर सकते हैं। इस विषय पर बहुत साहित्य लिखा गया है। अभी हाल में इसी विषय पर भारतीय गुप्तचर विभाग के एक पूर्व शीर्ष अधिकारी मलय कृष्ण धर ने “भारत में हिन्दू मुस्लिम अलगाववाद की ऐतिहासिक कारण मीमांसा” प्रकाशित की है।
1857 की महाक्रांति की विफलता के समय से ही मुस्लिम नेतृत्व के मन में हिन्दू बहुमत का भय सवार हो गया। अत: जब 1885 में लोकतांत्रिक प्रणाली की मांग के लिए कांग्रेस की स्थापना हुई तभी से सर सैयद अहमद खां, बंगाल के अब्दुल लतीफ और अमीर अली ने कांग्रेस को हिन्दू संस्था कहकर उसका विरोध आरंभ कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना का अर्थ होगा हिन्दू बहुमत का मुस्लिम अल्पमत पर वर्चस्व, जो हमें कदापि स्वीकार नहीं है। सर सैयद ने कहा कि भारत में सत्ता का फैसला संख्या बल से नहीं, हमारी तलवार से होगा। उन्होंने मुस्लिम समाज को ब्रिटिश शासकों से गठजोड़ करने की सलाह दी। 1885 से 1947 तक का इतिहास साक्षी है कि 1921-22 में खिलाफत आंदोलन के अलावा मुस्लिम समाज हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन से अलग रहा। कुछेक श्रेष्ठ और उदार मुस्लिम नाम अवश्य स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े, उन्हें राष्ट्रवादी मुसलमान कहा गया, किन्तु सामान्य मुस्लिम समाज ने कभी उनको अपना नेता नहीं माना। 1947 तक मुस्लिम प्रश्न ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सामने यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा रहा। भारतीय राष्ट्रवाद की सुदृढ़-सांस्कृतिक आधारभूमि को ब्रिटिश शासकों ने अच्छे-से पहचाना। 1882 में सर जान सीटो ने “एक्सपेंशन आफ इंग्लैण्ड” नामक पुस्तक में और अलफ्रेड लायल ने “एशियाटिक स्टडीज” में हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता का वाहक स्वीकार किया। राष्ट्रीय चेतना में उसके रूपांतरण को रोकने के लिए उन्होंने भारतीय समाज की ऊपरी विविधता को परस्पर पूरक बनाने की बजाय प्रतिस्पर्धी और संघर्षी बनाने की दिशा में अनेकविध प्रयास किये। दस वर्षीय जनगणना नीति, गजेटियर साहित्य का निर्माण, भाषा सर्वेक्षण, आर्य आक्रमण सिद्धांत के द्वारा ब्राह्मण एवं संस्कृत विरोधी मानस को निर्माण करने की नीति अपनायी। विविधता को मतभेद बना दिया। जाति व्यवस्था को नस्ली आधार पर व्याख्यायित करने के लिए एच.एच. रिज्ले ने भारतीय जातियों और जनजातियों का नस्लीय सर्वेक्षण का गठन किया। रिज्ले 1901 की जनगणना का अ.भा. प्रमुख था। उसी ने विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक ऊंच-नीच का सिद्धांत जनगणनाओं में समाविष्ट किया। अपने लम्बे अनुभव और अध्ययन के आधार पर रिज्ले ने 1909 में “पीपुल आफ इंडिया” (भारत के जन) नाम से एक पुस्तक लिखी, जिसके अंतिम अध्याय में उसने निष्कर्ष निकाला कि राष्ट्रवाद के विरुद्ध जातिवाद को ही हथियार बनाया जा सकता है, और वही दृश्य आज हमारे सामने हैं। छोटे-छोटे राज्यों की मांग क्षेत्रवाद अर्थात जनपदीय चेतना को पुनर्जीवित करने का प्रयास है। अभी आउटलुक नामक अंग्रेजी साप्ताहिक ने 6 फरवरी, 2012 के अंक में एक मानचित्र प्रकाशित कर 50 राज्यों में भारत के पुनर्गठन की वकालत की है।
वोट बैंक राजनीति का विषम चक्र
हम कई वर्षों से लिखते आ रहे हैं कि मानचित्र को बदलने से पहले राजनीति को बदलना आवश्यक है। ऐसी राजनीति, जिसमें चुनाव जीतने के लिए वंशवाद, धनबल, शराब और नशा तथा बाहुबल का निर्लज्जता के साथ सहारा लिया जा रहा है, जहां जातिवाद का खेल खुलकर खेला जा रहा है, इस पतन और विखंडन का लाभ उठाकर मुस्लिम वोट बैंक उसी निर्णायक स्थिति में पहुंच गया है जो उसने पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपनायी थी, और जिसके फलस्वरूप मातृभूमि को विभाजन की विभीषका से गुजरना पड़ा। आज स्थिति यह है कि सोनिया ने अपने वंशवादी शासन की स्थापना के लिए खुलकर मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने का मार्ग अपना लिया है। उसने यह समझ लिया है कि जिस मुस्लिम समाज ने स्वतंत्रता आंदोलन के काल में गांधी और कांग्रेस को हिन्दू पुनरुत्थानवादी घोषित कर दिया था, 1937 और 1945 के चुनावों में गांधी की कांग्रेस को पूरी तरह नकार दिया था, उस मुस्लिम समाज ने देश विभाजन के पश्चात नई रणनीति के तहत कांग्रेस की छतरी में घुसकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ-भारतीय जनता पार्टी के प्रति विरोध भाव अपना लिया है। उनका विरोध भारतीय राष्ट्रवाद से है। स्वतंत्रता के पूर्व राष्ट्रवाद का चेहरा कांग्रेस व गांधी थे तो स्वतंत्रता के बाद संघ परिवार है। इस यथार्थ को व्यक्त कर सोनिया की रणनीति 16 प्रतिशत मुस्लिम वोट बैंक और 5 प्रतिशत चर्च नियंत्रित ईसाई वोट बैंक की मदद से सीधे केन्द्र में सत्ता पर काबिज होना है। केन्द्र में उसकी एकमात्र प्रतिस्पर्धी भाजपा है। वह विभिन्न राज्यों में अनेक जातिवादी और क्षेत्रीय दलों के सत्तारूढ़ होने को राष्ट्रीय हिन्दू समाज के विघटन के रूप में देखती है। इसलिए वह हर राष्ट्रवादी उभार को संघ से जोड़कर, मुस्लिम और चर्च को उससे अलग करने की आशा करती है। राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित भाजपा भी चुनाव जीतने के लोभ में जातिवादी राजनीति का सहारा लेने को बाध्य है, क्योंकि चुनाव में जीत को ही विचारधारा की जीत माना जाता है। इस प्रकार वह स्वयं को एक विषमचक्र में फंसी पा रही है। प्रश्न यह है कि राष्ट्रवाद इस विषम चक्र में फंसा कैसे और उससे बाहर निकलने का उपाय क्या है?द
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